
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
June 11, 2025 at 12:52 PM
*سفرِ حج، عمرہ یا جہاد اور راہ میں موت بشارت ہی بشارت!*
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: مَنْ خَرَجَ حَاجًّا أَوْ مُعْتَمِرًا أَوْ غَازِيًا، ثُمَّ مَاتَ فِي طَرِيقِهِ،كَتَبَ اللَّهُ لَهُ أَجْرَ الْغَازِي والحاجِّ والمعتمرِ“• (مشكاة المصابيح، كتاب المناسك، الفصل الثالث، حدیث نمبر: 2539)
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حضرت ابو ہریرہ رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے فرمایا: جو شخص حج یا عمرہ یا اللہ کی راہ میں جہاد کے لیے نکلے اور راستے ہی میں اس کا انتقال ہو جائے، تو اللہ تعالیٰ اس کے لیے پورا پورا ثواب لکھ دیتا ہے مجاہد کا، حاجی کا اور عمرہ کرنے والے کا۔
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انسانی فطرت کا سب سے بلند خواب، ایسی زندگی گزارنا ہے جو مقصد، منزل، اور معنی سے لبریز ہو۔ اور ایسی موت پانا ہے جو اس کی زندگی کے مقصد کی مہر تصدیق بن جائے۔
جب انسان گھر بار، آرام و راحت، اور دنیا کی دل فریبیاں چھوڑ کر ایک ایسے سفر پر نکلتا ہے جس کی راہگردی خود ربّ العالمین فرما رہا ہو، تو یہ عمل نہ صرف عبادت کہلاتا ہے بلکہ عبدیت کی معراج بن جاتا ہے۔
حج، عمرہ اور جہاد یہ تینوں عبادات، محض ظاہری سفر نہیں بلکہ باطنی انقلابات کا نام ہیں۔
*حج*: ایک ایسا اجتماع جہاں عقلیں سجدہ ریز ہو جاتی ہیں اور روحیں لبیک اللہم لبیک کی ضربوں سے تڑپتی ہیں۔
*عمرہ*: گناہوں کی زنگ آلودگی کو دھونے کا طوافِ نور ہے۔
*جہاد*: حق کے لیے سب کچھ قربان کرنے کا نام ہے، جہاں دل کی نیت تلوار سے زیادہ کاٹ دار ہوتی ہے۔
جب کوئی مؤمن ان میں سے کسی راہ پر نکلتا ہے، تو وہ زمین پر چلتا ہے، مگر آسمان پر لکھا جاتا ہے۔
ایسا شخص گو منزل کو نہ بھی پہنچا ہو، مگر اس کی نیت خالص اور قدم اللہ کی طرف بڑھے تھے، اس لیے اللہ رب العزت اس کی نیت کے مطابق اسے کامل اجر عطا فرماتا ہے ۔نہ کوئی کمی، نہ کوئی محرومی!
اب تصور کیجیے:
ایسا بندہ جو ان عظیم عبادات میں سے کسی ایک کا ارادہ لے کر نکلا… مگر منزل تک پہنچنے سے پہلے ہی اس کا وصال ہو گیا۔ ظاہراً اس نے طواف نہ کیا، صفا مروہ کی سعی نہ کی، میدان جنگ نہ دیکھا؛ مگر باطناً اس کی نیت، خلوص، اخلاص اور سفر کی مشقت اس کے اعمال نامے میں مکمل حج، عمرہ اور جہاد کے ثواب میں تبدیل ہو گئی۔
سائنس آج یہ مان چکی ہے کہ جب انسان کسی مقصد کے تحت سچی نیت کے ساتھ حرکت کرتا ہے، تو اس کے دماغ میں ڈوپامائن کا اخراج ہوتا ہے جو "پری ریوارڈ" یعنی پیشگی انعامی کیفیت پیدا کرتا ہے۔
گویا شریعت نے 1400 سال قبل یہ اعلان کر دیا کہ:
نیت سے سفر شروع ہو تو ثواب کا آغاز ہو جاتا ہے!
