
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
June 7, 2025 at 01:31 PM
*صاحب نصاب پر ہر سال قربانی واجب ہے*
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عَنْ مِخْنَفِ بْنِ سُلَيْمٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: يَا أَيُّهَا النَّاسُ! إِنَّ عَلَى كُلِّ أَهْلِ بَيْتٍ فِي كُلِّ عَامٍ أُضْحِيَّةً۔“ ( سنن أبی داؤد، كتاب الضحایا، باب ما جاء في إيجاب الأضاحي،حدیث نمبر: 2788)
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حضرت مخنف بن سلیم رضی اللہ عنہ بیان کرتے ہیں کہ رسولِ اکرم ﷺ نے فرمایا: اے لوگو! ہر گھر والے (صاحبِ نصاب) پر ہر سال ایک قربانی کرنا واجب ہے۔
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*قربانی — فطرت، عقل، اور وحی کا سنگم*
قربانی محض ایک رسمی یا روایتی عمل نہیں بلکہ یہ ایک جامع، ہمہ گیر اور عظیم عبادت ہے، جو انسانی فطرت، عقلی شعور، روحانی ارتقا اور سائنسی حقیقتوں کا حسین امتزاج ہے۔ یہ وہ عبادت ہے جو انسان کے اندر ایثار، تسلیم و رضا، تقویٰ اور ربانی قرب کے جذبات کو زندہ کرتی ہے۔ گوشت کاٹنے سے کہیں زیادہ یہ نفس پر چھری چلانے، اور خواہشات کو ذبح کرنے کا نام ہے۔
قربانی صرف جانور ذبح کرنے کا نام نہیں، یہ دل کی زمین پر اللہ کی محبت کے بیج بونے کا نام ہے۔ یہ وہ لمحہ ہے جب انسان کہتا ہے:
اے میرے رب! میں نے اپنے مال کا بہترین حصہ، اپنے جذبات کی سب سے قیمتی شے، اور اپنی طبیعت کی سب سے محبوب چیز تیرے لیے پیش کی۔
یہی وہ قربانی ہے، جس کا آغاز حضرت آدم علیہ السلام کے بیٹوں ہابیل و قابیل کی قربانی سے ہوا، اور جس کی انتہا حضرت ابراہیم و اسماعیل علیہما السلام کے رب کے حکم پر بے مثال تسلیم و رضا کی صورت میں ظاہر ہوئی۔ قرآن پاک نے اس کی حقیقت یوں بیان فرمائی:
لَنْ يَنَالَ اللَّهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَاؤُهَا وَلَٰكِنْ يَنَالُهُ التَّقْوَىٰ مِنْكُمْ"۔ (سورۃ الحج: 37)
اللہ تک نہ ان (جانوروں) کا گوشت پہنچتا ہے، نہ خون؛ بلکہ اس تک تمہارا تقویٰ پہنچتا ہے۔
معلوم ہوا کہ قربانی کا حقیقی مقصود ایک روحانی کیفیت ہے، نہ کہ صرف ایک ظاہری فعل۔ اس لیے نبی کریم ﷺ نے اس عبادت کو ہر گھر کی سالانہ دینی ذمہ داری قرار دیا ہے۔
یہ حدیث نہ صرف ایک شرعی حکم ہے، بلکہ ایک سماجی اصلاح کا منشور بھی ہے۔ ہر گھر، ہر خاندان، ہر امت مسلمہ کو اس عمل سے جوڑ کر گویا عبادتِ قربانی کو گھریلو اور اجتماعی تربیت کا ذریعہ بنایا گیا۔
قربانی کا عمل انسانی نفسیات پر گہرا اثر ڈالتا ہے۔ جدید سائنسی تحقیق کے مطابق، جب انسان ایثار، قربانی اور انفاق جیسے جذبات سے معمور عمل کرتا ہے تو دماغ میں "اوکسیٹوسن" اور "ڈوپامین" جیسے ہارمُونز خارج ہوتے ہیں، جو سکون، محبت، اور تعلق کو مضبوط کرتے ہیں۔ اس سے خاندانوں میں ربط، غریبوں کے ساتھ ہمدردی، اور روحانی ارتقا پیدا ہوتا ہے۔
