
'अपनी माटी' पत्रिका
May 18, 2025 at 11:55 AM
अपने आरंभिक समय से ही सिनेमा विशेषकर हिंदी सिनेमा फ़ॉर्मूलाबद्ध रहा है यानी फिल्मों में जब कोई एक स्टोरी, हीरो-हीरोइन,चरित्र नायक-नायिका हिट हो जाया करते, निर्माता निर्देशक बार-बार उन्हें दोहराते रहते। ये स्टीरियोटाइप छवियाँ दर्शकों को भी लुभाती थी, वे मानाने को तैयार नहीं कि नायक ढिशुम-ढिशुम न करे या जिस कलाकार ने एक बार बहन की भूमिका निभा ली, दर्शक उसे नायिका यानी हीरोइन के रूप में कभी स्वीकार नहीं करेंगे, फिल्म का सुखांत, विवाह की शहनाई के साथ अंत यही मुख्य था। निर्माता जोखिम नहीं उठाना चाहते थे क्योंकि फ़िल्मों के फ्लॉप होने का ठप्पा यानी करियर खत्म ! लेकिन समय के साथ-साथ नए निर्देशकों ने जोखिम उठाना शुरू किया दर्शकों के मनोरंजन की भूख भी नए स्वाद की माँग करने लगी। आज लगभग एक शतक से अधिक समय पूरे कर चुका हिन्दी सिनेमा आज तकनीक और दर्शक केन्द्रित बन रहा है, सिनेमा के विकल्पों ने, तौर तरीकों ने बड़े-बड़े बैनरों को विवश किया कि वे अब दर्शकों को मूर्ख न समझे, जैसे कि कहा जाता था कि फ़िल्म देखने के लिए दिमाग घर पर रख कर जाओ! इस शोध आलेख में सिनेमा में हो रहे नवाचारों के विविध पक्षों को दिखाया गया है।
*शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में नवाचार के विविध पक्ष / रक्षा गीता*
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