Sheikh Maqbool Ahmad Salafi Hafizahullah
Sheikh Maqbool Ahmad Salafi Hafizahullah
May 24, 2025 at 04:41 AM
*मय्यत की तरफ़ से उमरा करने का हुक्म* *तहरीर:* शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हफ़िज़हुल्लाह ❪जद्दा दावत सेंटर, हय्युस्सलामा/सऊदी अरब❫ *हिंदी मुतर्जिम:* हसन फ़ुज़ैल आज ज़माने की तरक़्क़ी, वसाइल की फ़रावानी, दौलत की कसरत और अस्फ़ार की सहूलत फ़राहम होने से हज व उमरा जैसी अज़ीमुश्शान इबादात की अदायगी में काफ़ी आसानी पैदा हो गई है। यह अल्लाह के अज़ीम फ़ज़्ल व एहसान में से है। इस फ़ज़्ल से बहुत से माली फ़क़ीर व मिस्कीन भी अज्र-ओ-सवाब में ग़नी हो गए, बहुत से आसी काबतुल्लाह की ज़ियारत से फ़ैज़याब होकर धनी हो गए, बहुत सी तरसने वाली आँखों ने क़रीब से रु-ए-ज़मीन पर रब्बुल जलाल के पहले घर का दीदार कर लिया। आज अल्लाह के फ़ज़्ल की वजह से हरमैन शरीफ़ैन की ज़ियारत करने वालों की तादाद बहुत ही ज़्यादा है, यह फ़ज़ीलत मालदारों के अलावा कम पैसे वालों को भी अक्सर मयस्सर हो जा रही है। इस फ़ज़्ल-ए-रब्बानी पर जिस क़दर हम्द व सना बयान की जाए कम है। आजकल बड़ी तादाद में दुनिया के कोने-कोने से लोग उमरा की अदायगी के लिए आते हैं, अपनी जानिब से उमरा अदा करने के बाद अकसर के दिल में मय्यत की जानिब से, ख़ुसूसन फ़ौतशुदा वालिदैन की तरफ़ से उमरा-बदल करने की ख़्वाहिश होती है और बहुत से लोग अपने मुल्क से ही वफ़ात याफ़्ता वालिदैन की तरफ़ से उमरा करने आते हैं। बसा औक़ात कुछ उलमा मय्यत की तरफ़ से उमरा करने से मना करते हैं, ऐसे में आम लोगों के दिल में तर्दुद पैदा होता है और सही बात जानने की कोशिश करते हैं कि मय्यत की जानिब से उमरा किया जा सकता है या नहीं? मैंने दलीलों का बनज़र-ए-ग़ायिर मुताल'अ किया तो मुझे यह मालूम हुआ कि जिस तरह मय्यत की जानिब से हज कर सकते हैं, उसी तरह मय्यत की जानिब से फ़क़त उमराह भी कर सकते हैं। आइए इस सिलसिले में चंद दलीलों पर ग़ौर करते हैं और मय्यत की जानिब से उमराह करने के जवाज़ का इल्म हासिल करते हैं। सबसे पहले वह हदीस पेश करता हूँ जिससे मालूम होता है कि एक ज़िंदा शख़्स दूसरे ज़िंदा आजिज़ शख़्स की जानिब से जिस तरह हज कर सकता है उसी तरह उमरा भी कर सकता है। عن أبي رزينٍ رجلٌ من بني عامرٍ... तर्जमा: हज़रत अबू रज़ीन अक़ीली रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और सवाल किया: "या रसूलल्लाह! मेरे बाप बहुत बूढ़े हैं, हज व उमरा नहीं कर सकते और न ही सवारी पर बैठ सकते हैं?" (तो क्या मैं उनकी तरफ़ से हज व उमरा करूँ?) आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "अपने बाप की तरफ से हज व उमरा करो।" (सहीह अबू दाउद: 1810) इसमें कोई शक व इख़्तिलाफ़ नहीं है कि उमरा भी हज ही की तरह है, जिस तरह एक शख़्स अपनी जानिब से फ़रीज़ा-ए-हज अदा करने के बाद भी नफ़ली हज बार-बार कर सकता है, उसी तरह उमरा भी बार-बार कर सकता है। इसकी दलील अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी