
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
June 12, 2025 at 01:39 PM
*اللہ کے خاص مہمان*
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ عَنْ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَنَّهُ قَالَ: الْحُجَّاجُ وَالْعُمَّارُ وَفْدُ اللَّهِ، إِنْ دَعَوْهُ أَجَابَهُمْ، وَإِنِ اسْتَغْفَرُوهُ غَفَرَ لَهُمْ“• (سنن إبن ماجه، كتاب المناسك، باب فضل دعاء الحاج، حدیث نمبر: 2892)
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حضرت ابو ہریرہ رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے فرمایا:حج اور عمرہ کرنے والے اللہ کے خاص مہمان ہیں؛ اگر وہ اُس سے دعا کریں تو وہ قبول فرماتا ہے، اور اگر مغفرت مانگیں تو اُنہیں بخش دیتا ہے۔
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جب انسان کسی عظیم الشان بادشاہ کے دربار میں حاضری دیتا ہے تو وہ نہ صرف ظاہر و باطن کو سنوارتا ہے، بلکہ اپنی بات منوانے اور مقام پانے کی امید بھی لے کر جاتا ہے۔ اگر وہ بادشاہ عالم الغیب ہو، ہر شے پر قادر ہو اور اپنے بندوں سے ستر ماؤں سے زیادہ محبت رکھنے والا ہو، تو اُس کے دربار عالی میں حاضری کیا معنی رکھتی ہوگی؟
حج و عمرہ یہ محض ایک ظاہری سفر نہیں، بلکہ یہ وہ سفرِ شوق ہے جس میں دل کی طلب، روح کی گواہی، اور ایمان کا سرمایہ لے کر بندہ اپنے رب کے درِ اقدس تک پہنچتا ہے۔ یہ وہ سفر ہے جہاں بندہ صرف ظاہری لباس نہیں بدلتا، بلکہ اپنی پوری روحانی ہستی کو اللہ کی طرف موڑ دیتا ہے۔
اس حدیث کا متن فقہی اصول "الضیافۃ تقتضی الإکرامَ" (مہمان نوازی عزت و اکرام کی متقاضی ہوتی ہے) کی عملی تفسیر ہے۔ جب بندہ حرمین شریفین کی خاک کو بوسہ دیتا ہے تو وہ گویا اس ربانی دعوت پر لبیک کہتا ہے جو صدیوں سے کائنات میں گونج رہی ہے:
"وَأَذِّنْ فِي النَّاسِ بِالْحَجِّ" (الحج: 27)
یہ سفرِ مبارک، اصل میں اطاعت، فنا، قرب، مغفرت، اور بندگی کے ہمہ گیر مفاہیم کا حسین امتزاج ہے۔ حاجی کا لباسِ احرام اس بات کی گواہی ہے کہ وہ دنیا کے رنگ، نام، مقام اور پہچان کو چھوڑ کر صرف اللہ کی رضا کا طالب ہے۔
آج کی جدید سائنس نے یہ ثابت کیا ہے کہ جسمانی سفر سے زیادہ روحانی توجہ اور نیت انسان کے مزاج، نیورونز، اور جذبات پر اثرانداز ہوتی ہے۔ ایک سچا حاجی جب بیت اللہ کے سامنے کھڑا ہوتا ہے تو اُس کے اندر کا سارا نظامِ فکری، جذباتی اور روحانی طور پر ری سیٹ (Reset) ہونے لگتا ہے۔
نیورو سائنس کے مطابق، توبہ، ندامت اور دعا کے لمحات دماغ کے "Prefrontal Cortex" میں ایسی لہریں پیدا کرتے ہیں جو انسان کو روحانی سکون، اضطراب سے نجات، اور ایمانی یقین بخشتے ہیں۔ یہی کیفیت حاجی کو عرفات، مزدلفہ، اور حرم شریف میں ملتی ہے۔
اکبر! حاجی جب بیت اللہ کے سامنے کھڑا ہوتا ہے تو وہ دراصل صرف پتھر کی عمارت کے سامنے نہیں، بلکہ رب کی خاص تجلیات، اسرارِ الٰہیہ، اور انبیائے کرام کے قدموں کی خوشبو سے معطر ایک ربانی مقام کے سامنے حاضر ہوتا ہے۔ اس وقت وہ زمین پر ہوکر بھی عرش کے سائے میں ہوتا ہے۔
اس سفر میں آنکھیں نم، دل پر سوز، لبوں پر لبیک، اور زبان پر دعاؤں کا ہجوم ہوتا ہے۔ یہی تو "ضیافتِ الٰہیہ" ہے۔ وہ ضیافت جہاں بخشش یقینی، دعا مقبول، اور رب کی رضا قریب تر ہو جاتی ہے۔
یہ حدیث حاجیوں اور عمرہ کرنے والوں کے بلند مقام اور اللہ کے قرب کی ایک زبردست دلیل ہے۔ "وفدُ اللہ" یعنی اللہ کے مہمان۔ اس تعبیر سے ظاہر ہوتا ہے کہ جیسے دنیا میں کسی بادشاہ کے دربار میں بلائے گئے خاص مہمان کی عزت ہوتی ہے، ویسے ہی حج و عمرہ کرنے والے ربِ کائنات کے دربار میں خاص مقرب مہمان ہوتے ہیں۔
ان کی دعائیں رد نہیں کی جاتیں
ان کی مغفرت لازمی قرار پاتی ہے
اور اللہ کی خاص رحمت ان پر نازل ہوتی ہے
اللہ تعالیٰ ہمیں بار بار اپنے در کی حاضری نصیب فرمائے، اور ہمیں بھی اپنے مہمانوں میں شامل فرما لے۔ آمین!
