
Yuvraaj Chandrakant Limbole
June 5, 2025 at 07:47 AM
Hindi Version -
"पहले मेरी प्रॉब्लम सॉल्व करो, फिर मैं कुछ करूंगा" — ऐसे लोगों से एक्टिविस्टों को दूरी बना लेनी चाहिए। वरना पूरा टाइम बर्बाद।
लेकिन अगर 98% लोग ऐसे ही हैं, तो बिना उनके सपोर्ट के सिस्टम कैसे बदलेगा?
ऐसे बदलेगा —
(1) देश में 90 करोड़ वोटर हैं। और मान लेते हैं कि सबके साथ कुछ ना कुछ गलत हो रहा है — रियल प्रॉब्लम्स हैं, टाइमपास वाली नहीं।
(2) अब 2 लाख एक्टिविस्ट अगर सोचें कि हम सबकी मदद करेंगे, सबके मुद्दे सुलझाएंगे — तो भाई टाइम कहां से लाओगे?
(3) अब जब ये एक्टिविस्ट वोटर्स से बात करते हैं, तो ज़्यादातर लोग तीन बातें ठोक के बोलते हैं:
(4a) "पहले मेरी प्रॉब्लम सॉल्व करो। बाकियों की बाद में देखेंगे।"
(4b) "जब तक मेरी प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती, मैं किसी और के लिए एक मिनट नहीं दूंगा।"
(4c) "मुझे कोई नया कानून-वानून मत समझाओ, जो भी करना है अभी के कानूनों में करो।"
(5) अब अगर 90 में से 88 करोड़ लोग ऐसे ही सोचते हैं — तो एक्टिविस्ट क्या करेंगे?
(6) सिर्फ 2% लोग ऐसे मिलेंगे जो कहेंगे, "ठीक है यार, सिस्टम बदलना है, कानून बदलने की बात करते हैं, टाइम देंगे।"
(7) तो सीधी बात — ऐसे 88 करोड़ लोगों पर एक मिनट भी खर्च मत करो। चाहे उनकी तकलीफ़ कितनी भी सच्ची हो, अगर उनका माइंडसेट सेल्फिश है और बदलाव से भागता है — तो फिर एक्टिविस्ट वहाँ टाइम देंगे, रिज़ल्ट कुछ नहीं निकलेगा।
> इंडिविजुअल प्रॉब्लम सॉल्व करने के लिए कोर्ट है, IAS है, IPS है, MLA-MP हैं, वकील हैं। लेकिन सब के सब करप्ट हैं।
लेकिन अगर एक्टिविस्ट वही काम करने लग गए जो वकील करते हैं — तो पूरी ज़िंदगी लोगों की FIR लिखवाते रहेंगे और सिस्टम वैसा का वैसा ही रहेगा।
और मान लो किसी एक्टिविस्ट ने 10 साल ऐसे लोगों को समझाने में लगा दिए — और 1 करोड़ लोगों की प्रॉब्लम सॉल्व हो भी गई, तो क्या वो लोग आगे कानून बदलने में टाइम देंगे?
आई डोंट थिंक सो।
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