
सुलेखसंवाद
May 31, 2025 at 04:58 PM
भारत में भाषाई व्यवहार और हिंदी की संपर्क भाषा के रूप में भूमिका: एक अनुभवजन्य विश्लेषण
भारत की भाषिक संरचना विविध, बहुस्तरीय और ऐतिहासिक रूप से जटिल है। इस लेख में लेखक द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों—उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम—में निवास के दौरान देखे गए भाषाई व्यवहार के आधार पर यह प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि संविधानिक संरक्षण के तहत स्थानीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बनी हुई है, परंतु प्रशासनिक और न्यायिक व्यवहार में अंग्रेज़ी का बढ़ता वर्चस्व क्षेत्रीय भाषाओं की प्रभावशीलता को सीमित कर रहा है। इस संदर्भ में हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में—not as a national language but as a democratic link—विचार करने की आवश्यकता है। पंजाब राज्य का व्यवहारिक उदाहरण यह दर्शाता है कि स्थानीय भाषा संरक्षण और हिंदी के साथ संवाद, दोनों समानांतर रूप से संभव हैं।
भाषिक विविधता और प्रशासनिक व्यवहार
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 22 भाषाओं के अतिरिक्त देश में हजारों बोलियाँ प्रचलित हैं। यद्यपि यह विविधता सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध करती है, परंतु प्रशासनिक, न्यायिक और अंतर-राज्यीय संवाद की दृष्टि से यह कभी-कभी बाधक भी बन जाती है। विशेष रूप से यह समस्या तब उभरती है जब स्थानीय भाषा न तो राज्य शासन के दस्तावेजों की भाषा बन पाती है, न ही उसे केंद्र के साथ संवाद का माध्यम बनने का अवसर मिलता है।
इस स्थिति में दो मार्ग सामने आते हैं: या तो अंग्रेज़ी को सर्वमान्य संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए, या फिर किसी भारतीय भाषा—जैसे हिंदी—को व्यवहारिक संपर्क भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। यह लेख दूसरे विकल्प की व्यवहारिकता और औचित्य पर आधारित है।
भारत के विभिन्न राज्यों में भाषाई व्यवहार: अनुभव आधारित अध्ययन
दक्षिण भारत: हिंदी विरोध, परंतु अंग्रेज़ी पर निर्भरता
तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में हिंदी के प्रति ऐतिहासिक राजनीतिक प्रतिरोध व्याप्त है। यह प्रतिरोध कभी-कभी सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर सामने आता है, किंतु व्यवहारिक रूप में न्यायिक और प्रशासनिक दस्तावेज़ अंग्रेज़ी में ही बनाए जाते हैं। किरायानामे, अनुबंध-पत्र, शपथपत्र, आवासीय प्रमाण आदि अंग्रेज़ी में होते हैं, जबकि स्थानीय भाषाओं का उपयोग केवल सीमित रह जाता है।
यह विरोधाभास इस तथ्य को उजागर करता है कि स्थानीय भाषाओं के पक्ष में प्रतिरोध हिंदी के विरुद्ध होता है, परंतु परिणामतः अंग्रेज़ी को स्थायी स्थान प्राप्त होता है।
उत्तर भारत: हिंदीभाषी क्षेत्र में भी अंग्रेज़ी की वर्चस्वता
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में हिंदी व्यापक रूप से बोली और समझी जाती है। किंतु न्यायिक क्षेत्र में उच्च न्यायालयों और ज़िला न्यायालयों में अंग्रेज़ी का ही प्रयोग होता है। अधिवक्ता और न्यायाधीश प्रायः दस्तावेज़ों को अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं, जिससे आम जनता न्याय प्रक्रिया को समझने से वंचित रह जाती है।
यह स्थिति दर्शाती है कि केवल हिंदीभाषी होना भी हिंदी के उपयोग की गारंटी नहीं है, और अंग्रेज़ी का औपचारिक वर्चस्व समान रूप से इन राज्यों में भी व्याप्त है।
पंजाब: स्थानीय भाषा का व्यवहारिक प्रयोग और हिंदी के साथ सहअस्तित्व
पंजाब में गुरुमुखी लिपि में पंजाबी भाषा का व्यापक और औपचारिक उपयोग होता है—चाहे वह किरायानामा हो या अदालत का दस्तावेज़। वहीं, हिंदी को सहज संपर्क भाषा के रूप में अपनाया गया है, विशेषतः केंद्र सरकार से संवाद के स्तर पर।
