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June 8, 2025 at 12:36 AM
. श्रीराधा-महिमा ‘श्रीराधा कौन हैं? श्रीराधा का अस्तित्व सत्य है या कविकल्पना मात्र? राधा का स्वरूप नित्य अनादि अनन्त एकरस है या साधन-जगत् अथवा कल्पना जगत् में उसका उत्तरोत्तर विकास हुआ है? श्रीराधा हैं तो उनका भगवान् श्रीकृष्ण के साथ क्या सम्बन्ध है, राधा उनकी परिणीता पत्नी हैं या परकीया? श्रीराधा विलासप्रिय— (जैसा कि बहुत-से कवियों ने उनका वर्णन किया है—) स्वच्छन्द रमणी हैं या साधन-जगत् की आदर्श परम त्यागमयी देवी हैं? ‘उनमें क्या-क्या गुण हैं और उनकी कैसी क्या-क्या लीलाएँ हैं?’ ये तथा ऐसे ही अनेक प्रश्नों का उत्तर देने की न मुझमें योग्यता है, न शक्ति है, न बुद्धि है, न अधिकार है और न आवश्यकता ही है। श्रीराधाजी के अनन्त रूप हैं, उनमें अनन्त गुण हैं, उनके स्वरूपभूत भाव-समुद्र में अनन्त विचित्र तरंगें उठती रहती हैं और उनको विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न लोगों ने देखा है, अतएव उनके सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि जो उन्हें जिस भाव से जानना चाहते हैं, वे उसी भाव से जान सकते हैं।’ मुझे तो प्रेमी संत-महात्माओं के मतानुसार यही जान प़ड़ता है कि एकमात्र सच्चिदानन्दघन विग्रह भगवान् श्रीकृष्ण ही विभिन्न दिव्य रूपों में लीलायमान हैं। वह एक ही परमतत्त्व श्रीकृष्ण श्रीराधा और अनन्त गोपीजनों के रूप में दिव्यतम मधुरतम स्वरूपभूत लीला-रस का आस्वादन करता रहता है। इस आस्वादन में वस्तुतः आस्वादक तथा आस्वाद्य का कोई भेद नहीं है। परमतत्त्व श्रीकृष्ण निरुपम, निरुपाधि, सत्, चित्, आनन्दघन हैं; सत् ‘संधिनी’, चित् ‘चिति’ और आनन्द ‘ह्लादिनी’ शक्ति है। ये ‘ह्लादिनी’ शक्ति स्वयं ‘श्रीराधा’ हैं, संधिनी ‘वृन्दावन’ बनी हैं और चिति’ समस्त लीलाओं की व्यवस्थापिका तथा आयोजिका ‘योगमाया’ हैं। श्रीराधा ही लीलाविहार के लिये अनन्त कायव्यूह रूपा गोपांगनाओं के रूप में प्रकट हैं। भगवान् श्रीकृष्ण एकमात्र ‘रस’ हैं और उन दिव्य मधुरातिमधुर रस का ही यह सारा विस्तार है। भगवान् और भगवान् की शक्ति— यही वस्तुतः रस-तत्त्व हैं; अन्य समस्त रस तो विरस (विपरीत रस), कुरस (कुत्सिल रस) और अरस (रसहीन) रूप से पतनकारी है। अतएव सच्चिदानन्द-विग्रह परम रस रसराज श्रीकृष्ण में और सच्चिदानन्दविग्रहा आनन्दांशघनीभूता, आनन्द-चिन्मय-रस-प्रतिभाविता रसमयी श्रीराधा में तत्त्वतः कुछ भी अन्तर नहीं है। नित्य एक ही नित्य दो बने हुए लीला-रस का वितरण तथा आस्वादन करते रहते हैं। परंतु भगवान् की केवल मधुरतम लीलाओं का ही नहीं, उनकी लीलामात्र का ही तत्त्वतः एकमात्र आधार उनका परम शक्ति— राधारूप ही है। शक्ति से ही शक्तिमान् की सत्ता है और शक्ति रहती है शक्तिमान् में ही। अतः अनादि, सर्वादि, सर्वकारणकारण, अद्वय ज्ञान-तत्त्व रूप सच्चिदानन्दघन व्रजरसनिधि श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र ओर उनकी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी का