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शे'र-ओ-सुख़न | شِعْر و سُخَن

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6/19/2025, 5:16:33 AM

अश्क ज़ाएअ' हो रहे थे देख कर रोता न था जिस जगह बनता था रोना मैं उधर रोता न था *सिर्फ़ तेरी चुप ने मेरे गाल गीले कर दिए* *मैं तो वो हूँ जो किसी की मौत पर रोता न था* प्यार तो पहले भी उस से था मगर इतना नहीं तब मैं उस को छू तो लेता था मगर रोता न था *— Tehzeeb Hafi*

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6/19/2025, 5:06:01 AM

मुझको दरवाजे पर ही रोक लिया जाता है मेरे आने से भला आप का क्या जाता है तुम अगर जाने लगे हो तो पलट कर मत देखो मौत लिखकर तो कलम तोड़ दिया जाता है *तुझको बतलाता मगर शर्म बहुत आती है* *तेरी तस्वीर से जो काम लिया जाता है* *— Tehzeeb Hafi*

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6/19/2025, 6:17:51 AM

कल भी हो जाए मौत क्या होगा? सब की होती है क्या नया होगा? मेरे लिखने से कुछ रुकेगा क्या? लिखना, ग़म से निजात देगा क्या? ना ये दुनिया हसीन होगी ना उसके पापों का फ़ैसला होगा मेरे लिखने से बोल क्या होगा? *— पुनीत*

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6/19/2025, 5:25:32 AM

*उसी जगह पर जहां कई रास्ते मिलेंगे* *पलट के आए तो सबसे पहले तुझे मिलेंगे* अगर कभी तेरे नाम पर जंग हुई तो हम ऐसे बुज़दिल भी पहली सफ़ में खड़े मिलेंगे तुझे ये सड़कें मेरे तवस्सुत से जानती हैं तुझे हमेशा यह सब इशारे खुले मिलेंगे हमें बदन और नसीब दोनों संवारने हैं हम उसके माथे का प्यार लेकर गले मिलेंगे ना जाने कब उसकी आंखे छलकेंगी मेरे गम में ना जाने किस दिन मुझे ये बर्तन भरें मिलेंगे *तू जिस तरह चूमकर हमें देखता है 'हाफी'* *हम एक दिन तेरे बाजुओं में मरे मिलेंगे* *— Tehzeeb Hafi*

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6/19/2025, 4:54:12 AM

*ज़ेहन पर ज़ोर देने से भी याद नहीं आता कि हम क्या देखते थे* *सिर्फ़ इतना पता है कि हम आम लोगों से बिल्कुल जुदा देखते थे* तब हमें अपने पुरखों से विरसे में आई हुई बद्दुआ याद आई जब कभी अपनी आँखों के आगे तुझे शहर जाता हुआ देखते थे *सच बताएँ तो तेरी मोहब्बत ने ख़ुद पर तवज्जो दिलाई हमारी* *तू हमें चूमता था तो घर जा के हम देर तक आईना देखते थे* सारा दिन रेत के घर बनाते हुए और गिरते हुए बीत जाता शाम होते ही हम दूरबीनों में अपनी छतों से ख़ुदा देखते थे उस लड़ाई में दोनों तरफ़ कुछ सिपाही थे जो नींद में बोलते थे जंग टलती नहीं थी सिरों से मगर ख़्वाब में फ़ाख्ता देखते थे दोस्त किसको पता है कि वक़्त उसकी आँखों से फिर किस तरह पेश आया हम इकट्ठे थे हँसते​ थे रोते थे इक दूसरे को बड़ा दखते थे *— Tehzeeb Hafi*

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6/19/2025, 6:05:27 AM

*ज़ाइद¹ ज़िंदगी —* ¹ ज़्यादा, अतिरिक्त, फ़ालतू  कहानी और होती कुछ हमारी अगर हम वक़्त से सोने की 'आदत डाल लेते मगर हम तो न जाने क्या समझते थे सहर तक जागने को जो हम ने जाग कर काटी हैं नींद आते हुए भी वो ज़ाइद ज़िंदगी है वो ज़ाइद ज़िंदगी है जिस ने सारे मसअले पैदा किए हैं जिसे जीने में ख़्वाबों के ये उल्झट्टे हुए हैं *— शारिक़ कैफ़ी*

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6/19/2025, 6:25:02 AM

*मैं —* मैं एक भागता हुआ दिन हूँ और रुकती हुई रात — मैं नहीं जानता हूँ मैं ढूँढ़ रहा हूँ अपनी शाम या ढूँढ़ रहा हूँ अपना प्रात! *— श्रीकांत वर्मा*

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6/19/2025, 6:21:25 AM

*ठाकुर का कुआँ —* चूल्हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का। भूख रोटी की रोटी बाजरे की बाजरा खेत का खेत ठाकुर का। बैल ठाकुर का हल ठाकुर का हल की मूठ पर हथेली अपनी फ़सल ठाकुर की। कुआँ ठाकुर का पानी ठाकुर का खेत-खलिहान ठाकुर के गली-मुहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या? गाँव? शहर? देश? *— ओमप्रकाश वाल्मीकि*

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6/19/2025, 5:02:34 AM

*पायल कभी पहने कभी कंगन उसे कहना* *ले आए मुहब्बत में नयापन उसे कहना* *मयकश¹ कभी आँखों के भरोसे नहीं रहते* *शबनम² कभी भरती नहीं बर्तन उसे कहना* ¹ शराबी, मद्यप ² ओस, तुषार घर-बार भुला देती है दरिया की मुहब्बत कश्ती में गुज़ार आया हूँ जीवन उसे कहना *— Tehzeeb Hafi*

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6/19/2025, 4:50:27 AM

डरने के लिए है न नसीहत के लिए है जिस उम्र में तुम हो वो मोहब्बत के लिए है ये दिल जो अभी पिछले जनाज़े नहीं भूला तैयार अब इक और मुसीबत के लिए है  *क्या है जो मुझे हुक्म नहीं मानने आते* *दीवाना तो होता ही बगावत के लिए है* पाइसिस है अगर वो तो परेशान न होना ये बुर्ज बना ही किसी हैरत के लिए है  *ये प्यार तुझे इसलिए शोभा नहीं देता* *तू झूठ है और झूठ सियासत के लिए है!* *— Ali Zaryoun*

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