पंजाब का यह मॉडल दर्शाता है कि स्थानीय भाषा के सम्मान और हिंदी के संवादात्मक प्रयोग के बीच कोई विरोध नहीं है। अंग्रेज़ी की आवश्यकता सीमित रह जाती है, और भाषाई संतुलन बनाए रखने की एक व्यवहारिक संभावना साकार होती है।
हिंदी को संपर्क भाषा मानने के पक्ष में तर्क
जनसांख्यिकीय विस्तार
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 43% जनसंख्या हिंदी या उसकी उपभाषाओं को मातृभाषा के रूप में बोलती है। इस प्रकार हिंदी देश की सर्वाधिक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भारतीय भाषा है।
2. भाषाई सुलभता और पारस्परिक समझ
हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में सहजता से समझा जाता है। दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में भी यह दूसरी भाषा के रूप में लोकप्रिय हो रही है, विशेषकर शहरी युवाओं और प्रवासी मज़दूरों के बीच।
3. अंग्रेज़ी पर निर्भरता: भाषाई विषमता का स्रोत
अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रयोग न केवल भाषाई असमानता उत्पन्न करता है, बल्कि स्थानीय भाषाओं के ह्रास का कारक भी बनता है। अंग्रेज़ी एक “आधिकारिक भाषा” बनकर जन-सामान्य को निर्णय-प्रक्रिया से दूर कर देती है।
4. प्रशासनिक समन्वय की आवश्यकता
एक संघीय राष्ट्र में संपर्क भाषा की आवश्यकता प्रशासनिक समन्वय और नीति-निर्माण के लिए अपरिहार्य है। यदि यह भाषा हिंदी हो, तो संवाद अधिक सांस्कृतिक रूप से सन्निहित, सुलभ और सशक्त हो सकता है।
‘राष्ट्रीय भाषा’ नहीं, ‘संपर्क भाषा’ का विमर्श
भारतीय संविधान ने किसी भी भाषा को ‘राष्ट्रीय भाषा’ घोषित नहीं किया है। अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा का दर्जा अवश्य दिया गया है, किंतु यह पद केंद्रीय प्रशासन तक सीमित है।
‘राष्ट्रीय भाषा’ की अवधारणा सांस्कृतिक असहमति को जन्म देती है, परंतु ‘संपर्क भाषा’ का प्रस्ताव प्रशासनिक और संवादात्मक आवश्यकता के रूप में सामने आता है।
नीतिगत सुझाव
1. हर राज्य में स्थानीय भाषा को प्राथमिक प्रशासनिक और न्यायिक भाषा बनाया जाए, जैसा कि पंजाब में लागू है।
2. हिंदी को केंद्र-राज्य संवाद और अंतरराज्यीय संवाद के लिए संपर्क भाषा के रूप में उपयोग किया जाए, ताकि अंग्रेज़ी पर निर्भरता कम हो।
3. तीन-भाषा नीति को प्रभावी रूप से लागू किया जाए—मातृभाषा, हिंदी (या कोई अन्य भारतीय संपर्क भाषा) और अंग्रेज़ी, सभी को संतुलित रूप से सिखाया जाए।
4. स्थानीय भाषाओं में कानूनी साक्षरता अभियान चलाए जाएं, जिससे जन-सामान्य अपने अधिकारों को बेहतर समझ सके।
भाषाओं का सहअस्तित्व भारत की लोकतांत्रिक शक्ति है, परंतु संवाद का साधन सभी के लिए समान और सुलभ होना चाहिए। हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में अपनाना, यदि राजनीतिक रूप से संवेदनशील रूप में नहीं बल्कि व्यवहारिक नीति के रूप में किया जाए, तो यह न केवल अंग्रेज़ी के एकाधिकार को चुनौती देगा, बल्कि भारत की विविध भाषाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन देने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।
पंजाब इसका जीवंत उदाहरण है, जहाँ भाषिक अस्मिता और संवादात्मक व्यावहारिकता साथ-साथ चलती हैं। दक्षिण भारत के लिए यह एक नीतिगत प्रेरणा बन सकता है कि हिंदी को अस्वीकार कर अंग्रेज़ी को अपनाने से अच्छा है कि स्थानीय भाषा के साथ-साथ हिंदी को भी सम्मानपूर्वक अपनाया जाए, ताकि भारतीय भाषाओं का भविष्य सशक्त, स्वाभाविक और स्वतंत्र हो।
संदर्भ
1. भारत सरकार (1963), राजभाषा अधिनियम
2. जनगणना 2011, भारत सरकार
3. पटनायक, डी. पी. (1990), Multilingualism in India, Multilingual Matters
4. अन्नामलाई, ई. (2001), Managing Multilingualism in India, Sage Publications
5. EPW Archives (1995–2020): भाषा नीति एवं प्रशासन पर लेख
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