
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
June 9, 2025 at 01:07 PM
*موت کی تمنا کرنا*
عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: لَا يَتَمَنَّيَنَّ أَحَدُكُمُ الْمَوْتَ مِنْ ضُرٍّ أَصَابَهُ، فَإِنْ كَانَ لَا بُدَّ فَاعِلًا فَلْيَقُلْ: اَللَّهُمَّ أَحْيِنِي مَا كَانَتِ الْحَيَاةُ خَيْرًا لِي، وَتَوَفَّنِي إِذَا كَانَتِ الْوَفَاةُ خَيْرًا لِي“• (صحيح البخاري، کتاب المرضی، باب تمني المريض الموت، حديث نمبر : 5671)
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حضرتِ انس بن مالک رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے ارشاد فرمایا: اگر کوئی شخص کسی تکلیف میں مبتلا ہو، تو وہ موت کی تمنا نہ کرے، اور اگر کوئی موت کی تمنا کرنے ہی لگے، تو یہ کہہ سکتا ہے: اے اللہ! جب تک میرے لیے زندگی بہتر ہے مجھے زندہ رکھ، اور جب موت میرے لیے بہتر ہو تو مجھے اٹھا لے۔
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زندگی، ایک انمول عطیۂ الٰہی ہے۔ جو صرف ایک نعمت ہی نہیں بلکہ ایک عظیم امتحان بھی ہے۔ اس میں دُکھ، سُکھ، راحت، تکلیف، فتح اور آزمائش سب ہی شامل ہیں۔ انسان کبھی مسکرا کر جیتا ہے تو کبھی آنسوؤں کے ساتھ جینا سیکھتا ہے۔ مگر وہ جو رب کی رضا کا طالب ہو، وہ زندگی کے ہر لمحے کو اپنے رب کے قرب کا ذریعہ بناتا ہے۔ چاہے وہ لمحہ آزمائش کا ہو یا راحت کا۔
دنیا کے اس امتحانی کمرے میں انسان کبھی بیماری، تنگی، غربت، محرومی، یا تنہائی جیسی تلخیوں سے دوچار ہو جاتا ہے۔ اور بسا اوقات یہ تلخیاں اتنی شدید ہو جاتی ہیں کہ انسان زندگی سے ہی مایوس ہو کر موت کی تمنا کرنے لگتا ہے۔ لیکن یہی وہ لمحہ ہوتا ہے جہاں ایمان کا امتحان شروع ہوتا ہے؛ یہی وہ مقام ہے جہاں صبر، توکل اور رضا بالقدر کا مظاہرہ درکار ہوتا ہے۔
یہی وجہ ہے کہ نبیٔ رحمت ﷺ نے ایک عظیم حکمت پر مبنی، تربیتی اور نفسیاتی اصول ہمیں سکھایا:
تم میں سے کوئی شخص محض کسی مصیبت کے سبب موت کی آرزو نہ کرے۔ پس اگر تمنا کرنی ہی ہو تو یوں کہے: اے اللہ! جب تک زندگی میرے حق میں بہتر ہو، مجھے زندہ رکھ، اور جب موت میرے لیے بہتر ہو، مجھے وفات دے۔
یہ حدیث نہ صرف روحانی ہدایت ہے بلکہ ایک نفسیاتی، سوشیولوجیکل اور سائنسی حقیقت پر بھی روشنی ڈالتی ہے۔ جدید سائیکالوجی میں موت کی آرزو ایک نفسیاتی بیماری کے طور پر جانی جاتی ہے، جو مایوسی، اضطراب، یا ڈپریشن کا نتیجہ ہو سکتی ہے۔ ماہرینِ نفسیات اس بات پر متفق ہیں کہ زندگی کی تلخیاں وقتی ہوتی ہیں اور ان کا حل موت نہیں، بلکہ درست سوچ، سپورٹ سسٹم، روحانی تسکین اور امید ہوتی ہے۔
قرآن و حدیث میں بارہا صبر، دعا، اور توکل کی تلقین کی گئی ہے۔
موت کی تمنا کرنا گویا اپنے رب کے فیصلے پر ناراضی ظاہر کرنا ہے۔ مؤمن کی شان یہ نہیں کہ وہ تکلیف میں اپنے خالق سے بیزار ہو، بلکہ اس کی عظمت یہ ہے کہ وہ ہر حالت میں اپنے رب کی حکمت پر راضی رہے۔ جیسا کہ حضرت علی مرتضیٰ کرّم اللہُ تعالیٰ وجہہ الکریم فرماتے ہیں:
” الصبر من الإيمان بمنزلة الرأس من الجسد“.
