शिक्षक दखल
शिक्षक दखल
June 17, 2025 at 10:44 AM
गांव में एक अजीब आदमी आया था। न लंबा, न छोटा, न सीधा, न टेढ़ा। अपना नाम बताया— *हस्तक्षेपेश्वर* । लोगों को पहले लगा कि कोई साधु-संत होगा, कोई बाबा टाइप आदमी। लेकिन जल्द ही पता चल गया कि वह बाबा कम और दादा ज़्यादा था। वह जहां भी जाता, कुछ न कुछ टेढ़ा-मेढ़ा खोज लेता। किसी के दरवाज़े को देखकर कहता, "ये तो तुम्हारे संस्कारों की तरह झुका हुआ है", तो किसी की दीवार को तिरछा बताकर सीधा करने के लिए अपना मापतौल यंत्र निकाल लेता। गांव की स्कूल में दोपहर तीन बजे छुट्टी होती थी, लेकिन उसे लगता था कि बच्चे डेढ़ बजे ही थक जाते हैं। इसलिए वह डेढ़ बजे पहुंचकर मास्टर जी से कहता, "आप बच्चों को गुलाम बना रहे हैं। इन्हें घर भेजिए, इनके बचपन की हत्या हो रही है!" जब मास्टर जी पूछते कि "आप कौन?", तो वह कहता, "जनदखलकर्ता! संविधान ने मुझे आत्मनिर्भर दायित्व सौंपा है।" गांव के एक बुजुर्ग रामकृपाल चुपचाप रहने वाले, सबकी मदद करने वाले व्यक्ति थे। हस्तक्षेपेश्वर उन्हें देखकर गरज उठा—"आपकी चुप्पी समाज के पतन का कारण है!" रामकृपाल बोले, "बेटा, बोलता हूं जब ज़रूरत हो।" तब उसने कहा, "अब मैं बोलूंगा, आपकी तरफ से भी!" अब वह खुद को "लोकप्रतिनिधि बिन चुनाव" मान चुका था। एक दिन उसने पंचायत भवन के सामने एक बोर्ड टांग दिया—"दखल जनमंच – संचालक: हस्तक्षेपेश्वर"। हर समस्या का समाधान वहीं घोषित होता, मगर बिना किसी की राय के। किसी की भैंस खोल देना उसके लिए "स्वतंत्रता अधिकार" था, किसी बच्चे का होमवर्क फाड़ देना "बालमन की मुक्ति"। और बड़ों को डांटना—"लोकतंत्र में बराबरी का भाव"। धीरे-धीरे गांववालों ने उससे बचने की युक्ति निकाली। जिस दिन वह आता, सब अपने दरवाज़े पर "मामला विचाराधीन है" का बोर्ड टांग देते। न कोई उससे बहस करता, न विरोध करता। बस उसकी भाषा में ही उसका सामना करते। एक दिन उसने कहा, "तुम लोग हस्तक्षेपहीन समाज की ओर बढ़ रहे हो!" रामकृपाल मुस्कुराए और बोले, "नहीं बेटा, हम तो स्वविवेक वाले समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें न तुम जैसे थोपने वाले हों, न हम जैसे झेलने वाले।" उस दिन हस्तक्षेपेश्वर चुपचाप गांव छोड़ गया, लेकिन जाते-जाते दीवार पर एक इबारत लिख गया—"मैं फिर आऊंगा, जब तुम चुप हो जाओगे।" गांववालों ने उसके नीचे लिख दिया—"हम अब सुनते भी हैं और समझते भी। इसलिए तुम्हारी ज़रूरत नहीं।" इस तरह एक हस्तक्षेपकारी सोच से गांव ने मुक्ति पाई। यह कथा यही सिखाती है कि *हर समस्या को हल मानकर जबरन घुसना हस्तक्षेप नहीं, अहंकार है। और हर चुप्पी को अपराध समझना अपने विचार की तानाशाही। समाज को सुधारना है तो भरोसा करना सीखो, घुसपैठ नहीं।* ✍️ *प्रवीण त्रिवेदी* 🤝 *फेसबुक* पर करें *फॉलो* 👉 https://www.facebook.com/share/p/1DjeKxc22C/?mibextid=oFDknk 🤝 *व्हाट्सएप* पर करें *फ़ॉलो* https://whatsapp.com/channel/0029VaAZJEQ8vd1XkWKVCM3b 🤝 *इंस्टाग्राम* पर करें *फ़ॉलो* 👉 https://www.instagram.com/praveentrivedi009
❤️ 1

Comments