انسانی شعور کی سب سے بڑی طلب یہ ہے کہ اس کی زندگی ایک مقصد کے ساتھ جڑی ہو ایک ایسا ہدف جو اس کے وجود کو معنی دے، اس کے دل کو اطمینان دے، اور اس کی روح کو بلندی عطا کرے۔
موجودہ دور کی سائنسی تحقیقات اور نفسیاتی مطالعات اس بات پر متفق ہیں کہ "مقصدِ حیات"سے جڑا ہوا انسان، نہ صرف ذہنی و جسمانی لحاظ سے زیادہ صحت مند ہوتا ہے بلکہ وہ مشکل حالات میں بھی باوقار اور مطمئن رہتا ہے۔
عالمی سماجی تحقیق کے مطابق اگر انسان نیتِ خیر کے ساتھ کوئی راستہ اختیار کرے اور منزل سے پہلے فوت ہو جائے، تب بھی اس کی نیت اور سفر کا محرک اُسے اخلاقی فتح عطا کرتا ہے۔ یہ وہی بات ہے جو رسول اللہ ﷺ نے چودہ سو سال قبل اس حدیث میں ارشاد فرمائی ہے۔
یہ حدیثِ مبارکہ نیت، عزمِ سفر، اور راستے میں وفات پانے والے مؤمن کی فضیلت پر دلالت کرتی ہے۔
یہ اس بات کا اعلان ہے کہ اسلام نیت کو عمل سے جدا نہیں سمجھتا، بلکہ بعض اوقات نیتِ صالحہ ہی عملِ صالح کے برابر ہو جاتی ہے۔
نیت کا اخلاص، موت کے بعد بھی نفع بخش ہوتا ہے۔
اللہ تعالیٰ بندے کے ارادے کو بھی ثواب میں شمار فرماتا ہے اگر وہ ارادہ نیکی کے لیے ہو۔
راستے کی موت، شہادت کے معنی رکھتی ہے، خصوصاً جب سفر اللہ کی راہ میں ہو۔
ایسا بندہ اللہ کے نزدیک مغفور، مقبول اور کامل اجر کا مستحق ہوتا ہے۔
*یہ مفہوم دیگر احادیث سے بھی ثابت ہے:*
إِنَّمَا الْأَعْمَالُ بِالنِّيَّاتِ... (صحیح بخاری و مسلم)
اعمال کا دار و مدار نیت پر ہے۔
مَنْ سَأَلَ اللَّهَ الشَّهَادَةَ بِصِدْقٍ بَلَّغَهُ اللَّهُ مَنَازِلَ الشُّهَدَاءِ، وَإِنْ مَاتَ عَلَى فِرَاشِهِ • (مسلم، 1909)
جو شخص سچی نیت سے شہادت کا طلب گار ہو، اللہ اسے شہدا کے مقام تک پہنچا دیتا ہے اگرچہ وہ اپنے بستر پر مرے۔
حاصل یہ ہے کہ نیت کی عظمت، اخلاص کی طاقت، اور اللہ کی رحمت کس طرح بندے کے ادھورے سفر کو کامل عبادت میں بدل دیتی ہے۔
اگر راستہ اللہ کی طرف ہو، اور دل میں طلبِ رضا ہو تو وہ موت جو عام آنکھ کو ناکامی لگتی ہے، درحقیقت کامیابی کی معراج بن جاتی ہے۔
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*सफ़र-ए-हज, उमरा या जिहाद और राह में मौत बशारत ही बशारत!*
हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया:जो शख़्स हज या उमरा या अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकले और रास्ते ही में उसका इंतिक़ाल हो जाए, तो अल्लाह तआला उसके लिए पूरा-पूरा सवाब लिख देता है मुजाहिद का, हाजी का और उमरा करने वाले का। (मिश्कात शरीफ़, हदीस नंः 2539)
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इंसानी फ़ितरत का सबसे बुलंद ख़्वाब ऐसी ज़िंदगी गुज़ारना है जो मक़सद, मंज़िल और मानी से लबरेज़ हो। और ऐसी मौत पाना है जो उसकी ज़िंदगी के मक़सद की मोहर-ए-तस्दीक़ बन जाए।
जब इंसान घर-बार, आराम-ओ-राहत और दुनिया की दिलफ़रेबियाँ छोड़ कर एक ऐसे सफ़र पर निकलता है जिसकी राहबरी ख़ुद रब्बुल-आलमीन फ़रमा रहा हो, तो यह अमल न सिर्फ़ इबादत कहलाता है बल्कि ‘अब्दियत’ की मीराज बन जाता है।
हज, उमरा और जिहाद ये तीनों इबादात महज़ ज़ाहिरी सफ़र नहीं, बल्कि बातिनी इनक़िलाबात का नाम हैं:
हज: एक ऐसा इज्तिमा जहाँ अकलें सज्दह-रेज़ हो जाती हैं और रूहें “लब्बैक अल्लाहुम्म लब्बैक” की सदा से तड़प उठती हैं।
उमरा: गुनाहों की ज़ंग आलूदगी को धोने का तवाफ़-ए-नूर है।
जिहाद: हक़ के लिए सब कुछ क़ुर्बान कर देने का नाम है, जहाँ दिल की नियत तलवार से ज़्यादा काटदार होती है।
जब कोई मोमिन इन में से किसी राह पर निकलता है, तो वह ज़मीन पर चलता है, मगर उसका नाम आसमान पर लिखा जाता है।
ऐसा शख़्स गो मंज़िल को न भी पहुँचे, मगर उसकी नियत ख़ालिस और क़दम अल्लाह की तरफ़ बढ़े थे, इसलिए अल्लाह रब्बुल-इज़्ज़त उसे उसकी नियत के मुताबिक़ पूरा-पूरा अज्र अता फ़रमाता है न कोई कमी, न कोई महरूमी!
