
शिक्षक दखल
June 19, 2025 at 10:00 AM
*क्या उत्तर प्रदेश में एक बच्ची की शिक्षा इतनी क़ीमती नहीं?*
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यूपी के ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल अब विकास का नहीं, ‘विलय’ का चेहरा बनने जा रहे हैं। ‘एकीकरण’ और ‘पेयरिंग’ जैसे शब्दों में लिपटा यह अभियान दरअसल गांव की शिक्षा को लेकर एक ऐसा प्रयोग बन गया है, जो न तो संवैधानिक है, न सामाजिक और न ही शिक्षाशास्त्रीय दृष्टिकोण से तार्किक।
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इसी देश में नहीं, पूरी दुनिया में शिक्षा को लेकर संवेदनशीलता की मिसालें भरी पड़ी हैं। जापान के होकाइदो द्वीप पर कामी शिराताकी नामक गांव में एक स्टेशन को इसलिए चालू रखा गया, क्योंकि वहां से सिर्फ एक बच्ची स्कूल जाती थी। रेलवे ने उस एक बच्ची के लिए रोज एक पूरी ट्रेन चलानी स्वीकार की। ना कोई सवारी, ना कोई भीड़—सिर्फ एक बच्ची। यह है शिक्षा के लिए विकास का असली चेहरा, जहां एक बच्चे की शिक्षा को राष्ट्र का भविष्य माना गया।
अब भारत की ओर आइए—उत्तर प्रदेश की उस धरती पर, जहां "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का नारा बुलंद किया गया था, वहां आज सुदूर गांवों के कम सांख्य वाले स्कूलों पर पेयरिंग के नाम पर ताले लटकाए जाने की आशंका हैं। यह दावा किया जा रहा है कि ‘अब हम संसाधनों को जोड़ेंगे, बड़ा और सुविधायुक्त स्कूल बनाएंगे।’ पर क्या किसी ने यह सोचा कि प्राथमिक कक्षाओं के मासूम बच्चे यह दूरी रोज तय कर पाएंगे?
शिक्षाशास्त्र कहता है कि शिक्षा को सुलभ, निकटतम और बाल अनुकूल होना चाहिए। RTE कानून भी यही कहता है—कक्षा 1 से 5 तक का स्कूल अधिकतम 1 किलोमीटर की परिधि में और कक्षा 6 से 8 तक अधिकतम 3 किलोमीटर के दायरे में होना चाहिए। पर वर्तमान नीतिनिर्धारक इस मूल सिद्धांत से मुंह मोड़ते नजर आते हैं।
यह किस विकास की परिभाषा है, जहां कम नामांकन को कारण बनाकर स्कूल बंद कर दिए जाते हैं? उपस्थिति कम थी या आपकी व्यवस्था? शिक्षक क्यों नहीं थे? बच्चों को जोड़ने के प्रयास क्यों नहीं हुए? सच तो यह है कि जब दशकों तक हर स्कूल में शिक्षक देने में सरकार असफल रही, जब हर शिक्षक को शिक्षणेतर कार्यों से मुक्त करने में विफल रही, तब अब वह खुद को बचाने के लिए स्कूल ही कम करने में जुट गई है। क्या हमें जापान से नहीं सीखना चाहिए? क्या भारत का कोई गांव, कोई बच्ची उस जापानी छात्रा जितनी क़ीमती नहीं है?
विद्यालयों का मर्जर, पेयरिंग और एकीकरण — यह सब शिक्षा व्यवस्था की आत्मा का दमन है। यह केवल स्कूलों का नहीं, बल्कि गांवों के आत्मविश्वास, बच्चों के सपनों और राष्ट्र के भविष्य का विलोपन है।
यदि हमने समय रहते इसका विरोध नहीं किया, तो आने वाले कल में एक बच्चा जब स्कूल जाने को उठेगा, तो उसे दरवाजे पर कोई ट्रेन नहीं मिलेगी — सिर्फ़ बंद दरवाजा मिलेगा और एक खोया हुआ सपना। शिक्षा का सवाल सिर्फ़ स्कूल का नहीं, समाज के जीवित रहने का सवाल है। जहां शिक्षा बंद होती है, वहां सभ्यता चुपचाप दम तोड़ती है।
✍️ *प्रवीण त्रिवेदी*
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