अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
June 12, 2025 at 12:50 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित* *अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳* *क्रमांक~ ०२* https://photos.app.goo.gl/YEuuYWwWnH71suy67 🚩🚩 🚩🚩 *`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`* `{अष्टम स्कन्ध}` *【नवदश: अध्याय:】* *(श्लोक~ 21 से 43 तक)* *_भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना..._* *श्रीभगवान् ने कहा—* राजन् ! संसार के सब-के सब प्यारे विषय *एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं,* यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला – सन्तोषी न हो। *जो तीन पग भूमि से सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाए तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता* क्योंकि उसके मन में सातों द्वीप पाने की इच्छा बनी ही रहेगी। मैने सुना है कि *पृथु आदि नरेश सातों द्वीपों के अधिपति थे परन्तु उतने धन और भोग की सामग्रियों के मिलने पर भी वे तृष्णा का पार न पा सके।* जो कुछ प्रारब्ध से मिल जाए, उसी से *सन्तुष्ट रहने वाला पुरुष अपना जीवन सुख से व्यतीत करता है।* परन्तु अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला *तीनों लोकों का राज्य पाने पर भी दुःखी ही रहता है।* क्योंकि उसके हृदय में असन्तोष की आग धधकती रहती है। *धन और भोगों से सन्तोष न होना ही जीव के जन्म-मृत्यु के चक्कर में गिरने का कारण है* तथा जो कुछ प्राप्त हो जाए, उसी में सन्तोष कर लेना *मुक्ति का कारण है।* जो स्वयं प्राप्त वस्तु से ही सन्तुष्ट हो रहता है, *उसके तेज की वृद्धि होती है।* उसके असन्तोषी हो जाने पर *उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे जल से अग्नि।* इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँहमाँगी वस्तु देने वालों में शिरोमणि हैं। *इसलिए मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही मांगता हूँ* इतने से ही मेरा काम बन जाएगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिए, जितने की आवश्यकता हो। *श्रीशुकदेवजी कहते हैं-* भगवान् के इस प्रकार कहने पर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा- *'अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।'* यो कहकर वामनभगवान्‌ को तीन पग पृथ्वी का सङ्कल्प करने के लिये उन्होंने जलपात्र उठाया। *शुक्राचार्यजी सब कुछ जानते थे।* उनसे भगवान्‌ की यह लीला भी छिपी नहीं थी। उन्होंने राजा बलि को पृथ्वी देने के लिए तैयार देखकर उनसे कहा– *शुकाचार्यजीने कहा-* *विरोचनकुमार ये स्वयं अविनाशी भगवान् विष्णु हैं।* देवताओं का काम बनाने के लिये *कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से अवतीर्ण हुए हैं।* तुमने यह अनर्थ न जानकर कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान देने की प्रतिज्ञा कर ली है। *यह तो दैत्यों पर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है।* इसे मैं ठीक नहीं समझता। स्वयं भगवान् ही अपनी योगमाया से यह ब्रह्मचारी बनकर बैठे हुए है। *ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और विश्वविख्यात कीर्ति - सब कुछ तुमसे छीनकर इन्द्र को दे देंगे।* ये विश्वरूप हैं। तीन पग में तो ये सारे लोकों को नाप लेंगे। मूर्ख ! *जब तुम अपना सर्वस्व ही विष्णु को दे डालोगे, तो तुम्हारा जीवन निर्वाह कैसे होगा।* ये विश्वव्यापक भगवान् एक पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग को नाप लेंगे। *इनके विशाल शरीर से आकाश भर जायगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जाएगा ?* तुम उसे पूरा न कर सकोगे। ऐसी दशा में मैं समझता हूँ कि *प्रतिज्ञा करके पूरा न कर पाने के कारण तुम्हें नरक में ही जाना पड़ेगा।* क्योंकि तुम अपनी की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में सर्वथा असमर्थ होओगे। *विद्वान् पुरुष उस दान की प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन निर्वाह के लिए कुछ बचे ही नहीं।* जिसका जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता है *वही संसार में दान, यज्ञ, तप और परोपकार के कर्म कर सकता है।* जो मनुष्य अपने धन को पाँच भागों में बाँट देता है— *कुछ धर्म के लिए, कुछ यश के लिए, कुछ धन को अभिवृद्धि के लिए, कुछ भोगो के लिए और कुछ अपने स्वजनों के लिए वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता है।* असुरशिरोमणे ! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जाने की चिन्ता हो, तो मैं इस विषय में तुम्हें *कुछ ऋग्वेद की श्रुतियों का आशय सुनाता हूँ,* तुम सुनो। *श्रुति कहती है— 'किसी को कुछ देने की बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार कर देना असत्य है।* यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। *परन्तु यदि वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं ?* क्योंकि नकार जाना, अपनी वस्तु दूसरे को न देना, दूसरे शब्दों में अपना संग्रह है बचाये रखना - *यही शरीररूप वृक्ष का मूल है।* जैसे जड़ न रहने पर वृक्ष सूखकर थोड़े ही दिनों में गिर जाता है, *उसी प्रकार यदि धन देने से अस्वीकार न किया जाए तो यह जीवन सूख जाता है— इसमें सन्देह नहीं।* 'हाँ मैं दूँगा' – यह वाक्य ही धन को दूर हटा देता है। *इसलिए इसका उच्चारण ही अपूर्ण अर्थात् धन से खाली कर देने वाला है।* यही कारण है कि जो पुरुष 'हाँ मैं दूँगा' - ऐसा कहता है, *वह धन से खाली हो जाता है।* जो याचक को सब कुछ देना स्वीकार कर लेता है, वह अपने लिए भोग की कोई सामग्री नहीं रख सकता। *इसके विपरीत 'मैं नहीं दूँगा' – यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धन को सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करने वाला है।* परन्तु ऐसा सब समय नहीं करना चाहिए। जो सबसे, सभी वस्तुओं के लिए नहीं करता रहता है, *उसकी अपकीर्ति हो जाती है।* वह तो जीवित रहने पर भी मृतक के समान ही है। स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिए, हास-परिहास में, विवाह में, कन्या आदि की प्रशंसा करते समय, अपनी जीविका की रक्षा के लिए, *प्राणसङ्कट उपस्थित होने पर, गौ और ब्राह्मण के हित के लिए तथा किसी को मृत्यु से बचाने के लिए असत्य भाषण भी उतना निन्दनीय नहीं है॥* *।। इस प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम स्कंध का उन्नीसवां अध्याय(श्लोक~ 21 से 43 तक) पूरा हुआ।।* *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻* 🕉️🌞🔥🔱🐚🔔🌷
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