
शिक्षक दखल
June 14, 2025 at 07:52 AM
एक बार फिर से ऐसा प्रतीत होता है कि नीति-निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षा के मूल तत्वों की उपेक्षा की गई है। उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा हाल ही में लिया गया निर्णय — जिसमें छात्रों के लिए ग्रीष्मावकाश घोषित कर दिया गया है, लेकिन शिक्षकों को 15 दिनों तक विद्यालय में अनिवार्य रूप से उपस्थित रहने का निर्देश दिया गया है — न केवल व्यावहारिक स्तर पर विरोधाभासी है, बल्कि यह शिक्षाशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी चिंताजनक है। क्या विद्यालय की संकल्पना छात्रविहीन परिसर में बैठे शिक्षकों से पूरी हो सकती है? क्या यह शिक्षा के उस आत्मा के विरुद्ध नहीं है, जिसमें शिक्षक और छात्र का परस्पर संवाद केंद्रीय तत्व होता है?
शिक्षण कोई फैक्ट्री नहीं है, जहां उपस्थिति दर्ज कराकर उत्पादन किया जा सके। यह एक सजीव, मानवीय प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक की उपस्थिति तभी सार्थक होती है जब छात्र सामने हों, जब प्रश्न-उत्तर हों, जब सोच और समझ का आदान-प्रदान हो। बिना छात्रों के विद्यालय में शिक्षक को बैठा देना ऐसा ही है जैसे किसी संगीतकार को बिना वाद्ययंत्र के मंच पर बिठा देना — न सुर होगा, न ताल, केवल मौन और निरर्थक प्रतीक्षा। शिक्षा का स्थान केवल भौतिक उपस्थिति से नहीं, बल्कि जीवंत अंतःक्रिया से पूर्ण होता है।
नीति-निर्माताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि विद्यालय एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है, कोई सरकारी दफ्तर नहीं। विद्यालय में शिक्षक की भूमिका बच्चों के साथ जुड़ाव, अनुकरण, संवाद और प्रेरणा की होती है। जब इन सबका ही वहां अभाव हो, तो केवल रिपोर्ट, डाटा, रजिस्टर और उपस्थिति की खानापूर्ति करवाना शिक्षण का अपमान नहीं तो और क्या है? पिछले कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ी है जिसमें शिक्षक को शिक्षा से अधिक प्रशासनिक कार्यों में झोंका गया है। अब यह व्यवस्था उस दिशा में बढ़ रही है जहां शिक्षक एक दफ्तर में बैठे कर्मचारी के रूप में बदल दिए गए हैं।
यह आदेश भले ही कुछ 'आंतरिक कार्यों' और 'तैयारियों' के नाम पर उचित ठहराया जाए, लेकिन उसकी शिक्षाशास्त्रीय वैधता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। बच्चों की अनुपस्थिति में विद्यालय न तो शिक्षण का केंद्र रह जाता है, न ही उस वातावरण को जन्म दे पाता है जो एक शिक्षक के भीतर नए सत्र के लिए ऊर्जा भर सके। शिक्षकों को मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक रूप से तैयार करने का कार्य केवल बैठाकर नहीं किया जा सकता। इसके लिए मुक्त वातावरण, संवाद, प्रशिक्षण, चिंतन और नवाचार की आवश्यकता होती है — न कि कठोर हाज़िरी और बाबूगिरी के कामों की।
इस निर्णय से यह भी स्पष्ट होता है कि जिम्मेदार अभी भी शिक्षक को एक विचारशील, प्रेरणादायक, समाज-निर्माता की भूमिका में नहीं देखता, बल्कि उसे एक ऐसा कर्मी मानता है जिसे आदेशों का पालन करना है, भले ही वे शिक्षा के मूल उद्देश्यों से कितना भी विचलित क्यों न हों। इस सोच को चुनौती देने की आवश्यकता है। शिक्षक कोई रजिस्टर भरने वाली मशीन नहीं है। वह उस रोशनी का वाहक है, जो तभी जलती है जब उसके सामने जिज्ञासा से भरे बालमन हों।
अगर ऐसे निर्णय बार-बार लिए जाते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब विद्यालय केवल बिल्डिंग रह जाएंगे, शिक्षक केवल क्लर्क, और शिक्षा केवल सरकारी आंकड़ों में गुम एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा का आधार बच्चों और शिक्षकों के बीच जीवंत संबंध पर टिका होता है — और उस संबंध के अभाव में विद्यालय की संकल्पना खोखली हो जाती है।
इसलिए यह आवश्यक है कि इस निर्णय पर पुनर्विचार किया जाए। शिक्षकों के समय, श्रम और गरिमा को समझते हुए ऐसी योजनाएं बनाई जाएं जो न केवल नीति के हिसाब से उचित हों, बल्कि शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षक की भूमिका के अनुरूप भी हों। यही शिक्षा के हित में है, और यही समाज के भविष्य के हित में भी।
✍️ *प्रवीण त्रिवेदी*
🤝 *फेसबुक* पर करें *फॉलो*
👉 https://www.facebook.com/share/p/1F156DAMv7/?mibextid=oFDknk
🤝 *व्हाट्सएप* पर करें *फ़ॉलो*
https://whatsapp.com/channel/0029VaAZJEQ8vd1XkWKVCM3b
🤝 *इंस्टाग्राम* पर करें *फ़ॉलो*
👉 https://www.instagram.com/praveentrivedi009