यह हदीस है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "العمرةُ إلى العمرةِ كفَّارَةٌ لمَا بينَهمَا... तर्जमा: एक उमरा के बाद दूसरा उमरा, दोनों के दरमियान के गुनाहों का कफ़्फ़ारा है, और हज मबरूर का बदला जन्नत के सिवा कुछ नहीं है। (सहीह बुख़ारी: 1773) इन दोनों अहादीस से वाज़ेह तौर पर मालूम होता है कि जिस तरह एक ज़िंदा शख़्स अपने लिए सिर्फ़ हज या सिर्फ़ उमरा कर सकता है, उसी तरह किसी ग़ैर की तरफ़ से भी सिर्फ़ हज या सिर्फ़ उमरा कर सकता है। जिन लोगों ने कहा कि उमरा को हज पर क़ियास करना सही नहीं है, उनका कहना दुरुस्त नहीं है, यहाँ क़ियास ही नहीं, बल्कि वाज़ेह तौर पर नस (क़ुरआन-ओ-सुन्नत) से यह मअनी व मफ़हूम निकलता है। आगे भी इस बात का ज़िक्र आएगा। अब वह दलील देखें जिसमें मय्यत की जानिब से हज का सुबूत मिलता है। हज़रत इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है: "أنَّ امرأةً من جُهينةَ، جاءت إلى النبيِّ... तर्जमा: क़बीला जुहैना की एक औरत नबी ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुई और अर्ज़ किया: "मेरी माँ ने हज करने की नज़र मानी थी मगर हज किए बग़ैर मौत आ गई है। क्या मैं उनकी तरफ़ से हज कर सकती हूँ?" आप ने फ़रमाया: "हाँ, उनकी तरफ़ से हज करो। बताओ अगर तुम्हारी माँ के ज़िम्मे क़र्ज़ होता तो क्या तुम उसे अदा करती? अल्लाह का हक़ भी अदा करो, क्योंकि अल्लाह तआला ज़्यादा लायक़ है कि उसका क़र्ज़ अदा किया जाए।" (सहीह बुख़ारी: 1852) यह हज नज़्र है और नज़्र का मतलब यह है कि जिसने कोई नज़्र मानी उसे पूरा करना वाजिब हो जाता है। अगर पूरा किये बग़ैर मर जाए तो उसके औलिया मय्यत की तरफ़ से नज़्र पूरी करेंगे। एक दूसरी हदीस में मां के बजाय बहन का ज़िक्र है। إن اختي قد نذرت ان تحج وإنها ماتت तर्जमा: मेरी बहन ने नज़्र मानी थी कि हज करेंगी लेकिन अब उनका इंतक़ाल हो चुका है। (सहीह बुख़ारी: 6699) एक तीसरी हदीस में नज़्र के बग़ैर एक औरत का वाक़िआ इस तरह मज़कूर है कि मेरी मां जो वफ़ात पा गई हैं उन्होंने कभी हज नहीं किया। إنها لم تحج قط. أفأحج عنها؟ قال: "حجي عنها" तर्जमा: उन्होंने कभी हज नहीं किया, क्या मैं उनकी तरफ़ से हज कर लूं? आपने फ़रमाया: हां, उनकी तरफ़ से हज कर लो। बज़ाहिर यह अलग-अलग वाक़िआत हैं, इनसे एक बात तो बिल्कुल वाज़ेह हो जाती है कि जिसने कभी हज न किया हो और उसकी वफ़ात हो जाए तो उसकी जानिब से हज या उमरा किया जा सकता है। (सहीह मुस्लिम: 1149) इस हदीस के अलावा एक उमूमी हदीस मिलती है जिसमें एक सहाबी मय्यत की तरफ़ से हज करते हैं। अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है: أنَّ النَّبيَّ صلى الله عليه وسلم سمعَ رجلاً يقولُ: لبَّيْكَ عن شبرمة. قالَ: من شبرمةَ؟ قالَ: أخٌ لي أو قريبٌ لي. قالَ: حججتَ عن نفسِكَ؟ قالَ: لا. قالَ: حجَّ عن نفسِكَ ثمَّ حجَّ عن شبرمةَ. तर्जमा: नबी अक़रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक शख़्स को कहते सुना: "लब्बैक अन शुबरमा" (हाज़िर हूँ शुबरमा की तरफ़ से)। