
शिक्षक दखल
June 11, 2025 at 05:56 PM
ओम निश्चल जी की ये ग़ज़ल सिर्फ़ शेरों की साज-सज्जा नहीं, व्यवस्था की विवेक-हत्या पर तीखी टिप्पणी है। यहां बेचैनी है, कटाक्ष है, और हर मिसरे में एक अघोषित घोषणा—कि बिकने वालों की फ़ेहरिस्त में कोई भी अछूता नहीं।
✍️ *प्रवीण त्रिवेदी*
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