
सुलेखसंवाद
May 26, 2025 at 10:30 AM
वट सावित्री व्रत: अध्यात्मिकता बनाम लोकबुझौन प्रियता –
वट सावित्री व्रत, सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा पर आधारित एक लोक परंपरा है, जो स्त्री के पति-परायण धर्म, त्याग और आत्मबल को महिमामंडित करती है। यह पर्व स्त्री के उस संघर्षशील चरित्र का प्रतीक है, जिसमें वह पति की मृत्यु तक से संघर्ष करती है। किन्तु जब हम आज से लगभग 2500 से तीन हजार वर्ष पुराने इस आख्यान को वर्तमान समाज की कसौटी पर कसते हैं, तो कई प्रश्न उभरते हैं – क्या अब भी पति की सुरक्षा का उपाय उपवास और पूजन ही है? क्या यह व्रत आज भी उसी अर्थ में प्रासंगिक है, या यह अब केवल लोकबुझौन (लोकप्रियता के लिए किया जाने वाला सामाजिक आडंबर) बनकर रह गया है?
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अध्यात्मिकता बनाम लोकबुझौन प्रियता
व्रत-उपवास की परंपरा भारतीय संस्कृति में आत्मनियंत्रण और साधना का प्रतीक रही है। सावित्री की कथा में नारी का धैर्य, तप और विवेक एक अध्यात्मिक चरम की ओर संकेत करता है – जहाँ वह अपने ‘धर्म’ के बल पर मृत्यु जैसे प्राकृतिक नियम को भी चुनौती देती है। यह किसी स्त्री की भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति की कथा है।
परंतु आज का सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस आध्यात्मिकता से बहुत हद तक विचलित हो चुका है। व्रत की आंतरिक साधना की जगह बाह्य प्रदर्शन, वस्त्र-आभूषण, सोशल मीडिया पर तस्वीरें और सामूहिक आयोजनों ने ले ली है। यह रूप अधिकतर ‘लोकबुझौन प्रियता’ का परिचायक है – जहाँ परंपरा का पालन आत्मिक श्रद्धा से अधिक सामाजिक मान्यता और ‘कृत्रिम संस्कारबोध’ के तहत किया जाता है।
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समाज में परिवर्तन और स्त्री की भूमिका
2500 वर्षों में भारतीय समाज में गहरे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन आए हैं। आज की स्त्री शिक्षा प्राप्त है, आत्मनिर्भर है, और पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भी सक्रिय है। अब वह केवल ‘पति की छाया’ में रहने वाली पत्नी नहीं, बल्कि परिवार की समान भागीदार है।
ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या आज भी पति की दीर्घायु और सुरक्षा का उपाय केवल स्त्री के व्रत और पूजा में निहित होना चाहिए? या फिर अब पारिवारिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, संवाद, सहयोग और समानता पर आधारित संबंध अधिक प्रासंगिक हैं?
सावित्री के युग में स्त्री के पास शायद विकल्प सीमित थे; उसका साधन आस्था था। पर आज की स्त्री के पास विकल्प और स्वतंत्रता दोनों हैं। इसलिए अब केवल पूजा-पाठ से अधिक आवश्यक है कि पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी बराबरी से उठाएं।
व्रत का सामाजिक पुनर्पाठ
यह आवश्यक नहीं कि वट सावित्री व्रत को त्याग दिया जाए, पर यह आवश्यक है कि हम इसके अर्थ को पुनर्परिभाषित करें। सावित्री केवल एक पतिव्रता स्त्री नहीं, वह न्याय के लिए लड़ने वाली, मृत्यु से डर न खाने वाली, और तार्किक संवाद करने वाली स्त्री है। यदि हम इस व्रत को केवल उपवास तक सीमित कर देते हैं, तो हम सावित्री की आत्मा से ही वंचित रह जाते हैं।
आज का समाज तकनीकी, चिकित्सकीय और सामाजिक रूप से विकसित हो चुका है। पति की दीर्घायु अब आस्था और उपवास से अधिक, जीवनशैली, भावनात्मक संवाद, और समान सहभागिता से जुड़ी है। अस्पताल के खर्च, बीमा के प्रति जानकार होना, शिक्षा के माध्यम से जीवन रक्षा के उपायों के प्रति सजगता। आर्थिक रूप से सशक्त होने के उपाय करना। वट सावित्री व्रत का मूल्य अपडेट कर सकते हैं आज से यह तभी जुड़ेगा जब यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि स्त्री की चेतना, आत्मबल और विवेक का उत्सव बने। विवेकहीन होकर पेड काट कर उसकी डाल के सहारे रस्म अदायगी कितनी अध्यातमिकता है ? यह तभी अध्यात्मिकता के स्तर पर भी सजीव रहेगा जब आप आज की चुनोतियौं को समझेंगे।
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