فقہائے امت نے اس حدیث کی روشنی میں یہ اصول اخذ کیا کہ جس گھر، جس فرد ،جس شخص میں استطاعت ہو، وہاں سال میں ایک قربانی کم از کم واجب ضرور ہے۔ یہ حکم نہ صرف فرد کی تطہیر بلکہ معاشرتی خیر و برکت کا ذریعہ بھی ہے۔
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*हर साहिब-ए-निसाब पर हर साल क़ुर्बानी वाजिब है*
हज़रत मिखनफ़ बिन सुलेम बयान करते हैं कि रसूल-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया: ऐ लोगो! हर घर वाले (साहिब-ए-निसाब) पर हर साल एक क़ुर्बानी करना वाजिब है। (अबु-दाऊद शरीफ़, हदीस नंः 2788)
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*क़ुर्बानी — फ़ितरत, अक़्ल और वही का संगम*
क़ुर्बानी महज़ एक रस्मी या रिवायती अमल नहीं, बल्कि यह एक जामेअ, हमागीर और अज़ीम इबादत है, जो इंसानी फ़ितरत, अक़्ली शऊर, रूहानी इर्तेका़ और साइंसी हक़ीक़तों का हसीन इम्तिज़ाज है। यह वो इबादत है जो इंसान के अंदर इसार, तस्लीम व रज़ा, तक़्वा और रब्बानी क़ुर्ब के जज़्बात को ज़िंदा करती है। गोश्त काटने से कहीं ज़्यादा यह नफ़्स पर छुरी चलाने और ख्वाहिशात को ज़बह करने का नाम है।
क़ुर्बानी सिर्फ़ जानवर ज़बह करने का नाम नहीं, यह दिल की ज़मीन पर अल्लाह की मोहब्बत के बीज बोने का नाम है। यह वो लम्हा है जब इंसान कहता है: ऐ मेरे रब! मैंने अपने माल का बेहतरीन हिस्सा, अपने जज़्बात की सबसे क़ीमती शै, और अपनी तबीयत की सबसे महबूब चीज़ तेरे लिए पेश की।
यही वो क़ुर्बानी है, जिसका आग़ाज़ हज़रत आदम अ. के बेटों हाबील व क़ाबील की क़ुर्बानी से हुआ, और जिसकी इंतिहा हज़रत इब्राहीम व इस्माईल के रब के हुक्म पर बेमिसाल तस्लीम व रज़ा की सूरत में ज़ाहिर हुई।
क़ुरआन पाक ने इसकी हक़ीक़त यूं बयान फ़रमाई:
अल्लाह तक न इन (जानवरों) का गोश्त पहुँचता है, न खून; बल्कि उस तक तुम्हारा तक़्वा पहुँचता है।
मालूम हुआ कि क़ुर्बानी का हक़ीक़ी मक़सद एक रूहानी कैफ़ियत है, न कि सिर्फ़ एक ज़ाहिरी फेअल। इस लिए नबी करीम ﷺ ने इस इबादत को हर घर की सालाना दीनि ज़िम्मेदारी क़रार दिया है।
यह हदीस न सिर्फ़ एक शरई हुक्म है, बल्कि एक समाजी इस्लाह का मंशूर भी है। हर घर, हर खानदान, हर उम्मत-ए-मुस्लिम को इस अमल से जोड़ कर गोया इबादत-ए-क़ुर्बानी को घरेली और इजतिमाई तर्बियत का ज़रिया बनाया गया।
क़ुर्बानी का अमल इंसानी नफ़्सियात पर गहरा असर डालता है। जदीद साइंसी तहक़ीक़ के मुताबिक, जब इंसान इसार, क़ुर्बानी और इनफ़ाक़ जैसे जज़्बात से ममलू अमल करता है तो दिमाग़ में "ऑक्सीटोसिन" और "डोपामिन" जैसे हार्मोन निकलते हैं, जो सुकून, मोहब्बत, और ताअल्लुक़ को मज़बूत करते हैं। इससे खानदानों में रब्त, ग़रीबों के साथ हमदर्दी, और रूहानी इर्तेका पैदा होता है।
फ़ुक़हाए उम्मत ने इस हदीस की रोशनी में यह उसूल इख़्तियार किया कि जिस घर, जिस फ़र्द, जिस शख़्स में इस्तिता'अत हो, वहाँ साल में एक क़ुर्बानी कम अज़ कम वाजिब ज़रूर है। यह हुक्म न सिर्फ़ फ़र्द की तातहीर बल्कि मुआशरती ख़ैर व बरकत का ज़रिया भी है।
