
MUFTI ABDUSSUBHAN MISBAHI
June 17, 2025 at 12:31 PM
*آپس میں صلح کروانا*
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عَنْ أَبِي الدَّرْدَاءِ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: أَلَا أُخْبِرُكُمْ بِأَفْضَلَ مِنْ دَرَجَةِ الصِّيَامِ وَالصَّلَاةِ وَالصَّدَقَةِ؟ قَالُوا: بَلَى. قَالَ: صَلَاحُ ذَاتِ الْبَيْنِ ؛ فَإِنَّ فَسَادَ ذَاتِ الْبَيْنِ هِيَ الْحَالِقَةُ“• (جامع الترمذي، أبواب صفة القيامةِ والرقائق والورع عن رسول الله ﷺ؛ حدیث نمبر:2509)
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حضرت ابو درداء رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: کیا میں تمہیں ایسی چیز نہ بتاؤں جو روزے، نماز اور صدقہ سے بھی افضل ہے؟ صحابہ کرام نے عرض کیا: کیوں نہیں۔ یا رسول اللہﷺ! ضرور بتائیے!
آپ ﷺ نے فرمایا: آپس میں صلح و اصلاح کرنا؛ کیونکہ آپس کی لڑائی (اور فساد) دین کو مونڈ ڈالنے والی ہے۔ (یعنی یہ دین کو جڑ سے کاٹ ڈالتی ہے جیسے استرا بال کو مونڈ دیتا ہے۔)
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جب انسان آسمان کی وسعتوں میں جھانکتا ہے اور ستاروں کی ہم آہنگی کا مشاہدہ کرتا ہے۔ جب وہ انسانی جسم کے خلیات کے درمیان موجود باہمی ربط کو دیکھتا ہے۔ اور جب وہ دریا کی موجوں، ہواؤں کے رخ، اور فطرت کی ہر حرکت میں نظم و اتحاد کو محسوس کرتا ہے، تو وہ بےاختیار پکار اُٹھتا ہے: یہ کائنات اتفاق اور یگانگت کا درس دے رہی ہے!
پھر یہی انسان جب انسانی معاشرے کی طرف دیکھتا ہے تو اس کے سامنے ایک اور منظر آتا ہے۔
جھگڑے، نفرتیں، انا کی دیواریں، قوموں میں فسادات، خاندانوں میں ٹوٹ پھوٹ، اور دلوں میں ایسی دوری کہ قریب بیٹھے انسان بھی اجنبی بن چکے ہوں۔
اس پس منظر میں، اسلام صرف روحانی نجات کا پیغام نہیں دیتا، بلکہ معاشرتی ہم آہنگی، قلوب کی صفائی اور رشتوں کی اصلاح کا ضامن بن کر سامنے آتا ہے۔
اسلام کہتا ہے:
عبادت سے پہلے عبدیت، نماز سے پہلے اخوت، اور روزے سے پہلے رشتوں کی شیرینی کو بحال کرو۔
اسی لیے رسولِ اکرم ﷺ نے جب فرمایا:
کیا میں تمہیں ایسا عمل نہ بتاؤں جو روزہ، نماز اور صدقے سے بھی افضل ہے؟ تو صحابہ کرام رضی اللہ عنہم جیسے عبادت گزار، فداکار اور حق پرست لوگوں نے ہمہ تن گوش ہو کر عرض کیا: کیوں نہیں ۔ ضرور بتائیے! یا رسول اللہ!ﷺ، آپ ﷺ نے فرمایا: آپس کے تعلقات کی اصلاح کرنا؛ کیونکہ آپس کا فساد دین کو جڑ سے مونڈ دیتا ہے!
