
Rojgar with Ankit , (RWA) ANKIT BHATI SIR
May 15, 2025 at 03:47 AM
*Education System की सच्चाई*
हर साल सीबीएसई और उसकी नकल से State बोर्ड सिलेबस घटाता जाते है। हर साल कुछ पाठ हटते हैं, कुछ कठिन हिस्से निकाल दिए जाते हैं, और हर साल हम शिक्षा के शव को थोड़ा सा और सजाते हैं। बच्चों को अब न सोचने की ज़रूरत है, न समझने की। उन्हें बस परीक्षा में पास होना है, और पास हो जाना ही जैसे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान ली गई है।
अब स्कूल की परीक्षा चुनौती नहीं रही। औसत से भी औसत छात्र यदि एक महीने रिवीजन कर ले, तो 90% लाकर हीरो बन सकता है। लेकिन ये नंबर नहीं हैं—ये धोखे की सजावट हैं। सवाल इतने सतही हो चुके हैं कि उनका जवाब देना तुकबंदी जैसा लगने लगा है।
दूसरी तरफ, प्रतियोगी परीक्षाएँ अब क्रूर जंगल बन चुकी हैं। हर साल उनका स्तर और ऊँचा, हर साल उनमें और ज़्यादा दिमाग़ माँगा जाता है, और हर साल छात्रों को बताया जाता है कि यह केवल उनका भविष्य नहीं, उनका पूरा जीवन तय करेगा। एक तरफ स्कूली किताबें बच्चों को बच्चा बनाए रखती हैं, और दूसरी तरफ प्रतियोगिता उन्हें अचानक गहरी नदी में धकेल देती है—जहाँ तैरना भी नहीं सिखाया गया, और डूबना भी माफ नहीं।
और इस दरार के बीच, जैसे किसी सुनसान पुल पर कोई अधूरा मुसाफ़िर खड़ा हो—वहीं खड़ा है हमारा छात्र। न आगे का रास्ता स्पष्ट है, न पीछे लौटने का विकल्प। न स्कूल उसे उड़ने की ताक़त देता है, न प्रतियोगिता उसे गिरने की छूट।
यहीं से जन्म होता है कोचिंग का। कोचिंग अब महज़ विकल्प नहीं रह गए हैं, वह अनिवार्य हो चुके हैं। जब स्कूल बच्चों को केवल बोर्ड एग्जाम पास करने लायक बना रहे हों, और समाज उन्हें 'सरकारी' बनने के लिए झोंक रहा हो—तब कोचिंग वह अनचाही लेकिन अनिवार्य नर्सरी बन जाती है, जहाँ छात्र को फिर से गढ़ा जाता है। अब माँ-बाप भी जान गए हैं कि ऐसे दौर में कोचिंग नोट्स असली हथियार हैं। इसीलिए डमी स्कूल दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं... और कोचिंग सेंटर प्रभावी...
लेकिन इस सड़ी हुई इमारत की नींव कहीं और है। बच्चा अब सवाल नहीं करता, वह केवल टिक-मार्क करता है। अभिभावक अब सपने नहीं देखता, वह बच्चे के लिए सिर्फ नौकरी ढूंढता है। हमने शिक्षा को इतना निचोड़ दिया है कि उसमें से अब केवल 'नौकरी' टपकती है। ज्ञान, समझ, विवेक, तर्क—ये सब भारी शब्द हो चुके हैं, जिन्हें अब कोचिंग वाले भी अपने पोस्टर में इस्तेमाल नहीं करते। अब सबको चाहिए सिर्फ़ नौकरी। और यही 'नौकरी वाली मानसिकता' वह गहरी बीमारी है, जो हमें भीड़ में तब्दील कर रही है।
जब तक स्कूल को सिर्फ़ औपचारिकता मानकर चलेंगे, और प्रतियोगिता को जीवन का अंतिम द्वार मानते रहेंगे—तब तक कोचिंग सेंटर ही असली विश्वविद्यालय होंगे। और जब तक शिक्षा केवल परीक्षा पास करने की रणनीति बनी रहेगी, तब तक छात्र सिर्फ़ रणनीतिक सैनिक होंगे—बिना सोच, बिना दृष्टि, बिना उद्देश्य।
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