
she'r-o-suKHan
June 19, 2025 at 04:54 AM
*ज़ेहन पर ज़ोर देने से भी याद नहीं आता कि हम क्या देखते थे*
*सिर्फ़ इतना पता है कि हम आम लोगों से बिल्कुल जुदा देखते थे*
तब हमें अपने पुरखों से विरसे में आई हुई बद्दुआ याद आई
जब कभी अपनी आँखों के आगे तुझे शहर जाता हुआ देखते थे
*सच बताएँ तो तेरी मोहब्बत ने ख़ुद पर तवज्जो दिलाई हमारी*
*तू हमें चूमता था तो घर जा के हम देर तक आईना देखते थे*
सारा दिन रेत के घर बनाते हुए और गिरते हुए बीत जाता
शाम होते ही हम दूरबीनों में अपनी छतों से ख़ुदा देखते थे
उस लड़ाई में दोनों तरफ़ कुछ सिपाही थे जो नींद में बोलते थे
जंग टलती नहीं थी सिरों से मगर ख़्वाब में फ़ाख्ता देखते थे
दोस्त किसको पता है कि वक़्त उसकी आँखों से फिर किस तरह पेश आया
हम इकट्ठे थे हँसते थे रोते थे इक दूसरे को बड़ा दखते थे
*— Tehzeeb Hafi*
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