अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
February 26, 2025 at 01:35 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित* *अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳* *क्रमांक~ ०२* https://photos.app.goo.gl/9D8nTPGyRHmktApv5 🚩🚩 🚩🚩 *`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`* `{चतुर्थ स्कन्ध:}` *【अष्टाविंशति अध्याय】* *(श्लोक~ 33से 65 तक)* *_पुरञ्जन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति..._* अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर *भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये।* उस समय चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है *उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलाञ्जलि दे पाण्ड्यनरेश का अनुगमन किया।* वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और *अन्तःकरणको निर्मल करते थे।* वहाँ रहकर उन्होंने *कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया।* इससे धीरे धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर *शीत-उष्ण वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्द्रों को जीत लिया।* तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्मभावना करने लगे। *इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणुके समान निश्चलभाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे।* भगवान् वासुदेव सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादिका भी भान न हुआ। *राजन् ! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण सब ओर स्फुरित होनेवाले विशुद्ध विज्ञानदीपक से उन्होंने देखा कि* अन्तःकरण की वृत्ति का प्रकाशक आत्मा स्वप्रावस्थाकी भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक भी है। ऐसा अनुभव करके वे *सब ओर से उदासीन हो गये।* फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और *परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नरूप से देखा* और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये। राजन्! इस समय पतिपरायणा *वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी।* वह चीर वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका *शरीर अत्यन्त कृश हो गया था* और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अङ्गारभाव को प्राप्त *शान्त शिखा के समान सुशोभित हो रही थी।* उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। *इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी।* चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों मे गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, *तब तो वह झुंड से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी।* उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर यह *बड़ी शोकाकुल हुई और आंसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी।* वह बोली, 'राजर्षे उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह *वसुन्धरा लुटेरों और अधार्मिक राजाओ से भयभीत हो रही है,* आप इसकी रक्षा कीजिये। पति के साथ वन में गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती *पति के चरणों में गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी।* लकड़ियो की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि लगाकर विलाप करते-करते *स्वयं सती होनेका निश्चय किया।* राजन् ! इसी समय उसका कोई पुराना मित्र एक *आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया।* उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा– *ब्राह्मणने कहा-* तू कौन है ? किसकी पुत्री है ? *और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है ?* क्या तुम मुझे नहीं जानती ? मैं वही तेरा मित्र हूँ जिसके साथ *तू पहले विचरा करती थी।* सखे ! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय में तुम्हारा *अविज्ञात नाम का सखा था ?* तुम पृथ्वी के भोग भोगने के लिये निवास स्थान की खोज में मुझे छोड़कर चले गये थे। *आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरे के मित्र एवं मानसनिवासी हंस थे।* हम दोनों सहस्रों वर्षों तक बिना किसी निवास स्थान के ही रहे थे। किन्तु मित्र ! *तुम विषयभोगों की इच्छा से मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वी पर चले आये !* यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्री का रचा हुआ स्थान देखा। *उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे।* वह पाँच उपादान कारणों से बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी। *महाराज ! इन्द्रियों के पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अप्र-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वैश्य थे क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियां ही बाजार थीं,* पांच भूत ही उसके कभी क्षीण न होने वाले उपादान कारण थे और *बुद्धि शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी।* यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करने पर *पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है।* अपने स्वरूप को भूल जाता है। भाई उस नगर मे स्वामिनी के फंदे पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूप को भूल गये और उसी के सङ्गसे तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो तुम न तो दर्भराज की पुत्री ही हो और न यह मलयध्वज तुम्हारा पति ही *जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था.* उस पुरञ्जनी के पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्म ने अपने को पुरुष समझते थे और *अब सती स्त्री मानते हो यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है।* वास्तव तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो। मित्र ! *जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भित्र नहीं हो* और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। *जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में और किसी व्यक्ति के नेत्र में भिन्न-भिन्न रूप से देखता है वैसे ही एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूपमें दो प्रकार से देख रहा है।* इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) *अपने स्वरूप में स्थित हो गया* और उसे अपने मित्र के विछोह से भूला हुआ *आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया।* *प्राचीनवर्हि! मैंने तुम्हें परोक्षरूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।।* *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻* 🕉️🌞🔥🔱🐚🔔🌷

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