صبر ایمان کے لیے ایسی حیثیت رکھتا ہے جیسے جسم کے لیے سر۔
یہی وہ مقام ہے جہاں ایک صالح مؤمن، اپنے احساسات کو رب کے فیصلے کے سپرد کر دیتا ہے، اور یہ دعا کرتا ہے:
اَللَّهُمَّ أَحْيِنِي مَا كَانَتِ الْحَيَاةُ خَيْرًا لِي، وَتَوَفَّنِي إِذَا كَانَتِ الْوَفَاةُ خَيْرًا لِي.
اے اللہ! جب تک زندگی میرے حق میں بہتر ہے، مجھے زندہ رکھ؛ اور جب موت بہتر ہو، مجھے اٹھا لے۔
یہ ہمارے لیے ایک عظیم درس ہے کہ:
زندگی اور موت کی کنجی میرے ہاتھ میں نہیں، بلکہ ربِّ علیم و حکیم کے ہاتھ میں ہے، اور وہی بہتر جانتا ہے کہ میرے حق میں کیا بہتر ہے۔
یہی مقامِ تسلیم و رضا ہے، جہاں مومن، موت سے پہلے زندگی کو قیمتی بناتا ہے، اور موت کی تمنا کی بجائے "خیر" کی طلب میں رب کی چوکھٹ پر سجدہ ریز رہتا ہے۔
کوئی بھی شخص محض کسی دنیاوی تکلیف، بیماری یا پریشانی کے سبب موت کی خواہش نہ کرے۔ کیونکہ موت صرف ایک انجام نہیں بلکہ قیامت کے ایک دروازے کا آغاز ہے جہاں اعمال کا محاسبہ ہوگا۔ موت کی تمنا اگر گناہوں سے بچنے یا فتنوں سے نجات کے لیے ہو تب بھی مشروط دعا کرنا افضل ہے۔ جیساکہ بزرگان دین بعض اوقات دعا کرتے: اے اللہ! اگر زندگی میرے لیے بہتر ہے تو مجھے زندہ رکھ...
خودکشی یا خود کو اذیت پہنچانا شرعاً حرام اور جہنم میں لے جانے والا عمل ہے۔
(صحیح مسلم: مَن قَتَلَ نَفْسَهُ بِشَيْءٍ فَعَذَابُهُ بِهِ فِي نَارِ جَهَنَّمَ).
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*मौत की तमन्ना करना*
सहाबी-ए-रसूल हज़रत अनस बिन मलिक बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल ﷺ ने फ़रमाया: अगर कोई शख़्स किसी तकलीफ़ में मुब्तला हो, तो वह मौत की तमन्ना न करे। और अगर कोई मौत की तमन्ना करने ही लगे, तो वह यह कह सकता है: ऐ अल्लाह! जब तक मेरी ज़िंदगी मेरे लिए बेहतर है, मुझे ज़िंदा रख, और जब मौत मेरे लिए बेहतर हो, तो मुझे उठा ले। (सहीह-बुखा़री शरीफ़, हदीस नंः 5671)
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*ज़िंदगी – एक अनमोल इलाही तोहफ़ा*
ज़िंदगी, एक अनमोल अल्लाह की नेअमत है। जो सिर्फ़ एक इनाम ही नहीं बल्कि एक अज़ीम इम्तेहान भी है। इसमें दुख, सुख, राहत, तकलीफ़, फ़त्ह और आज़माइश सब कुछ शामिल है। इंसान कभी मुस्कुराकर जीता है तो कभी आंसुओं के साथ जीना सीखता है। मगर जो रब की रज़ा का तलबगार होता है, वो ज़िंदगी के हर लम्हे को अपने रब के क़ुर्ब का ज़रिया बनाता है चाहे वो लम्हा आज़माइश का हो या राहत का।
दुनिया के इस इम्तिहानी कमरे में इंसान कभी बीमारी, तंगी, ग़ुरबत, महरूमी या तनहाई जैसी तल्ख़ियों से दो-चार हो जाता है। और बसा औक़ात ये तल्ख़ियाँ इतनी शदीद हो जाती हैं कि इंसान ज़िंदगी से ही मायूस होकर मौत की तमन्ना करने लगता है। लेकिन यही वो लम्हा होता है जहाँ ईमान का इम्तेहान शुरू होता है; यही वो मुक़ाम होता है जहाँ सब्र, तवक़्क़ुल और रज़ा बिल-क़दर का इज़हार दरकार होता है।