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*اس حدیثِ مبارک سے مستفاد و مستنبط مسائل و احکام:*
*حج و عمرہ کی فضیلت اور ربانی مقام:*
حاجی اور عمرہ کرنے والے صرف عبادت گزار نہیں بلکہ "وفدُ اللہ" یعنی اللہ کے خاص مہمان ہیں۔
ان کی عبادت ایک روحانی و ربانی دعوت پر لبیک کہنا ہے، جسے قرآن میں بھی ذکر کیا گیا:
"وأذّن في الناس بالحجّ" (الحج: 27)
*دعا کی قبولیت کی ضمانت:*
حدیث میں "إن دعوه أجابهم" سے واضح ہوتا ہے کہ حاجی کی دعا رد نہیں کی جاتی، بلکہ اللہ ضرور قبول فرماتا ہے۔
اس سے یہ بھی معلوم ہوتا ہے کہ حاجی کے لیے اپنے ساتھ ساتھ دوسروں کے لیے بھی دعا کرنا باعثِ خیر و برکت ہے۔
*مغفرت کا وعدہ:*
"وإن استغفروه غفر لهم" کے الفاظ بخشش کے قطعی وعدے پر دلالت کرتے ہیں۔
یہ حج و عمرہ کی ایسی عظیم خصوصیت ہے جس سے بندہ ماضی کے گناہوں سے مکمل پاک ہو جاتا ہے۔
*حج و عمرہ، رجوع الی اللہ کا ذریعہ*:
یہ حدیث واضح کرتی ہے کہ حج و عمرہ صرف ظاہری عبادت نہیں بلکہ دل کی مکمل اطاعت، توبہ، رجوع، اور تعلق باللہ کا ذریعہ ہیں۔
*مہمانِ خدا کی عزت و احترام کا وجوب:*
حاجی کو "وفدُ الله" کہنا اس کی عزت، اکرام اور حسنِ سلوک کا وجوب بیان کرتا ہے۔
فقہی اصول کے مطابق، "الضیافۃ توجب الإکرام" یعنی مہمان نوازی عزت کا تقاضا کرتی ہے۔
*حج و عمرہ کی نیت و اخلاص کی اہمیت:*
اللہ کا مہمان وہی ہوتا ہے جو خالص نیت سے حج یا عمرہ کرے۔
ریاکاری، دکھاوا، یا دنیاوی فائدے کی نیت اس فضیلت سے محروم کر دیتی ہے۔
*دعاؤں کا قیمتی وقت اور جگہ:*
حاجی کے سفر کے مختلف مقامات: عرفات، مزدلفہ، حرم شریف وغیرہ، دعاؤں کی قبولیت کی خاص جگہیں ہیں۔
ان مقامات پر کیے جانے والی دعاؤں میں خاص روحانی تاثیر اور قبولیت کا راز پوشیدہ ہے۔
*امت کے لیے حاجیوں کی دعاؤں کی برکت:*
اس حدیث سے یہ نکتہ بھی نکلتا ہے کہ حاجی اگر امت مسلمہ، اہلِ وطن، اور اپنے مرحومین کے لیے دعا کرے تو ان سب کے لیے مغفرت اور خیر کا ذریعہ بنتا ہے۔
*حج و عمرہ عبادات سے روحانی تطہیر* :
اس حدیث میں بتایا گیا کہ یہ عبادات نہ صرف گناہوں کو مٹاتی ہیں بلکہ نفس کی صفائی، دل کی پاکیزگی، اور روحانی بلندی عطا کرتی ہیں۔
*ربانی مہمان بننے کی دعوت:*
حدیث حاجیوں کی شان بیان کرنے کے ساتھ ساتھ ہر مومن کو دعوت دیتی ہے کہ وہ خود کو اللہ کا مہمان بنائے یعنی حج و عمرہ کی سعادت حاصل کرنے کی کوشش کرے۔
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*अल्लाह के खा़स मेहमान*
हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया:हज और उमरा करने वाले अल्लाह के मेहमान हैं; अगर वे उससे दुआ करें तो वह क़बूल करता है, और अगर मग़फ़िरत (बख़्शिश) माँगें तो उन्हें बख़्श देता है। (सहीह-बुखा़री शरीफ़, हदीस नंः 2892)
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जब इंसान किसी अज़ीमुलशान बादशाह के दरबार में हाज़िरी देता है तो वह न सिर्फ़ ज़ाहिर व बातिन को संवारता है, बल्कि अपनी बात मनवाने और मुक़ाम पाने की उम्मीद भी लेकर जाता है। अगर वह बादशाह 'आलिमुलग़ैब' हो, हर चीज़ पर क़ादिर हो और अपने बंदों से सत्तर माँओं से ज़्यादा मोहब्बत रखने वाला हो, तो उस के दरबार-ए-आली में हाज़िरी क्या मआनी रखती होगी?