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दरयाफ़्त किया: शुबरमा कौन है? उसने कहा: मेरा भाई या मेरा रिश्तेदार है। आपने पूछा: तुमने अपना हज कर लिया है? उसने जवाब दिया: नहीं। आपने फ़रमाया: पहले अपना हज करो फिर (आइंदा) शुबरमा की तरफ़ से करना। (सहीह अबू दाऊद:1811) सुन्नन इब्ने माजा में इस हदीस पर बाब क़ाइम है: "بابُ: الْحَجِّ عَنِ الْمَيِّتِ" (बाब: मय्यत की तरफ़ से हज करने का ब्यान) इस हदीस में मज़कूर है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज-बदल करने वाले से ये पूछा कि शुबरमा कौन है? और पूछा कि अपना हज किया कि नहीं? और कोई सवाल नहीं किया कि हज फ़र्ज़ था कि नहीं? इस हदीस से और ऊपर वाली अहादीस से साफ़ साफ़ ज़ाहिर है कि जिसने ज़िंदगी में हज या उमरा न किया, उसकी जानिब से हज या उमरा अंजाम दिया जा सकता है। उमरा भी हज की तरह है जैसा कि ऊपर हदीस में भी गुज़री है। महज़ उमरा करना, महज़ हज (इफ़राद) करना या हज व उमरा (क़िरान व तमत्तो) करना सारी सूरतें जाइज़ हैं। इस वजह से जैसे एक ज़िंदा शख़्स अपनी जानिब से ये सारी सूरतें अंजाम दे सकता है, मय्यत की तरफ़ से भी अंजाम दे सकता है — यानी कोई चाहे तो मय्यत की तरफ़ से महज़ उमरा कर सकता है, कोई चाहे तो मय्यत की तरफ़ से महज़ हज अदा कर सकता है और कोई चाहे तो मय्यत की तरफ़ से हज व उमरह दोनों अदा कर सकता है। अहले इल्म का मानना है कि जिसके ऊपर हज या उमरा फ़र्ज़ नहीं है, अगर उसे कोई पैसा देकर हज कराए तो हज व उमरा सहीह है — हत्ता कि एक मिस्कीन व फ़क़ीर को भी पैसा देकर हज कराया जा सकता है। जब ज़िंदा ग़रीब शख़्स को पैसा देकर हज व उमरा कराया जाए तो हज व उमरा हो जाएगा, तो मय्यत इस से भी ज़्यादा नेकियों का मोहताज है, क्योंकि उसके आमाल का सिलसिला मुनक़ते' हो चुका है। इस वजह से मय्यत की जानिब से हज या उमरा नफ़्ली तौर पर भी अदा किया जा सकता है, यानी किसी के ऊपर हज या उमरा फ़र्ज़ नहीं था, उसका इंतेक़ाल हो गया है, तो उसकी जानिब से औलिया हज व उमरा कर सकते हैं। एक अहम बात की तरफ़ मज़ीद इशारा कर देना मुनासिब समझता हूँ कि हज व उमरा ख़ालिस बदनी इबादत नहीं है बल्कि बदनी के साथ माली भी है, और मय्यत की तरफ़ से माली सदक़ा करने में अहले इल्म के यहाँ कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है। इन सारी बातों का ख़ुलासा ये हुआ कि मय्यत की तरफ़ से हज की तरह उमरा भी कर सकते हैं। *उमरा-बदल करने की नियत और उसका तरीक़ा:* मय्यत की तरफ़ से उमरा का वही तरीक़ा है जो ज़िंदों के लिये है, दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। अलबत्ता नियत करते वक़्त नाम लेना चाहिए। इसका तरीक़ा यह है कि उमरा का एहराम बांधते वक़्त मीक़ात पर कहे: "लब्बैक उमरतन अन फ़ुलाँ" — फ़ुलाँ की जगह मय्यत का नाम ले लें। दिल में पहले से नाम हो और उमरा की नियत करते वक़्त नाम लेना भूल गए तो कोई हरज