یہ کوئی عام نصیحت نہیں، بلکہ یہ شریعت کی روح ہے، جو ہمیں بتاتی ہے کہ:
دین وہ نہیں جو صرف مسجد کی چاردیواری میں قید ہو؛ دین وہ ہے جو دلوں کو جوڑے، انسانوں کو قریب کرے، اور رشتوں میں محبت کا رنگ بھرے۔
عقل و قیاس کا تقاضا ہے کہ اگر کسی مشین کا ایک پرزہ دوسرے سے بگڑ جائے، تو چاہے وہ مشین لاکھ قیمتی ہو، وہ کام نہیں کرے گی۔
ایسے ہی انسان کی عبادات کتنی ہی عظیم کیوں نہ ہوں، اگر اُس کے دل میں بغض، دشمنی اور نفرت ہو تو وہ عبادات روح سے خالی جسم کی مانند ہو جائیں گی۔
ماہرینِ نفسیات اس بات پر متفق ہیں کہ:
دیرینہ دشمنی اور دل کی کدورت انسان میں کارٹیسول جیسے مضر ہارمونز کو بڑھا دیتی ہے، جو نہ صرف ذہنی دباؤ بلکہ دل کے امراض، نیند کی خرابی، اور قوتِ برداشت کے فقدان کا سبب بنتی ہے۔
یعنی فسادِ ذات البین نہ صرف روحانی تباہی، بلکہ جسمانی و دماغی تباہی کا پیش خیمہ بھی ہے
امام غزالی نَوَّرَ اللهُ مرقدہ فرماتے ہیں: قلب کا فتنہ، جسم کی بیماری سے کہیں زیادہ خطرناک ہے۔
قرآن مجید میں اللہ تعالیٰ فرماتا ہے:
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ، فَأَصْلِحُوا بَيْنَ أَخَوَيْكُمْ...(الحجرات: 10)
اگر جھوٹ بولنا کسی جھگڑے کو ختم کر دے، تو وہ اصلاحِ ذات البین کی نیت سے جائز ہے، کیونکہ مفسدہ کو زائل کرنا شریعت کا مقصدِ اعلیٰ ہے۔
آج کے اس پراگندہ، نفسیاتی طور پر مجروح، اور انتشار زدہ معاشرے میں اگر کوئی عمل واقعی ”عبادتوں کا تاج“ بن سکتا ہے تو وہ ہے:
دلوں کو جوڑنا، غلط فہمیوں کو مٹانا، اور بھائی کو بھائی سے ملانا۔
پس جو ہاتھ لوگوں کو ملاتا ہے، وہی اللہ سے بھی جُڑ جاتا ہے۔
*استفہامیہ اسلوب کا جلال:*
نبی اکرم ﷺ کا اندازِ ارشاد اس حدیث میں تدریسی اور خطیبانہ ہے، جس میں ایک سوال کے ذریعے سامع کی توجہ، تجسس، اور قلبی میلان پیدا کیا جا رہا ہے۔
گویا دلوں کے دروازے کھولے جا رہے ہیں تاکہ نصیحت اثر کرے۔
*عبادتوں سے افضل عمل؟*
نماز، روزہ اور صدقہ اسلام کے اہم ترین ارکان میں سے ہیں، مگر اس حدیث میں ان سب پر صلاحِ ذات البین کو فوقیت دی گئی ہے۔
اس کی دو بنیادی وجوہات ہیں:
الف) ان عبادات کا تعلق بندے اور اللہ کے درمیان ہے، جبکہ اصلاحِ ذات البین کا تعلق بندے اور بندے کے درمیان۔
ب) عبادت کا اثر محدود ہوتا ہے، لیکن صلح کا فائدہ پورے معاشرے کو محیط ہوتا ہے۔
*فساد الحالقہ کیوں؟*
آپ ﷺ نے ”فساد ذات البین“ کو ”الحالقہ“ قرار دیا ہے۔ یعنی مونڈ ڈالنے والی چیز۔
یہ تعبیر بہت ہی معنی خیز ہے:
جیسے استرا سر کے بالوں کو جڑ سے کاٹ دیتا ہے،
