
Abu Muhammad ابو محمد
May 27, 2025 at 10:10 AM
*"एक विचारशील विश्लेषण"*
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भी हाल ही में एक विडिओ मुझे एक भाई ने भेजी, जिसमें सूरह आल-इमरान की आयत 145 की ऑडियो थी।
*"और किसी शख्स में हिम्मत नहीं कि अल्लाह के हुक़्म के बग़ैर मर जाए, और अल्लाह ने मौत का वक़्त तय कर रखा है"*
(सूरत आल-इमरान: 145)
विडियो के दृश्य फलस्तीन की तबाही, मलबों में दबे मासूम बच्चों और बमबारी के खौफनाक मंज़र पर आधारित थे।
*इसका निहित संदेश यह था कि "अगर फलस्तीन में बच्चे मर रहे हैं, तो यह सब अल्लाह की मर्ज़ी से हो रहा है, इसलिए इसके विरोध की ज़रूरत नहीं।*
लेकिन क्या यही है इस आयत का वास्तविक अर्थ ?
हरगिज़ नहीं।
*यह आयत जिस संदर्भ में नाज़िल हुई, वह युद्ध और शहादत का था।*
मक़सद था, ईमान वालों को हिम्मत देना, ताकि वे ज़ुल्म से न डरें, और इंसाफ़ के लिए जान देने से पीछे न हटें।
*कहा गया कि मौत एक तय वक्त पर आएगी, इसलिए सच्चाई के रास्ते पर डटे रहो, न कि ज़ालिमों के सामने खामोश हो जाओ।*
विडियो में इस आयत को इस्तेमाल कर यह तर्क दिया गया कि ज़ुल्म अगर हो रहा है तो वह *“अल्लाह की मर्ज़ी”* है।
यह कुरआन की तालीम और शिक्षा के खिलाफ़ सीधी बग़ावत है।
ऐसा करना आयत की गलत व्याख्या ही नहीं, ज़ुल्म के समर्थन के बराबर है।
*इस्लाम का मूल संदेश क्या है?*
कुरआन बार-बार अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की बात करता है।
जैसे....
*"और उन लोगों से अल्लाह की राह में जिहाद करो जो तुमसे लड़ते हैं, लेकिन हद से आगे न बढ़ो। अल्लाह हद से बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता।"*
(सूरत अल-बक़रह: 190)
यहाँ जिहाद का अर्थ है, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष, न कि चुप्पी या सहनशीलता।
जुल्म को "अल्लाह की मर्ज़ी" कहकर छोड़ देना, इस्लाम के बुनियादी उसूलों की खिलाफ़वर्जी है।
*रसूलुल्लाह (स.अ.) ने मक्के में जब शदीद जुल्म सहा,* *तो क्या वे चुप हो गए?*
नहीं।
वे हक़ की आवाज़ बनकर उठे, अबू जहल जैसे ज़ालिमों का विरोध किया।
मदीना में ताक़त मिलने के बाद ज़ालिमों से लड़े, मज़लूमों की हिफाज़त की।
*अगर वे भी कह देते कि “सब कुछ अल्लाह की मर्ज़ी” है, तो इस्लाम इंसाफ़ और करुणा का पैग़ाम कैसे बनता ?*
*कुरआन खुद कहता है...*
*"तुम सबसे बेहतरीन उम्मत हो, जो इंसानों के लिए निकाली गई है। तुम भलाई का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो।"*
(सूरत आल-इमरान: 110)
और एक और जगह ज़ुल्म सहने वालों के लिए फरमाया...
*"और क्या कारण है कि तुम अल्लाह की राह में, उन कमजोर मर्दों, औरतों और बच्चों के लिए जिहाद नहीं करते, जो फ़रियाद कर रहे हैं: ऐ हमारे रब! हमें इस ज़ालिम क़ौम से निजात दे।"*
(सूरत अन-निसा: 75)
यानी कुरआन का पैग़ाम है, खामोशी नहीं, बल्कि ज़ालिम के खिलाफ आवाज़ उठाना।
*यक़ीनन, पेड़ का पत्ता भी अल्लाह की मर्ज़ी से ही गिरता है,*
*लेकिन अगर कोई पूरी बग़ीचा ही उजाड़ दे और कहे कि यह “अल्लाह की मर्ज़ी” थी, तो यह सोच बेवकूफी और धोके के सिवा कुछ नहीं।*
अल्लाह ने इंसान को अक़्ल दी है, सोचने की ताक़त दी है, नबी भेजे, किताबें उतारीं, ताकि इंसान हक़ और बातिल में फर्क करे।
*जो फिर भी ज़ुल्म का समर्थन करे, वह अल्लाह की नहीं, शैतान की राह पर है।*
*इस्लाम का पैग़ाम जिओ और जीने दो से भी ऊपर है....*
*इस्लाम का पैगाम है जिओ और दूसरे के जीने में भी सहूलत पैदा करो।*
*ना कि ज़ालिमों को “मर्ज़ी” का बहाना देकर खुली छूट दे दो।*
क़ुरआन की आयतों का संदर्भ से हटकर उपयोग करना न सिर्फ ग़लत है, बल्कि खतरनाक भी है।
इस्लाम इंसाफ़, रहमत और संघर्ष का मज़हब है, ज़ालिमों की हिमायत का नहीं।
हर मुसलमान की जिम्मेदारी है कि ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाए, चाहे वह कहीं भी हो, और किसी पर भी हो।
*क्योंकि चुप्पी भी ज़ुल्म का एक हिस्सा होती है।*

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