नहीं है। नियत करने के बाद उसी तरह उमरा करना है जिस तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से उमरा का तरीक़ा अहादीस में बयान किया गया है। *उमरा-बदल के चंद अहकाम व मसाइल:* उमरा-बदल की शर्त ये है कि उमरा करने वाला पहले अपना उमरा कर चुका हो, तब ही मय्यत की तरफ़ से उमरा कर सकता है। मय्यत ने उमरा की नज़र मानी थी या वसीयत की थी, तो उसके वारिसीन पर वाजिब है कि तरका (मूर्दे का छोड़ा हुआ माल-ओ-मता) से उमरा करें। लेकिन अगर माल नहीं छोड़ा तो इस सूरत में वाजिब नहीं है। ताहम वारिस के लिए अपने माल से उमरा-बदल करने का इस्तिहबाब बाक़ी रहता है। मय्यत ने उमरा की वसीयत न भी की हो तब भी उसकी जानिब से उमरा करना मशरू है — यानी उमूमन तौर पर मय्यत की तरफ़ से उमरा कर सकते हैं और उसका सवाब मय्यत को पहुँचेगा। कुछ लोग जहालत की वजह से एक साथ मां और बाप दोनों की जानिब से उमरा की नीयत कर लेते हैं जबकि एक बार में एक नीयत से या तो बाप की तरफ़ से उमरा कर सकते हैं या मां की तरफ़ से। मर्द औरत की तरफ़ से और औरत मर्द की तरफ़ से उमरा-बदल कर सकते हैं। लोगों में जो यह ख़्याल मशहूर है कि मय्यत की तरफ़ से उमरा होता है और ज़िंदा की तरफ़ से तवाफ़ होता है — ग़लत है। मय्यत की तरफ़ से उमरा वाली बात सही है मगर ज़िंदों की तरफ़ से तवाफ़ वाली बात ग़लत है। ज़िंदा बदनी तौर पर आजिज़ शख़्स (जिसकी शिफ़ायाबी की उम्मीद न हो) की तरफ़ से उमरा कर सकते हैं, मगर तंदरुस्त शख़्स की तरफ़ से न तवाफ़ कर सकते हैं और न ही उमरा। वालिदैन के अलावा दूसरे वफ़ात पाए रिश्तेदार की तरफ़ से भी उमरा कर सकते हैं और एक मय्यत की तरफ़ से एक बार उमरा काफ़ी है, ज़िंदा ख़ुद नेकियों का मोहताज है इस लिए अपनी जानिब से बार-बार उमरा करे। सऊदी अरब में रहने वालों के लिए आसानी है कि वे एक सफ़र में एक ही उमरा पर इक्तिफा करें, यही सुन्नत है और जो बाहरी ममालिक से उमरा पर आते हैं, उन (आफ़ाक़ी) के हक़ में भी एक सफ़र में एक ही उमरा मसनून है। हालांकि ज़िंदगी में दोबारा आने की उम्मीद न हो और वे अपना उमरा करने के बाद अपने वफ़ात-याफ़्ता वालिदैन की जानिब से उमरा-बदल करना चाहते हों तो ऐसी सूरत में बाज़ उलमा ने जावाज़ का फ़तवा दिया है। उमरा-बदल करने के लिए हदूदे हरम से बाहर जाकर किसी जगह (मस्जिदे आयशा वग़ैरह) से एहराम बांध कर उमरा कर सकते हैं। जिस तरह उमरा-बदल का अज्र मय्यत को मिलता है उसी तरह उमरा करने वाले को भी मिलेगा। बेहतर तो यही है कि मय्यत की जानिब से कोई क़रीबी आदमी उमरा करे, हालांकि दूसरे किसी अमीन व सालेह आदमी को भी उजरत देकर उमरा-बदल करा सकते हैं। कुछ लोग महज़ माल कमाने की ग़र्ज़ से हज-बदल या उमरा-बदल तलाश करते हैं, जो कि जाइज़ नहीं है। क़र्ज़ की अदायगी करना आसान हो तो क़र्ज़ लेकर भी मय्यत की जानिब से उमरा-बदल कर सकते हैं, और आसानी से क़र्ज़ नहीं चुका सकते हैं तो क़र्ज़ लेकर ख़ुद को मशक़्क़त में न डालें।

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