परस्पर अभिन्न तथा अविनाभाव नित्य अविच्छेद्य तथा ऐक्य-सम्बन्ध है। श्रीराधा पूर्ण शक्ति हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान् हैं; श्रीराधा दाहिका शक्ति हैं— श्रीकृष्ण साक्षात् अग्नि हैं; श्रीराधा प्रकाश हैं - श्रीकृष्ण भुवन-भास्कर हैं; श्रीराधा ज्योत्सना हैं— श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र हैं। इस प्रकार दोनों नित्य एक-स्वरूप हैं। एक होते हुए ही श्रीराधा समस्त कृष्णकान्ताओं की शिरोमणि ह्लादिनी शक्ति हैं। वे स्वमन-मोहन-मनोमोहिनी हैं, भुवनमोहन-मनोमोहिनी हैं, मदन-मोहन-मनोमोहिनी हैं। वे पूर्णचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र के पूर्णतम विकास की आधारमूर्ति हैं और वे ही अपने विचित्र विभिन्न भावतरंग-रूप अनन्त सुख-समुद्र में श्रीकृष्ण को नित्य निमग्न रखने वाली महाशक्ति। ऐसी इन राधा की महिमा राधाभावद्युति-सुवलित-तनु श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त और कौन कह सकता है? पर वे भी नहीं कह सकते; क्योंकि राधागुण-स्मृतिमात्र से ही वे इतने विह्वल तथा मुग्ध, गद्गद-कण्ठ हो जाते हैं कि उनके द्वारा शब्दोच्चारण ही सम्भव नहीं होता। मैं तो रसशास्त्र से सर्वथा अनिभिज्ञ, नितान्त अज्ञ हूँ। इसलिये रस-शास्त्र की दृष्टि से कुछ भी कहना मेरे लिये सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। अतः इस विषय पर कुछ भी न कहकर जिनका दिव्यातिदिव्य पद-रज-कण ही मेरा परम आश्रय है, उन श्रीराधाजी के सम्बन्ध में कुछ शब्द उनकी कृपा से लिख रहा हूँ। जिन श्रीराधाजी की अयाचित कृपा से मुझे उनका जो कुछ परिचय मिला है और जिन्होंने अपने महान् अनुग्रहदान से मुझ पतित पामर को अपनाकर कृतार्थ किया है; वे अपने अचिन्त्य महिमा में स्थित श्रीराधाजी न तो विलासमयी रमणी हैं, न उनका उत्तरोत्तर क्रमविकास हुआ है, न वे कविहृदय-प्रसूत कल्पना हैं और न उनमें किसी प्रकार का गुण-रूप-सौन्दर्याभिमान ही है। वे नित्य सत्य एकमात्र अपने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की सुख विधाता हैं। वे इतनी त्यागमयी हैं, इतनी मधुर-स्वभावा हैं कि अचित्यानन्त गुण-गण की अनन्त आकार होकर भी अपने को प्रियतम श्रीकृष्ण की अपेक्षा से सदा सर्वसद्गुणहीन अनुभव करती हैं, वे परिपूर्ण प्रेमप्रतिमा होने पर भी अपने में प्रेम का सर्वथा अभाव देखती हैं; वे समस्त सौन्दर्य की एकमात्र निधि होने पर भी अपने को सौन्दर्य रहित मानती हैं और पवित्रतम सहज सरलता उनके स्वभाव की सहज वस्तु होने पर भी वे अपने में कुटिलता तथा दम्भ के दर्शन करती और अपने को धिक्कार देती हैं। वे अपनी एक अंतरंग सखी से कहती हैं-- सखी री! हौं अवगुन की खान। तन गोरी, मन कारी भारी, पातक पूरन प्रान॥ नहीं त्याग रंचक मो मन में भर्यौ अमित अभिमान। नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान॥ जग के दुःख-अभाव सतावैं, हो मन पीड़ा-भान। तब तेहि दुख दृग स्त्रवै अश्रु जल, नहिं कछु प्रेम-निदान॥ तिन दुख-अँसुवन कौं दिखरावौं हौं सुचि प्रेम महान। करौं कपट, हिय-भाव दुरावौं, रचौं स्वाँग स-ज्ञान॥ भोरे मम प्रियतम, बिमुग्ध ह्वै करैं बिमल मन गान। अतिसय प्रेम सराहैं, मोकूँ परम प्रेमिका मान॥ तुम हूँ सब मिलि करौ प्रसंसा, तब हौं भरौं गुमान। करौं अनेक छद्म तेहि छिन हौं, रचौं प्रपंच-बितान॥ स्याम सरल-चित ठगौं दिवसनिसि, हौं करि विविध विधान। धृग् जीवन मेरौ यह कलुषित धृग् यह मिथ्या मान॥ इस प्रकार श्रीराधाजी अपने को सदा-सर्वदा सर्वथा हीन-मलिन मानती हैं, अपने में त्रुटि देखती हैं- परम सुन्दर गुणसौन्दर्य निधि श्यामसुन्दर की प्रेयसी होने की अयोग्यता का अनुभव करती हैं एवं पद-पदपर तथा पल-पल में प्रियतम के प्रेम की प्रशंसा तथा उनके भोलेपन पर दुःख प्रकट करती हैं। श्यामसुंदर के मथुरा पधार जाने पर वे एक बार कहती हैं-- सद्गुणहीन रूप-सुषमा से रहित, दोष की मैं थी खान। मोहविवश मोहन को होता, मुझमें सुन्दरता का भान॥ न्यौछावर रहते मुझपर, सर्वस्व स-मुद कर मुझको दान। कहते थकते नहीं कभी - ‘प्राणेश्वरि!’ ‘हृदयेश्वरि!’ मतिमान॥ ‘प्रियतम! छोड़ो इस भ्रम को तुम’ बार-बार मैं समझाती। नहीं मानते, उर भरते, मैं कण्ठहार उनको पाती॥ गुण-सुन्दरतारहित, प्रेमधन-दीन कला-चतुराई हीन। मुर्खा, मुखरा, मान-मद-भरी मिथ्या, में मतिमंद मलीन॥ रहता अति संताप मुझे प्रियतम का देख बढ़ा व्यामोह। देव मनाया करती मैं, प्रभु! हर लें सत्त्वर उनका मोह॥ श्रीराधा के गुण-सौन्दर्य से नित्य मुग्ध प्रियतम श्यामसुन्दर यदि कभी प्रियतमा श्रीराधा के प्रेम की तनिक भी प्रशंसा करने लगते, उनके प्रति अपनी प्रेम-कृतज्ञता का एक शब्द भी उच्चारण कर बैठते अथवा उनके दिव्य प्रेम का पात्र बनने में अपने सौभाग्य-सुख का तनिक-सा संकेत भी कर जाते तो श्रीराधाजी अत्यन्त संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़-सी जातीं। तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं। अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं॥ मेरी त्रुटि, मेरे दोषों को तुमने देखा नहीं कभी। दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी॥ तब भी कहते— ‘दे न सका मैं तुमको कुछ भी हे प्यारी। तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी’॥ क्या मैं कहूँ प्राण-प्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर। मेरी हर करनी में ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर॥ श्रीराधाजी का जीवन प्रियतम-सुखमय है। वे केश सँवारती हैं, वेणी में फूल गूँथती हैं, मालती की माला पहनती हैं, वेश-भूषा, साज-श्रृंगार करती हैं, पर अपने को सुखी करने के लिये नहीं; वे सुस्वादु पदार्थों का भोजन-पान करती हैं, परंतु जीभ के स्वाद या अपने शरीर की पुष्टि के लिये नहीं; वे दिव्य गन्ध का सेवन करती हैं, पर स्वंय उससे आनन्द लाभ करने के लिये नहीं; वे सुन्दर पदार्थों का निरीक्षण करती हैं, पर अपने नेत्रों को तृप्त करने के लिये नहीं; वे मधुर-मधुर संगीत-ध्वनि सुनती हैं, पर अपने कानों को सुख पहुँचाने के लिये नहीं; वे सुख-स्पर्श प्राप्त करती हैं, पर अपने त्वगिन्द्रिय