ویسے ہی دلوں کی کدورت، نفرت، دشمنی اور بدگمانی دین کی بنیاد کو جڑ سے اکھاڑ دیتی ہے۔
اعمالِ صالحہ کا اثر ختم ہو جاتا ہے، کیونکہ قرآن و سنت میں حقوق العباد کو پامال کرنے والا مقبولِ بارگاہ نہیں رہتا۔ اللہ تعالیٰ ارشاد فرماتا ہے:
ولا تنازعوا فتفشلوا وتذهب ريحكم...(الأنفال: 46)
آپس میں جھگڑو نہیں، ورنہ کمزور پڑ جاؤ گے اور تمہاری ہوا اکھڑ جائے گی۔
*پیغامِ نبوی ﷺ کا خلاصہ:*
عبادات اپنی جگہ اہم ہیں، مگر دلوں کی اصلاح ان پر بھی مقدم ہے۔
جس معاشرے میں افراد آپس میں جُڑے ہوں، وہی دین کے حقیقی عکاس ہوتے ہیں۔
فتنہ، فساد، چغلی، غیبت اور دشمنی یہ سب شیطانی آلہ ہیں، جو ایمان کی جڑیں کاٹ دیتے ہیں۔
اصلاحِ ذات البین فرضِ کفایہ ہے اگر ایک فرد صلح کرا دے تو دوسروں سے یہ ذمہ داری ساقط ہو جاتی ہے۔
اگر دو افراد کی صلح جھوٹ کے بغیر ممکن نہ ہو تو اصلاح کی نیت سے جھوٹ بولنا جائز ہے (بخاری، کتاب الادب)
غیبت، چغلی، بدگمانی، الزام تراشی یہ تمام چیزیں فسادِ ذات البین کو جنم دیتی ہیں، جو کبیرہ گناہ ہیں۔
*عملی تقاضے:*
رشتہ داروں، دوستوں، ہمسایوں اور مسلمانوں کے درمیان موجود جھگڑوں کو مٹانے کی عملی کوشش کیجیے۔
افواہوں اور غلط فہمیوں کی بنیاد پر فیصلہ مت کیجیے؛ ہمیشہ تحقیق کیجیے۔
اصلاح کو”فضیلت“ سمجھ کر کیجیے، نہ کہ مجبوری۔
اسلام ہمیں دلوں کو جوڑنے والا انسان بنانا چاہتا ہے۔
ایمان کی اصل محبت، ہمدردی اور خیرخواہی ہے اور انہی چیزوں کا عملی مظہر ہے۔
آپس کے تعلقات کی اصلاح صرف ایک عمل نہیں، بلکہ پورے دین کی روح ہے۔
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*आपस में सुलह कराना!*
सहाबी-ए-रसूल हज़रत अबू दरदा बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: क्या मैं तुम्हें ऐसी चीज़ के बारे में न बताऊँ जो दर्जे में नमाज़, रोज़ा और सदक़ा से भी अफ़ज़ल है? सहाबा-ए-किराम ने अर्ज़ किया: क्यों नहीं? ज़रूर बताइए! हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया: वह आपस में सुलह करा देना है, क्योंकि आपस की फूट दीन को मुँड़ने वाली है। (तिर्मिज़ी शरीफ़, हदीस नं: 2509)
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जब इंसान आसमान की वुसअतों में झांकता है और सितारों की हम-आहंगी का मुशाहदा करता है, जब वह इंसानी जिस्म के खलियात के दरमियान मौजूद बाहमी राब्त को देखता है, और जब वह दरिया की मौजों, हवाओं के रुख और फितरत की हर हरकत में नज़्म ओ इत्तिहाद को महसूस करता है तो वह बेख़्तियार पुकार उठता है: ये कायनात इत्तेफाक़ और यगानग़त का सबक दे रही है!