हज व उमरा ये महज़ एक ज़ाहिरी सफ़र नहीं, बल्कि ये वो सफ़र-ए-शौक़ है जिसमें दिल की तलब, रूह की गवाही और ईमान का सरमाया लेकर बंदा अपने रब के दर-ए-अक़्दस तक पहुंचता है। यह वो सफ़र है जहाँ बंदा सिर्फ़ ज़ाहिरी लिबास नहीं बदलता, बल्कि अपनी पूरी रूहानी हस्ती को अल्लाह की तरफ़ मोड़ देता है।
इस हदीस का मत्न फ़िक़्ही उसूल "मेहमाननवाज़ी इज़्ज़त व एहतराम की मुतक़ाज़ी होती है" की अमली तफ़सीर है। जब बंदा हरमैन शरीफ़ैन की ख़ाक को बोसा देता है तो वह गोया उस रब्बानी दावत पर 'लब्बैक' कहता है जो सदीयों से कायनात में गूंज रही है।
यह मुबारक सफ़र, असल में इताअत, फ़ना, क़ुर्ब, मग़फ़िरत और बंदगी के हमागीर मआनी का हसीन इम्तिजाज है। हाजी का लिबास-ए-एहराम इस बात की गवाही है कि वह दुनिया के रंग, नाम, मुक़ाम और पहचान को छोड़ कर सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा का तलबगार है।
आज की जदीद साइंस ने यह साबित किया है कि जिस्मानी सफ़र से ज़्यादा रूहानी तवज्जोह और नियत इंसान के मिज़ाज, न्यूरॉन्स और जज़्बात पर असर अंदाज़ होती है। एक सच्चा हाजी जब बैतुल्लाह के सामने खड़ा होता है तो उसके अंदर का सारा 'निज़ाम-ए-फ़िक्री', 'जज़्बाती' और 'रूहानी' तौर पर Reset होने लगता है।
न्यूरो-साइंस के मुताबिक, तौबा, नदामत और दुआ के लमहात दिमाग़ के "Prefrontal Cortex" में ऐसी लहरें पैदा करते हैं जो इंसान को रूहानी सुकून, इज़्तिराब से निजात और ईमानी यक़ीन बख़्शती हैं। यही कैफ़ियत हाजी को अराफ़ात, मुज़दलिफ़ा और हरम शरीफ़ में हासिल होती है।
अकबर! हाजी जब बैतुल्लाह के सामने खड़ा होता है तो वह दरअस्ल सिर्फ़ पत्थर की इमारत के सामने नहीं, बल्कि रब की ख़ास जल्वात, अस्रार-ए-इलाहिया और अंबिया-ए-किराम के क़दमों की खुशबू से मुअत्तर एक रब्बानी मुक़ाम के सामने हाज़िर होता है। उस वक़्त वह ज़मीन पर होकर भी अर्श के साये में होता है।
इस सफ़र में आँखें नम, दिल पर सोज़, लबों पर लब्बैक, और ज़बान पर दुआओं का हुजूम होता है। यही तो "ज़ियाफ़त-ए-इलाहीया" है। वह ज़ियाफ़त जहाँ बख़्शिश यक़ीनी, दुआ मक़बूल और रब की रज़ा क़रीबतर हो जाती है।
यह हदीस हाजियों और उमरा करने वालों के बुलंद मुक़ाम और अल्लाह के क़ुर्ब की एक ज़बरदस्त दलील है। "वफ़्दुल्लाह" यानी अल्लाह के मेहमान। इस ताबीर से ज़ाहिर होता है कि जैसे दुनिया में किसी बादशाह के दरबार में बुलाए गए ख़ास मेहमान की इज़्ज़त होती है, वैसे ही हज व उमरा करने वाले रब्बुल आलमीन के दरबार में ख़ास मुक़र्रब मेहमान होते हैं।
उनकी दुआएं रद्द नहीं की जातीं
उनकी मग़फ़िरत लाज़िमी क़रार पाती है
और अल्लाह की ख़ास रहमत उन पर नाज़िल होती है
