she'r-o-suKHan
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June 18, 2025 at 08:12 AM
*भारत-भारती / वर्तमान खंड / दुर्भिक्ष¹* ¹ अकाल *दुर्भिक्ष मानों देह धर के घूमता सब ओर है,* *हा! अन्न! हा! हा! अन्न का रव गूँजता घनघोर है!* सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में भरे जितने हरे! जन चौगुने उनसे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे॥ उड़ते प्रभंजन से यथा तप-मध्य सूखे पत्र हैं, लाखों यहाँ भूखे भिखारी घूमते सर्वत्र हैं! है एक चिथड़ा ही कमर में और खप्पर हाथ में, नंगे तथा रोते हुए बालक विकल हैं साथ में॥ आवास या विश्राम उनका एक तरुतल मात्र है, बहु कष्ट सहने से सदा काला तथा कृश गात्र है! हेमंत उनको है कँपाता, तप तपाता है तथा, है झेलनी पड़ती उन्हें सिर पर विषम वर्षा-व्यथा! *वह पेट उनका पीठ से मिल कर हुआ क्या एक है?* *मानों निकलने को परस्पर हड्डियों में टेक है!* निकले हुए हैं दाँत बाहर, नेत्र भीतर हैं धँसे; किन शुष्क आतों में न जाने प्राण उनके हैं फँसे! अविराम आँखों से बरसता आँसुओं का मेह है, है लटपटाती चाल उनकी, छटपटाती देह है! गिर कर कभी उठते यहाँ, उठ कर कभी गिरते वहाँ; घायल हुए से घूमते हैं वे अनाथ जहाँ-तहाँ॥ हैं एक मुट्ठी अन्न को वे द्वार-द्वार पुकारते, कहते हुए कातर वचन सब ओर हाथ पसारते— दाता! तुम्हारी जय रहे, हमको दया कर दीजियो, माता! मरे, हा! हा! हमारी शीघ्र ही सुध लीजियो” कृमि, कीट, खग, मृग आदि भी भूखे नहीं सोते कभी, पर वे भिखारी स्वप्न में भी भूख से रोते सभी! वे सुप्त हैं या मृत कि मूर्च्छित, कुछ समझ पड़ता नहीं; मूर्च्छा कि मृत्यु अवश्य है, यह नींद की जड़ता नहीं! है काँखता कोई कहीं, कोई कहीं रोता पड़ा; कोई विलाप प्रलाप करता, ताप है कैसा कड़ा। हैं मृत्यु-रमणी पर प्रणयि-सम वे अभागे मर रहे, जब से बुभुक्षा² कुट्टनी ने उस प्रिया के गुण कहे!॥ ² भूख नारी-जनों की दुर्दशा हमसे कहीं जाती नहीं, लज्जा बचाने को अहो! जो वस्त्र भी पाती नहीं। जननी पड़ी है और शिशु उसके हृदय पर मुख धरे, देखा गया है, किंतु वे माँ-पुत्र दोनों हैं मरे! जो कुलवती हैं भीख भी वे माँग सकती हैं नहीं, मर जायँ चाहे किंतु झोली टाँग सकती हैं नहीं। संतान ने आकर कहा—'माँ! रात तो होने लगी, भूखे रहा जाता नहीं माँ?' हाय! माँ रोने लगी॥ है खोलती सरकार यद्यपि काम शीघ्र अकाल के, होती सभाएँ, और खुलते सत्र आटे-दाल के। पूरा नहीं पड़ता तदपि, वह त्राहि कम होती नहीं; कैसी विषमता है कि कुछ भी हाय! सम होती नहीं॥ प्रायः सदा दुर्भिक्ष ऐसा है बना रहता जहाँ, आश्चर्य क्या यदि फिर निरंतर नीचता फैले वहाँ। करता नहीं क्या पाप भूखा! पेट! हो तेरा बुरा, है! छोड़ती सुत तक नहीं उरगी क्षुधा से आतुरा! शासक यहाँ जो दोषियों को साँकलों से कस रहे, जो अंडमान समान टापू है यहाँ से बस रहे। फिर भी दिनोंदिन बढ़ रहा जो घोर घटना-जाल है, है हेतु इसका और क्या, दुर्भिक्ष या दुष्काल है॥ कुल, जाति-पाँति न चाहिए, यह सब रहे या जाए रे; बस एक मुट्ठी अन्न हमको चाहिए अब हाय रे! इस पेट पापी के लिए ही हम विधर्मी बन रहे, निज धर्म-मानस से निकल अघ-पंक में हैं सन रहे॥ जिन दूर देशों में हमारे धर्म के झंडे उड़े– आकर स्वयं जिनके तले दिन-दिन वहाँ के जन जुड़े। तजना पड़े हमको वहीं के धर्म पर निज धर्म को! हा! देखती है क्या बुभुक्षा-राक्षसी दुष्कर्म को! हे धर्म्म और स्वदेश! तुमको बार-बार प्रणाम है, हा! हम अभागों का हुआ क्या आज यह परिणाम है! हमको क्षमा करियो, क्षुधा-वश हम तुम्हें हैं खो रहे, होकर विधर्मी हाय! अब हम हैं विदेशी हो रहे॥ आनंद-नद में मग्न थे जिस देश के वासी सभी, सुर भी तरसते थे जहाँ पर जन्म लेने को कभी। हा! आज उसकी यह दशा, संताप छाया सब कहीं, सुर क्या, असुर भी अब यहाँ का जन्म चाहेंगे नहीं॥ *— मैथिलीशरण गुप्त*
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