
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
June 7, 2025 at 12:47 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित*
*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*
*क्रमांक~ ०२*
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*`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`*
`{अष्टम स्कन्ध}`
*【षोडश: अध्याय:】*
*(श्लोक~ 01 से 31तक)*
*_कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश..._*
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं-* परीक्षित्! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये *और दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदिति को बड़ा दुःख हुआ।* वे अनाथ-सी हो गयीं। एक बार बहुत दिनों के बाद जब *परमप्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि टूटी, तब वे अदिति के आश्रम पर आये।* उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकार का उत्साह या सजावट ही। परीक्षित्! जब वे वहाँ जाकर आसन पर बैठ गये *और अदिति ने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया,* तब वे अपनी पत्नी अदिति से जिसके चेहरे पर बड़ी उदासी छायी हुई थी - बोले *"कल्याणी! इस समय संसार में ब्राह्मणों पर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है ?* धर्म का पालन तो ठीक-ठीक होता है ? काल के कराल गाल में पड़े हुए लोगों का कुछ अमङ्गल तो नहीं हो रहा है ? *प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योग का फल देने वाला है।* इस गृहस्थाश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के सेवन में किसी प्रकार का विघ्न तो नहीं हो रहा है ? *यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्ब के भरण-पोषण में व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों;* तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करने में भी असमर्थ रही हो। इसी से तो तुम उदास नहीं हो रही हो ? *जिन घरों में आये हुए अतिथि का जल से भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ों के घर के समान हैं।* प्रिये! सम्भव है, मेरे बाहर चले जाने पर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो *और समय पर तुमने हविष्य से अभियों में हवन न किया हो।* सर्वदेवमय भगवान् के मुख हैं—ब्राह्मण और अग्नि गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनों की पूजा करता है तो उसे उन लोकों की प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले है। *प्रिये ! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणों से मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मङ्गल से हैं न ?'*
*अदितिने कहा-* भगवन्! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी सब सकुशल हैं। *मेरे स्वामी! यह गृहस्थ आश्रम हो अर्थ, धर्म और काम की साधना में परम सहायक है।* प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामना से अग्नि, *अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचको का भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है।* भगवन् ! जब आप जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म पालन का उपदेश करते हैं; तब भला मेरे मन की ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय ? *आर्यपुत्र! समस्त प्रजा- -वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो– आपकी ही सन्तान है।* कुछ आपके सङ्कल्प से उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीर से! भगवन् ! *इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानों के प्रति — चाहे असुर हों या देवता – एक-सा भाव रखते हैं,* सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं। मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। *आप मेरी भलाई के सम्बन्ध में विचार कीजिये।* मर्यादापालक प्रभो। शत्रुओं ने हमारी सम्पत्ति और रहने का स्थान तक छीन लिया है। *आप हमारी रक्षा कीजिये।* बलवान् दैत्यों ने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घर से बाहर निकाल दिया है। *इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूब रही हूँ।* आपसे बढ़कर हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिए मेरे हितैषी स्वामी! *आप सोच-विचारकर अपने सङ्कल्प से ही मेरे कल्याण का कोई ऐसा उपाय कीजिये* जिससे कि मेरे पुत्रों को वे वस्तुएँ फिरसे प्राप्त हो जायें।
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं—* इस प्रकार अदिति ने जब कश्यपजी से प्रार्थना की, तब वे कुछ होकर बोले- बड़े आश्चर्य की बात है। *भगवान्की माया भी कैसी प्रबल है ! यह सारा जगत् स्नेह की रज्जु से बंधा हुआ है।* कहाँ यह पञ्चभूतों से बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृति से परे आत्मा ? *न किसी का कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है।* मोह ही मनुष्य को नचा रहा है। प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान अपने भक्तों के मिटानेवाले *जगद्गुरु भगवान् वासुदेव की आराधना करो।* वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान् की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है'।
*अदितिने पूछा-* भगवन्! मैं जगदीश्वर भगवान्की आराधना किस प्रकार करूँ, *जिससे वे सत्यसङ्कल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें।* पतिदेव ! मैं अपने पुत्रों के साथ बहुत ही दुःख भोग रही हूँ। *जिससे वे शीघ्र ही मुझपर प्रसन्न हो जायँ,* उनकी आराधना की वही विधि मुझे बतलाइये।
*कश्यपजीने कहा-* देवि! जब मुझे सन्तानकी कामना हुई थी, तब मैंने भगवान् ब्रह्माजी से यही बात पूछी थी। *उन्होंने मुझे भगवान् को प्रसन्न करने वाले जिसका उपदेश किया था,* वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ। फाल्गुन के शुरूपक्ष में बारह दिन तक केवल दूध पीकर रहे और *परम भक्ति से भगवान् कमलनयन की पूजा करे।* अमावस्या के दिन यदि मिल सके तो *सूअर की खोदी हुई मिट्टी से अपना शरीर मलकर नदी में स्नान करे।* उस समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिये। हे देवि! प्राणियों को स्थान देने की इच्छा से वराहभगवान्ने रसातल से तुम्हारा उद्धार किया था। *तुम्हें मेरा नमस्कार है।* तुम मेरे पापों को नष्ट कर दो। इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमों को पूरा करके *एकाग्रचित्त से मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेव के रूप में भगवान की पूजा करे।* (और इस प्रकार स्तुति करे) 'प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय है। *समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं।* इसी से आपको *'वासुदेव' कहते हैं।* आप समस्त चराचर जगत् और उसके कारण के भी साक्षी हैं। *भगवन्! मेरा आपको नमस्कार है।* आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूप में भी आप ही स्थित है। *आप चौबीस गुणों के जानने वाले और गुणों की संख्या करने वाले सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक हैं।* आपको मेरा नमस्कार है। आप वह यज्ञ हैं, *जिसके प्रायणीय और उदयनीय — ये दो कर्म सिर है। प्रातः, मध्याह्न और सायं- ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदों के द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा हैं स्वयं आप! आपको मेरा नमस्कार हैं।।*
*।। इस प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम स्कंध का सोलहवां अध्याय का पूरा हुआ।।*
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻*
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