*इस हदीस-ए-मुबारक से मुस्तफ़ीद व मुस्तंबत मसाइल व अहकाम:*
1. *हज व उमरा की फ़ज़ीलत और रब्बानी मुक़ाम:*
हाजी और उमरा करने वाले सिर्फ़ इबादतगुज़ार नहीं, बल्कि "वफ़्दुल्लाह" यानी अल्लाह के ख़ास मेहमान हैं।
उनकी इबादत एक रूहानी व रब्बानी दावत पर 'लब्बैक' कहना है, जिसे क़ुरआन में भी बयान किया गया है।
2. *दुआ की क़बूलियत की ज़मानत:*
हदीस से वाज़ेह होता है कि हाजी की दुआ रद्द नहीं होती, बल्कि अल्लाह ज़रूर क़बूल फ़रमाता है।
इससे यह भी मालूम होता है कि हाजी दूसरों के लिए भी दुआ करे तो यह नेकियों और बरकत का सबब है।
3. *मग़फ़िरत का वादा:*
हदीस के अल्फ़ाज़ मग़फ़िरत के क़तई वादे पर दलालत करते हैं।
यह हज व उमरा की ऐसी अज़ीम ख़ुसूसियत है जिससे बंदा माज़ी के गुनाहों से मुकम्मल पाक हो जाता है।
4. *हज व उमरा, रुजू इलल्लाह का ज़रिया:*
यह हदीस वाज़ेह करती है कि हज व उमरा सिर्फ़ ज़ाहिरी इबादत नहीं, बल्कि दिल की मुकम्मल इताअत, तौबा, रुजू और तअल्लुक़ बिल्लाह का ज़रिया है।
5. *मेहमान-ए-ख़ुदा की इज़्ज़त व एहतराम का वुजूद:*
हाजी को "वफ़्दुल्लाह" कहना उसकी इज़्ज़त, इकराम और हुस्न-ए-सुलूक का वुजूद बयान करता है।
फ़िक़्ही उसूल के मुताबिक, "अज़्ज़ियाफ़ा तुजिबुल इकराम", यानी मेहमाननवाज़ी इज़्ज़त का तक़ाज़ा करती है।
6. *हज व उमरा की नियत व इख़लास की अहमियत:*
अल्लाह का मेहमान वही होता है जो ख़ालिस नियत से हज या उमरा करे।
रियाकारी, दिखावा या दुनियावी फ़ायदे की नियत इस फ़ज़ीलत से महरूम कर देती है।
7. *दुआओं का क़ीमती वक़्त और जगह:*
हाजी के सफ़र के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात अराफ़ात, मुज़दलिफ़ा, हरम शरीफ़ वग़ैरह, दुआओं की क़बूलियत की ख़ास जगहें हैं।
इन मुक़ामात पर की जाने वाली दुआओं में ख़ास रूहानी तासीर और क़बूलियत का राज़ पोशीदा है।
8. *उम्मत के लिए हाजियों की दुआओं की बरकत:*
इस हदीस से यह नुक्ता भी निकलता है कि हाजी अगर उम्मत-ए-मुस्लिम, अहल-ए-वतन, और अपने मरहूमीन के लिए दुआ करे तो यह सब मग़फ़िरत और ख़ैर का ज़रिया बनता है।
9. *हज व उमरा इबादात से रूहानी तात्हीर*:
यह हदीस बताती है कि ये इबादात न सिर्फ़ गुनाहों को मिटाती हैं, बल्कि नफ़्स की सफ़ाई, दिल की पाकीज़गी और रूहानी बुलंदी अता करती हैं।
10. *रब्बानी मेहमान बनने की दावत:*
हदीस हाजियों की शान बयान करने के साथ-साथ हर मोमिन को दावत देती है कि वह ख़ुद को अल्लाह का मेहमान बनाए, यानी हज व उमरा की सआदत हासिल करने की कोशिश करे।
अल्लाह तआला हमें बार-बार अपने दर की हाज़िरी नसीब फ़रमाए, और हमें भी अपने मेहमानों में शामिल फ़रमा ले। आमीन!

❤️
🤲
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