की प्रसन्नता के लिये नहीं। वे चलती-फिरती हैं, सोती-जागती हैं, सब व्यवहार-बर्ताव करती हैं, पर अपने लिये नहीं; वे जीवनधारण भी अपने लिये नहीं करतीं। वे यह सब कुछ करती हैं— केवल और केवल अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ! वस्तुतः वे सदा-सर्वदा यही अनुभव करती हैं कि उनके समस्त मन-इन्द्रिय, उनके समस्त अंग-अवयव, उनके चित्त-बु़द्धि, उनका चेतन-आत्मा - सभी को श्रीकृष्ण अपने नित्य-निरन्तर सुख-संस्पर्श-दान में ही संलग्न बनाये रखते हैं, अन्य किसी का भी वे कभी संकल्प भी करें, इसके लिये तनिक-सा अवकाश नहीं देते या क्षणभर के लिये किसी अंग की वैसी स्व-संस्पर्श रहित स्थिति ही नहीं होने देते। श्रीराधाजी अपनी परिस्थिति बतलाती हैं— स्त्रवननि भरि निज गिरा मनोहर मधु मुरली की तान। सुनन न दै कछु और सबद, नित बहरे कीन्हें कान॥ लिपटो रहै सदा तन सौं मम रह्यौ न कछु बिबधान। अन्य परस की सुधि न रही कछु, भयौ चित्त इकतान॥ अँखियन की पुतरिन में मेरे निसिदिन रह्यौ समाय। देखन दै न और कछु कबहूँ एकै रूप रमाय॥ रसना बनी नित्य नव रसिका चाखत चारु प्रसाद। मिटे सकल परलोक-लोक के खाटे मीठे स्वाद॥ अंग सुगंध नासिका राची मिटी सकल मधु बास। भई प्रमत्त, गई अग-जग की सकल सुबास-कुबास॥ मन में भरि दीन्हीं मोहन निज मुनि-मोहनि मुसकान। चित्त कर्यौ चिंतन रत चिन्मय चारु चरन छबिमान॥ दई डुबाय बुद्धि रस-सागर उछरन की नहिं बात। आय मिल्यौ चेतन मैं मोहन भयौ एक संघात॥ अतएव श्रीराधा के श्रृंगार-रस में तथा जागतिक गार में नामों की समता के अतिरिक्त किसी भी अंश में, कहीं भी, कुछ भी तुलना ही नहीं है। तत्त्वतः और स्वरूपतः दोनों परस्पर सर्वथा विपरीत, भिन्न तथा विषम वस्तु हैं। लौकिक श्रृंगार होता है— काममूलक, काम की प्रेरणा से निर्मित! इन्द्रिय-तृप्ति की स्थूल या सूक्ष्म कामना-वासना ही उसमें प्रधान हेतु होती है। साधारण नायक-नायिका के श्रृंगार-रस की तो बात ही नहीं करनी चाहिये, उच्च-से-उच्चतर पूर्णता को पहुँचा हुआ दाम्पत्य-प्रेम का श्रृंगार भी अहंकारमूलक सुतरां कामप्रेरित होता है; वह स्वार्थपरक होता है, उसमें निज सुख की कामना रहती है। इसी से इसमें और उसमें उतना ही अन्तर है, जितना प्रकाश और अन्धकार में होता है। यह विशुद्ध प्रेम है और वह काम है। मनुष्य के आँख न होने पर तो वह केवल दृष्टि शक्ति से ही हीन— अन्धा होता है, परंतु काम तो सारे विवेक को ही नष्ट कर देता है। इसी से कहा गया है— ‘काम अन्धतम, प्रेम निर्मल भास्कर’ काम अन्धतम है, प्रेम निर्मल सूर्य है। इस काम तथा प्रेम के भेद को भगवान् श्रीराधा-माधव की कृपा से उनके बिरले प्रेमी भक्त वैसे ही जानते हैं, जैसे अनुभवी रत्न-व्यापारी— जौहरी काँच तथा असली हीरे को पहचानते और उनका मूल्य जानते हैं। काम या काममूलक श्रृंगार इतनी भयानक वस्तु है कि वह केवल कल्याण-साधन से ही नहीं गिराता, सर्वनाश कर डालता है। काम की दृष्टि रहती है अधः इन्द्रियों की तृप्ति की ओर, एवं प्रेम का लक्ष्य रहता है ऊर्ध्वतम सर्वानन्द स्वरूप भगवान् के आनन्दविधान