फिर यही इंसान जब इंसानी समाज की तरफ देखता है, तो उसके सामने एक और मंज़र आता है झगड़े, नफ़रतें, अना की दीवारें, क़ौमों में फ़सादात, ख़ानदानों में टूट-फूट, और दिलों में ऐसी दूरी कि क़रीब बैठे लोग भी अजनबी बन चुके हों।
इस पस-ए-मंज़र में, इस्लाम सिर्फ़ रुहानी नजात का पैग़ाम नहीं देता, बल्के मआशरती हम-आहंगी, क़ुलूब की सफ़ाई और रिश्तों की इस्लाह का ज़ामिन बनकर सामने आता है।
इस्लाम कहता है: इबादत से पहले उबूदियत, नमाज़ से पहले उख़ुव्वत, और रोज़े से पहले रिश्तों की शीरीनी को बहाल करो।
इसी लिए रसूल-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया:
क्या मैं तुम्हें ऐसा अमल न बताऊँ जो रोज़ा, नमाज़ और सदक़े से भी अफ़ज़ल है?
तो सहाबा-ए-किराम ने अर्ज़ किया: क्यों नहीं! ज़रूर बताइये या रसूल अल्लाह ﷺ!
आप ﷺ ने फ़रमाया:
आपस के ताल्लुक़ात की इस्लाह करना; क्योंकि आपसी फ़साद दीन को जड़ से उखाड़ देता है!
ये कोई आम नसीहत नहीं, बल्के ये शरीअत की रूह है, जो हमें बताती है कि:
दीन वो नहीं जो सिर्फ़ मस्जिद की चारदीवारी में क़ैद हो;
दीन वो है जो दिलों को जोड़े, इंसानों को क़रीब करे, और रिश्तों में मोहब्बत का रंग भरे।
अक़्ल ओ क़ियास का तक़ाज़ा है कि अगर किसी मशीन का एक पुर्जा दूसरे से बिगड़ जाए, तो चाहे वो मशीन लाख क़ीमती हो काम नहीं करेगी।
ऐसे ही इंसान की इबादात कितनी ही अज़ीम क्यों न हों, अगर उसके दिल में बुग़्ज़, दुश्मनी और नफ़रत हो तो वो इबादतें रूह से ख़ाली जिस्म की मानिंद हो जाएँगी।
माहिरीन-ए-नफ़्सियात इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि:
देरिना दुश्मनी और दिल की कदूरत इंसान में "कॉर्टिसोल" जैसे मज़र हार्मोन को बढ़ा देती है, जो ना सिर्फ़ ज़ेहनी दबाव, बल्के दिल के अमराज़, नींद की खराबी, और क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त की कमी का सबब बनती है।
यानी "फ़साद-ए-ज़ात-उल-बैन" ना सिर्फ़ रुहानी तबाही, बल्के जिस्मानी और दमाग़ी तबाही का पेश-ख़ेमा भी है।
इमाम ग़ज़ाली फ़रमाते हैं: क़ल्ब का फ़ित्ना जिस्म की बीमारी से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है।
अगर झूठ बोलना किसी झगड़े को ख़त्म कर दे, तो वो इस्लाह-ए-ज़ात-उल-बैन की निय्यत से जाइज़ है, क्योंकि मफ़सदा को ज़ाइल करना शरीअत का मक़्सद-ए-आ'ला है।
आज के इस परागंदा, नफ़्सियाती तौर पर मजरूह और इन्तिशार-ज़दा मआशरे में अगर कोई अमल वाक़ई "इबादतों का ताज" बन सकता है तो वो है:
दिलों को जोड़ना, ग़लत-फहमियों को मिटाना, और भाई को भाई से मिलाना।
पस जो हाथ लोगों को मिलाता है, वही अल्लाह से भी जुड़ जाता है।
*इस्तिफ़हामिया उसलूब का जलाल:*
