Mazdoor Bigul  मजदूर बिगुल www.mazdoorbigul.net
Mazdoor Bigul मजदूर बिगुल www.mazdoorbigul.net
February 15, 2025 at 04:26 AM
📮___________________📮 _महत्वपूर्ण पोस्ट, पढ़ें और शेयर करें_ *भाषा के प्रश्न पर एक अनौपचारिक वार्ता* ✍ शशि प्रकाश (एक अनौपचारिक बातचीत का टेप किया गया अंश) 📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2025/02/bhasha-ka-patan-vicharon-ka-patan.html ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाषा का पतन दरअसल विचारों का पतन होता है। भाषाहीनता विचारहीनता की स्थिति होती है। उधार के विचार अनुवाद जैसी भाषा में प्रकट होते हैं। आडम्बरी लोगों की सजी-सँवरी भाषा भी बनावटी, खोखली और उबाऊ होती है। मौलिक विचार मौलिक भाषा में सामने आते हैं। यथार्थ के संधान और अन्वेषण में भटकते व्यक्ति की भाषा आभासी तौर पर अनगढ़ और भटकती हुई लगती है, पर फिर भी आकर्षक और आत्मीय प्रतीत होती है। सच्चा रचनाकार कभी अपनी अभिव्यक्ति से संतुष्ट नहीं होता। उसे कहीं कुछ अधूरा, कुछ छूट गया-सा महसूस होता रहता है। जो स्वाभाविक तौर पर अपनी भाषा में नहीं सोचते और नहीं लिखते, वे कभी भी न मौलिक चिन्तक हो सकते हैं और न 'जनता का आदमी'। यह सही है कि यथासम्भव सरल भाषा में लिखना चाहिए, लेकिन सरलता का अतिरेकी आग्रह भाषा को अगर टकसाली और टपोरी बनाने तक चला जाए, तो यह समाज में विचारों की जगह को और अधिक संकुचित करता चला जायेगा। कोई दार्शनिक या वैचारिक बात यदि जटिल और अमूर्त है, तो लाख कोशिश के बावजूद भाषा में भी किसी हद तक जटिलता और अमूर्तन आ ही जायेगा। परिशुद्धता और सटीकता दर्शन और विज्ञान में ज़रूरी होते हैं और इनके लिए भाषा में गाम्भीर्य और गुरुत्व अनिवार्य हैं। भाषा की सरलता का निरपेक्ष और अतिरेकी आग्रह करने वाले प्रायः वे लोग होते हैं जो अपनी भाषिक-संपदा और उसके सौन्दर्य से अपरिचित होते हैं, या उसके प्रति असम्पृक्त अथवा असजग होते हैं। भाषिक-संपदा इतिहास की संचित पूँजी होती है, उसे खो देना ऐतिहासिक स्मृति-भ्रंश का शिकार हो जाना है। और फिर बात यह भी है कि जो चलन में नहीं होता वह अपरिचित, इसलिए कठिन लगने लगता है। शब्द बरतने से चलन में आ जाते हैं और सुपरिचित लगने लगते हैं। अच्छा लेखक वह है, जो भाषा में नवाचार के साथ-साथ पुरानी भाषिक संपदा का भी नए सिरे से इस्तेमाल करता है और भाषा को अधिक समृद्ध और विचारक्षम बनाता है। 'इंस्टैंट फ़ूड कल्चर' के ज़माने में पाठक बहुधा गहन वैचारिक बातें भी टकसाली भाषा में रखने का आग्रह करता है। वह रुककर, थिराकर, सोचते हुए, पढ़ना नहीं चाहता, बस शब्दों पर फिसलते चले जाना चाहता है। लेखक को उसके पीछे नहीं, उसके आगे चलना चाहिए, उसकी मांग के आगे झुकने की जगह उसे शिक्षित करना चाहिए, उसे विचारों में जीने के लिए प्रेरित करना चाहिए। किसी भी समाज में गीत, आशु-कविता, वैचारिक कविता और महाकाव्य की भाषाएँ एक समान नहीं हो सकतीं। पर्चों, शिक्षण-माला की पुस्तिकाओं और वैचारिक लेखन की भाषाओँ में भी अंतर स्वाभाविक है। ➖➖➖➖➖➖➖➖ 🖥 प्रस्‍तुति - Uniting Working Class 👉 *हर दिन कविता, कहानी, उपन्‍यास अंश, राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक विषयों पर लेख, रविवार को पुस्‍तकों की पीडीएफ फाइल आदि व्‍हाटसएप्‍प, टेलीग्राम व फेसबुक के माध्‍यम से हम पहुँचाते हैं।* अगर आप हमसे जुड़ना चाहें तो इस लिंक पर जाकर हमारा व्‍हाटसएप्‍प चैनल ज्‍वाइन करें - http://www.mazdoorbigul.net/whatsapp चैनल ज्वाइन करने में कोई समस्या आए तो इस नंबर पर अपना नाम और जिला लिख कर भेज दें - 9892808704 🖥 फेसबुक पेज - https://www.facebook.com/mazdoorbigul/ https://www.facebook.com/unitingworkingclass/ 📱 टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul हमारा आपसे आग्रह है कि तीनों माध्यमों व्हाट्सएप्प, फेसबुक और टेलीग्राम से जुड़ें ताकि कोई एक बंद या ब्लॉक होने की स्थिति में भी हम आपसे संपर्क में रह सकें।
❤️ 👍 2

Comments