
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
June 11, 2025 at 12:18 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित*
*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*
*क्रमांक~ ०२*
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*`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`*
`{अष्टम स्कन्ध}`
*【नवदश: अध्याय:】*
*(श्लोक~ 01 से 20 तक)*
*_भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना..._*
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं-* राजा बलि के ये वचन धर्मभाव से भरे और बड़े मधुर थे। *उन्हें सुनकर भगवान् वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिनन्दन किया और कहा।* राजन्! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुलपरम्परा के अनुरूप, *धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है।* क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बन्ध में *आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं।* साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त *प्रह्लादजी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं।* आपकी वंशपरम्परा में कोई *धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं।* ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने *ब्राह्मण को कभी दान न दिया हो* अथवा जो एक बार किसी को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके बाद में मुकर गया हो। *दान के अवसर पर याचकों को याचना सुनकर और युद्ध के अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेनेवाला कायर क्यों न हो, आपकी कुलपरम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा।* आपके कुल में ही *हिरण्याक्ष जैसे वीर का जन्म हुआ था।* वह वीर जब हाथ में गदा लेकर अकेला ही दिग्विजय के लिये निकला, *तब सारी पृथ्वी में घूमने पर भी उसे अपनी जोड़ का कोई वीर न मिला।* जब विष्णुभगवान् जल में से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, *तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाई से उन्होंने उस पर विजय प्राप्त की।* परन्तु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार *हिरण्याक्ष की शक्ति और बल का स्मरण हो आया करता था* और उसे जीत लेने पर भी वे अपने को विजयी नहीं समझते थे। जब हिरण्याक्ष के भाई *हिरण्यकशिपु को उसके वध का वृत्तान्त मालूम हुआ, तब वह अपने भाई का वध करने वाले को मार डालने के लिये क्रोध करके भगवान् के निवासस्थान वैकुण्ठधाम में पहुंचा।* विष्णुभगवान् माया रचने वालों में सबसे बड़े हैं और समय को खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि *हिरण्यकशिपु तो हाथ में शूल लेकर काल की भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है,* तब उन्होंने विचार किया– 'जैसे संसार के प्राणियों के पीछे मृत्यु लगी रहती है— वैसे ही *मैं जहाँ जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा।* इसलिए मैं इसके हृदय में प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; *क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहर की वस्तुएँ ही देखता है।* असुरशिरोमणे! जिस समय हिरण्यकशिपु उन पर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके काँपते हुए *विष्णु भगवान् ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिका में से होकर हृदय में जा बैठे।* हिरण्यकशिपु ने उनके लोक को भलीभाँति छान डाला, परन्तु उनका कहीं पता न चला। *इसपर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा।* उस वीर ने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्र - सब कहीं विष्णुभगवान् को ढूँढ़ा, *परन्तु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिए।* उनको कहीं न देखकर वह कहने लगा -मैंने सारा जगत् छान डाला, परन्तु वह मिला नहीं। *अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोक में चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता।* बस, अब उससे वैरभाव रखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देह के साथ ही समाप्त हो जाता है। *क्रोध का कारण अज्ञान है और अहङ्कार से उसकी वृद्धि होती है।* राजन् ! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। *यहाँ तक कि उनके शत्रु देवताओं ने ब्राह्मणों का वेष बनाकर उनसे उनकी आयु का दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणों के छल को जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली।* आप भी उसी धर्म का आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, *आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरों ने पालन किया है।* दैत्येन्द्र ! आप मुँहमाँगी वस्तु देने वालों में श्रेष्ठ हैं। *इसी से मैं आपसे थोड़ी-सी पृथ्वी- केवल अपने पैरों से तीन डग माँगता हूँ।* माना कि आप सारे जगत्के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। *विद्वान् पुरुष को केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिए।* इससे वह प्रतिग्रहजन्य पाप से बच जाता है।
*राजा बलिने कहा-* ब्राह्मणकुमार ! तुम्हारी बातें तो वृद्धों जैसी है, *परन्तु तुम्हारी बुद्धि अभी बच्चों की-सी ही है।* अभी तुम हो भी तो बालक ही न, *इसी से अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो।* मैं तीनों लोकों का एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। *जो मुझे अपनी वाणी से प्रसन्न कर ले और मुझसे केवल तीन डग भूमि माँगे वह भी क्या बुद्धिमान् कहा जा सकता है ?* ब्रह्मचारीजी! जो एक बार कुछ माँगने के लिये मेरे पास आ गया, *उसे फिर कभी किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए।* *अतः अपनी जीविका चलाने के लिए तुम्हें जितनी भूमि की आवश्यकता हो, उतनी मुझसे माँग लो॥*
*।। इस प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम स्कंध का उन्नीसवां अध्याय(श्लोक~ 01 से 20 तक) पूरा हुआ।।*
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻*
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