की ओर। काम से अधःपात होता है, प्रेम से दिव्यातिदिव्य भगवद्रस का दुर्लभ आस्वादन प्राप्त होता है। काम के प्रभाव से विद्वान् की विद्वत्ता, बुद्धिमान् की बुद्धि, त्यागी का त्याग, संयमी का संयम, तपस्वी की तपस्या, साधु की साधुता, विरक्त का वैराग्य, धर्मात्मा का धर्म और ज्ञानी का ज्ञान-बात-की-बात में नष्ट हो जाता है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान् भी ‘राधाप्रेम’ के नाम पर, उज्ज्वल श्रृंगाररस के नाम पर पापाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं और अपनी विद्वत्ता का दुरुपयोग करके लोगों में पाप का प्रसार करने लगते हैं। अतएव जहाँ भी लौकिक दृष्टि है, भौतिक अंग-प्रत्यंगों की स्मृति है, उनके सुख-साधन की कल्पना है, इन्द्रिय-भोगों में सुख की भावना है; वहाँ इस दिव्य श्रृंगाररस के अनुशीलन का तनिक भी अधिकार नहीं है। रति, प्रणय, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भाव के उच्च स्तरों पर पहुँची हुई श्रीगोपांगनाओं में सर्वोच्च ‘महाभाव’ रूपा श्रीराधा की काम-जगत् से वैसे ही सम्बन्ध-लेश-कल्पना नहीं है, जैसे सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश में अन्धकार की कल्पना नहीं है। इस रहस्य तत्त्व को भलीभाँति समझकर इसी पवित्र भाव से जो इस राधा-माधाव के श्रृंगार का अनुशीलन करते हैं, वे ही वास्तव में योग्य अधिकार का उपयोग करते हैं। नहीं तो यह निश्चित समझना चाहिये कि जो लोग काममूलक वृत्ति को रखते हुए इस श्रृंगाररस के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, उनकी वही दुर्दशा होगी, जो मधुरता के लोभ से हलाहल विषपान करने वाले की या शीतलता प्राप्त करने की अभिलाषा से प्रचण्ड अग्निकुण्ड में उतरने वाले की होती है। यह स्मरण रखना चाहिये कि योग्य अधिकारी ही इस श्रीराधारानी के दिव्य श्रृंगार-राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। इस दिव्य प्रेम-जगत् में प्रवेश करते ही एक ऐसे अनिर्वचनीय परम दुर्लभ विलक्षण दिव्य चिदानन्दमय रस की उपलब्धि होती है कि उससे समस्त विषयव्यामोह तो सदा के लिये मिट ही जाता है, दुर्लभ-से-दुर्लभ दिव्य देवभोगों के आनन्द से ही नहीं, परम तथा चरम वान्छनीय ब्रह्मानन्द से भी अरुचि हो जाती है। श्रीराधा-माधव ही उसके सर्वस्व होकर उसमें बस जाते हैं और उसको अपना स्वेच्छा-संचालित लीलायन्त्र बनाकर धन्य कर देते हैं। ऊपर जो कुछ लिखा गया है वह मेरी धृष्टतामात्र ही है। वास्तव में मेरे-जैसे नगण्य जन्तु का श्रीराधा के सम्बन्ध में कुछ भी लिखने जाना अपनी अज्ञता का परिचय देने के साथ श्रीराधारानी का भी एक प्रकार से तिरस्कार करना ही है। पर इस तिरस्कार के लिये तो वे स्वयं ही दायी हैं; क्योंकि उन्हीं की अन्तःप्रेरणा से यह लिखा गया है। ० ० ० रचना:- श्रीहनुमानप्रशादजी पोद्दार पुस्तक:- "श्रीराधा-माधव-चिन्तन" (49) प्रकाशक:- गीताप्रेस (गोरखपुर) ॥जय जय श्री राधे॥ ********************************************
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