नबी ए अकरम ﷺ का अंदाज़-ए-इर्शाद इस हदीस में तद्रीसी और ख़तीबाना है, जिसमें एक सवाल के ज़रिए सामे' की तवज्जोह, तजस्सुस और क़ल्बी माइलान पैदा किया जा रहा है।
गोया दिलों के दरवाज़े खोले जा रहे हैं ताके नसीहत असर करे।
✦ *इबादतों से अफ़ज़ल अमल?*
नमाज़, रोज़ा और सदक़ा इस्लाम के अहम तरीन अरकान में से हैं, मगर इस हदीस में इन सब पर "इस्लाह-ए-ज़ात-उल-बैन" को फ़ौक़ियत दी गई है।
*इसकी दो बुनियादी वजहें हैं:*
( *अ* ) इन इबादात का ताल्लुक़ बंदे और अल्लाह के दरमियान है, जबकि इस्लाह-ए-ज़ात-उल-बैन का ताल्लुक़ बंदे और बंदे के दरमियान।
( *ब* ) इबादत का असर महदूद होता है, लेकिन सुलह का फ़ायदा पूरे मआशरे को हासिल होता है।
*✦ "फ़साद" को "हालिक़ा" क्यों कहा गया?*
आप ﷺ ने "फ़साद-ए-ज़ात-उल-बैन" को "अल-हालिक़ा" क़रार दिया है, यानी मूंड डालने वाली चीज़।
ये तअबीर बहुत ही मआनी ख़ेज़ है:
जैसे उस्तरा सर के बालों को जड़ से काट देता है,
वैसे ही दिलों की कदूरत, नफ़रत, दुश्मनी और बदगुमानी दीन की बुनियाद को जड़ से उखाड़ देती है।
आमाल-ए-सालिहा का असर खत्म हो जाता है, क्योंकि क़ुरआन ओ सुन्नत में हुकूक़-उल-इबाद को पामाल करने वाला मुक़बूल-ए-बारगाह नहीं रहता।
अल्लाह तआला फ़रमाता है:
आपस में झगड़ो नहीं, वरना कमज़ोर पड़ जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी।
✦ *पैग़ाम-ए-नबवी ﷺ का ख़ुलासा:*
इबादात अपनी जगह अहम हैं, मगर दिलों की इस्लाह उन पर भी मुक़द्दम है।
जिस मआशरे में अफ़राद आपस में जुड़े हों, वही दीन के हक़ीकी अक़ास होते हैं।
फ़ितना, फ़साद, चुग़ली, ग़ीबत और दुश्मनी ये सब शैतानी आसबाब हैं जो ईमान की जड़ें काट देते हैं।
इस्लाह-ए-ज़ात-उल-बैन "फ़र्ज़-ए-किफ़ाया" है अगर एक शख़्स सुलह करा दे, तो दूसरों से ये ज़िम्मेदारी साकित हो जाती है।
अगर दो शख़्सों की सुलह झूठ के बिना मुमकिन न हो, तो इस्लाह की नियत से झूठ बोलना जाइज़ है (बुख़ारी: किताबुल अदब)।
ग़ीबत, चुग़ली, बदगुमानी, इल्ज़ाम तराशी — ये तमाम चीज़ें फ़साद-ए-ज़ात-उल-बैन को जन्म देती हैं और ये सब "कबीरा गुनाह" हैं।
✦ *अमली तक़ाज़े:*
➤ रिश्तेदारों, दोस्तों, हमसायों और मुसलमानों के दरमियान मौजूद झगड़ों को मिटाने की अमली कोशिश कीजिए।
➤ अफ़वाहों और ग़लतफहमियों की बुनियाद पर फ़ैसला मत कीजिए; हमेशा तहक़ीक़ कीजिए।
➤ इस्लाह को "फ़ज़ीलत" समझ कर कीजिए, ना कि मजबूरी।
➤ इस्लाम हमें दिलों को जोड़ने वाला इंसान बनाना चाहता है।
➤ ईमान की अस्ल मोहब्बत, हमदर्दी और ख़ैरख्वाही है और इन्हीं चीज़ों का अमली मज़हर है।
➤ आपस के ताल्लुक़ात की इस्लाह सिर्फ़ एक अमल नहीं, बल्के पूरे दीन की रूह है।

❤️
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