
'अपनी माटी' पत्रिका
June 14, 2025 at 03:13 AM
एक समय के बाद
क्या ही अर्थ रह जाता है
इस बात का कि
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ...
मेरे दस से पांच की नौकरी के बाद
कितना ही बचता है मुझमें प्रेम!
मेरी घड़ी में शाम के अध-उजले पांच के बाद
बजता है सीधा सुबह का दस!!
सुबह आँख खुलते ही झर जाता है कुछ प्रेम,
कुछ बह जाता है बालों को धुलते हुए;
कुछ को मैं ही कर देती हूँ चोटिल अपने पर्स के भार तले दबा के.. कुछ गुलाब और पत्ती प्रेम दबा पड़ा है
मेरी पुरानी किताबों में..
जिन पर पड़ी धूल उसे बचा ले गई..
लोग कहते हैं कि प्रलय के बाद भी शेष रह जाएगा प्रेम
जैसे एक बच्चा भींच लेता है
नन्हीं हथेलियों में अपनी माँ के बाल..
मैंने अक्सर सोचा है कि
क्या उस अंतिम दिन भी बजेंगे सुबह के दस..!!
शाम के अध-उजले पांच में मैं खोजूंगी
वो झरा-बहा-चोटिल प्रेम?
[" कुछ कविताएँ / प्रतीक्षा श्रीवास्तव "अपनी माटी के इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएं ( अंक 57 ) ]
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