यही वजह है कि नबी-ए-रहमत ﷺ ने एक अज़ीम हिकमत पर मबनी, तर्बियती और नफ़्सियाती उसूल हमें सिखाया: तुम में से कोई शख़्स किसी मुसीबत की वजह से मौत की आरज़ू न करे। और अगर ज़रूर करनी हो तो यूँ कहे: 'ऐ अल्लाह! जब तक ज़िंदगी मेरे लिए बेहतर हो, मुझे ज़िंदा रख; और जब मौत बेहतर हो, मुझे वफ़ात दे।
यह हदीस न सिर्फ़ रूहानी हिदायत है बल्कि एक नफ़्सियाती, समाजी और साइन्टिफ़िक हक़ीक़त पर भी रौशनी डालती है। जदीद साइकोलॉजी में मौत की आरज़ू (suicidal thoughts) एक नफ़्सियाती बीमारी के तौर पर जानी जाती है, जो मायूसी, इज़्तराब या डिप्रेशन का नतीजा हो सकती है। माहिरीन-ए-नफ़्सियात इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ वक़्ती होती हैं और उनका हल मौत नहीं, बल्कि दुरुस्त सोच, सहारा, रूहानी तस्कीन और उम्मीद होती है।
क़ुरआन और हदीस में बार-बार सब्र, दुआ और तवक़्क़ुल की तलक़ीन की गई है।
मौत की तमन्ना करना गोया अपने रब के फ़ैसले पर नाराज़गी का इज़हार है। मोमिन की शान ये नहीं कि वो तकलीफ़ में अपने ख़ालिक़ से बेज़ार हो, बल्कि उसकी अज़मत ये है कि वो हर हालत में अपने रब की हिकमत पर राज़ी रहे।
जैसा कि हज़रत अली मुर्तज़ा फ़रमाते हैं: सब्र, ईमान के लिए ऐसी हैसियत रखता है जैसे जिस्म के लिए सिर।
यही वो मुक़ाम है जहाँ एक सालेह मोमिन अपने एहसासात को रब के फ़ैसले के सुपुर्द कर देता है, और ये दुआ करता है: ऐ अल्लाह! जब तक ज़िंदगी मेरे लिए बेहतर है, मुझे ज़िंदा रख; और जब मौत बेहतर हो, मुझे उठा ले।
यह हमारे लिए एक अज़ीम सबक़ है कि: ज़िंदगी और मौत की कुंजी हमारे हाथ में नहीं, बल्कि रब्बुल आलमीन के हाथ में है और वही बेहतर जानता है कि हमारे लिए क्या बेहतर है।
यही मुक़ाम-ए-तस्लीम व रज़ा है, जहाँ मोमिन मौत से पहले ज़िंदगी को क़ीमती बनाता है, और मौत की तमन्ना के बजाए “ख़ैर” की तलब में रब की चौखट पर सज्दा रेज़ रहता है।
कोई भी शख़्स सिर्फ़ किसी दुनियावी तकलीफ़, बीमारी या परेशानी के बाइस मौत की ख्वाहिश न करे। क्योंकि मौत सिर्फ़ एक अंजाम नहीं, बल्कि क़ियामत के दरवाज़े का आग़ाज़ है जहाँ आमाल का हिसाब होगा।
मौत की तमन्ना अगर गुनाहों से बचने या फितनों से निजात के लिए हो तब भी शर्तिया दुआ करना अफ़ज़ल है। जैसा कि बुज़ुर्गाने-दीन कभी दुआ करते: ऐ अल्लाह! अगर ज़िंदगी मेरे लिए बेहतर है तो मुझे ज़िंदा रख...
ख़ुदकुशी या ख़ुद को अज़ीयत पहुंचाना शर'अन हराम और जहन्नम में ले जाने वाला अमल है।

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