
सुलेखसंवाद
June 14, 2025 at 12:56 AM
भाग्य नहीं, व्यवस्था दोष है — संत्रास
— एक विश्लेषण कि हम पीड़ित क्यों हैं और जिम्मेदार कौन है
जब हम छुट्टी मनाने जाते हैं और आतंकी हमला हो जाता है,
जब हम ट्रेन पकड़ते हैं और वह पटरी से उतर जाती है,
जब हम फ्लाइट में चढ़ते हैं और वह क्रैश कर जाती है,
जब हम हॉस्टल में खाना खा रहे होते हैं और प्लेन ऊपर से गिरता है—
तब कोई यह कह देता है: हमारे हाथ में कुछ नहीं।
बस कृपा यहीं रुक जाती है।
ये जो शरीर की संरचना में सबसे ऊपर बुद्धि और विवेक का स्पेस है न इसकी कृपा।
यह एक वाक्य नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की चेतना को पंगु बनाने वाली विचारधारा है।
मनोवैज्ञानिक आयाम: जब पीड़ा को सामान्य यानिकी ‘नॉर्मल’ बना दिया जाए
तो मनुष्य बार-बार पीड़ा और असुरक्षा का सामना करता है, इस स्थिति में वह या तो विद्रोह करता है या फिर आत्मसुरक्षा के लिए मन को ‘संतुलित’ रखने हेतु उस दर्द को “भाग्य” कहकर स्वीकार करना शुरू कर देता है।
इसे “Learned Helplessness” (प्रशिक्षित मजबूरी) कहा जाता है — जब व्यक्ति यह मान लेता है कि वह कुछ बदल नहीं सकता, तो वह प्रयास करना छोड़ देता है।
यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है, जिसे पहली बार 1960 के दशक में मनोवैज्ञानिक मार्टिन सेलिगमैन (Martin Seligman) ने प्रतिपादित किया था।
वर्तमान के सोशल मीडिया दौर में यह भाग्यवाद दरअसल एक सामूहिक मानसिक रोग बन चुका है, जो व्यवस्था के असफलताओं को ‘प्राकृतिक आपदा’ में अनजाने ही बदल देता है। रेल/प्लेन दुर्घटना तकनीकी लापरवाही का परिणाम है, लेकिन मानसिक ढाँचा और सामूहिक चेतना बार बार यह दोहरा कर कहता है: “किस्मत में लिखा था”।
नियति बनाम उत्तरदायित्व
भारतीय दार्शनिक परंपरा में नियतिवाद की एक लंबी परंपरा रही है, परंतु उसके समांतर कर्मवाद और बौद्धिक आलोचना की धाराएँ भी विद्यमान रही हैं। लेकिन आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में जहाँ शासन, तकनीक और विज्ञान हमारी सुरक्षा के साधन हैं, वहाँ नियतिवाद का बढ़ा हुआ प्रभाव सत्ता की जवाबदेही से ध्यान हटाने का उपकरण बन चुका है।
यह विचारधारा यह कहती है कि “दुर्घटना बस हो गई”, लेकिन कोई नहीं पूछता कि—
• DGCA ने कितनी बार फ्लाइट की सुरक्षा रिपोर्ट को नजरअंदाज किया?
• रेलवे ट्रैक का रखरखाव क्यों नहीं हुआ?
• आतंकी हमले से पहले इंटेलिजेंस इनपुट को क्यों अनदेखा किया गया?
3. जब व्यवस्था खुद को ईश्वर बना ले
जब समाज में संस्थाएँ—सरकार, कंपनियाँ, सुरक्षा एजेंसियाँ—अपने दायित्व से बचकर नागरिकों से सिर्फ धैर्य, सहिष्णुता और बलिदान की अपेक्षा करती हैं, तो वे खुद को एक प्रकार का ‘अप्रतिरोध्य देवता’ बना लेती हैं।
यह प्रक्रिया जनता को “अ-राजनीतिक” बना देती है, जिससे वह न्याय की माँग नहीं करती, केवल श्रद्धा और समर्पण का भाव रखती है।
इसका परिणाम यह होता है कि—
• न्याय के लिए सड़क पर नहीं उतरा जाता,
• जानने के हक का अभ्यास नहीं किया जाता।
• कोर्ट में जनहित याचिक नहीं दायर होती।
बल्कि केवल सोशल मीडिया पर मानसिक पंगुता के वाक्यों को दोहराया जाता है। सत्ता की जवाबदेही को धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाता है?
मीडिया और सांस्कृतिक विमर्श की भूमिका: शोक को साहस बनाकर परोसने का विकृत अभ्यास
जब कोई बच्चा स्कूल की इमारत गिरने से मरता है तो न्यूज़ चैनल पर उसकी माँ के आंसू दिखाकर कहा जाता है:
“ये माँ आज भी दूसरों के बच्चों को पढ़ा रही है, क्या अद्भुत जज्बा है!”
लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि स्कूल की इमारत बिना मंजूरी के कैसे बनी?
इंस्पेक्टर ने घूस लेकर आंखें क्यों मूंदी?
शोक को “साहस” बना देना और दर्द को “संस्कार” बना देना एक गहरी विचारधारा का हिस्सा है— ताकि लोग कभी व्यवस्था से जवाबदेही न माँगें, केवल खुद को सुधारें।
: हमें अपने डर और दुख से गुस्से तक की यात्रा तय करनी होगी
जब तक हम “दुर्घटना” को भाग्य समझते रहेंगे, तब तक दोषी लोग अपराधों से बचते रहेंगे।
जब तक हम सोचते रहेंगे कि “मरना तो एक दिन था ही”, तब तक व्यवस्था हत्यारी बनी रहेगी।
सवाल करें, जवाब माँगें, और भाग्य की जगह व्यवस्था का उत्तरदायित्व तय करें। — अगर व्यवस्था ने असफलता की है तो हम ‘दुर्घटना’ के नहीं, ‘हत्या’ के शिकार हैं।
यह प्रयास होगा पीड़ित को और अधिक पीड़ित बनाए बिना, उसके भीतर न्याय की मांग को पुनर्जीवित करने से।
एक आह्वान करिए खुद से की मानसिक, दार्शनिक और सामाजिक चेतना की परतों को किसी भी सोशल मीडिया के भेड़चाल में धुंधला न होने देंगे।
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