*अब तसव्वुर कीजिए:*
ऐसा बंदा जो इन अज़ीम इबादात में से किसी एक का इरादा लेकर निकला… मगर मंज़िल तक पहुँचने से पहले ही उसका विसाल हो गया। ज़ाहिरन उसने तवाफ़ न किया, सफ़ा-मरवा की सई न की, मैदान-ए-जंग न देखा; मगर बातिनन उसकी नियत, ख़ुलूस, इख़लास और सफ़र की मेहनत उसके आमाल नामे में मुकम्मल हज, उमरा और जिहाद के सवाब में तब्दील हो गई।
साइंस आज यह मान चुकी है कि जब इंसान किसी मक़सद के तहत सच्ची नियत के साथ हरकत करता है, तो उसके दिमाग़ में डोपामाइन का इख़राज़ होता है जो "प्री-रिवॉर्ड" यानी पेशगी इनआमी कैफ़ियत पैदा करता है।
गौया शरियत ने 1400 साल पहले यह एलान कर दिया था कि: नियत से सफ़र शुरू हो तो सवाब का आग़ाज़ हो जाता है!
इंसानी शऊर की सबसे बड़ी तलब यह है कि उसकी ज़िंदगी किसी मक़सद से जुड़ी हो एक ऐसा हदफ़ जो उसके वजूद को मानी दे, उसके दिल को इत्मिनान दे और उसकी रूह को बुलंदी अता करे।
मौजूदा दौर की साइंटिफ़िक तहक़ीक़ात और नफ़्सियाती मुताले इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि "मक़सद-ए-हयात" से जुड़ा हुआ इंसान न सिर्फ़ ज़ेहनी और जिस्मानी लिहाज़ से ज़्यादा सेहतमंद होता है, बल्कि मुश्किल हालात में भी वह पुरवक़ार और मुतमइन रहता है।
आलमी समाजी तहक़ीक़ के मुताबिक़, अगर इंसान नियत-ए-ख़ैर के साथ कोई रास्ता इख़्तियार करे और मंज़िल से पहले ही उसका इंतेक़ाल हो जाए, तब भी उसकी नियत और सफ़र का मूहिम उसे अख़लाक़ी फ़तह अता करता है।
यह वही बात है जो रसूलुल्लाह ﷺ ने 14 सौ साल पहले इस हदीस में इरशाद फ़रमाई है।
यह हदीस-ए-मुबारका नियत, अज़्म-ए-सफ़र और रास्ते में वफ़ात पाने वाले मोमिन की फ़ज़ीलत पर दलील है।
यह इस बात का एलान है कि इस्लाम नियत को अमल से जुदा नहीं समझता बल्कि कई बार नियत-ए-सालिहा ही अमल-ए-सालिह के बराबर हो जाती है।
नियत का इख़लास, मौत के बाद भी नफ़ा बख्श होता है।
अल्लाह तआला बंदे के इरादे को भी सवाब में शामिल फ़रमाता है अगर वह इरादा नेक हो।
रास्ते की मौत, शहादत के मानी रखती है, ख़ासकर जब सफ़र अल्लाह की राह में हो।
ऐसा बंदा अल्लाह के नज़दीक मग़फ़ूर, मक़बूल और कामिल अज्र का मुस्तहिक़ होता है।
*यह मफ़हूम दीगर अहादीस से भी साबित है:*
अमाल का दार-ओ-मदार नियत पर है।
जो शख़्स सच्ची नियत से शहादत का तालिब हो, अल्लाह उसे शुहदा के मक़ाम तक पहुँचा देता है चाहे वो अपने बिस्तर पर ही क्यों न मरे।
हासिल ये है कि नियत की अज़मत, इख़लास की ताक़त, और अल्लाह की रहमत किस तरह बंदे के अधूरे सफ़र को मुकम्मल इबादत में तब्दील कर देती है।
अगर रास्ता अल्लाह की तरफ़ हो, और दिल में तलब-ए-रज़ा हो —
तो वो मौत जो आम आँख को नाकामी लगती है, दरअसल कामयाबी की मीराज बन जाती है।
