⛳सनातन धर्मरक्षक समिति⛳
June 11, 2025 at 08:59 AM
*┈┉सनातन धर्म की जय,हिंदू ही सनातनी है┉┈* *लेख क्र.-सधस/२०८२/ज्येष्ठ/शु./पू-१८१८७* *┈┉══════❀((""ॐ""))❀══════┉┈* 🟠 *स्वदेशी चिकित्सा* 🟠 *आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्* मूत्रजेषु तु पाने च प्राग्भक्तं शस्यते घृतम् ।। जीर्णान्तिकं चोत्तमया मात्रया योजनाद्वयम् । अवपीडकमेतच्च संज्ञितम्- अर्थ : मूत्ररोध की चिकितसा-मूत्र वेग के रोकने से उत्पन्न रोगों में भोजन के पहले घृत पीना उत्तम माना गया है। और वह घृत जीर्णान्तिक उत्तम मात्रा में होना चाहिये। इस प्रकार भोजन के पहले घृत पीना और जीर्णान्तिक घृत पीना इन दो प्रयोग विधियों का नाम अवपीडक है। विश्लेषण : प्राग्भक्त इसका तात्पर्य भोजन के पहले घृतपीना है और जीर्णान्तिक का तात्पर्य पूर्णरूप से अन्न के पच जाने पर घी का पीना है। इस प्रकार घृत का पान उत्तम मात्रा में पीना चाहिये। उत्तम मात्रा का तात्पर्य जो घी की मात्रा दिन रात में अर्थात् 24 घंटे में पच जाय उसे उत्तम मात्रा कहते हैं यह मात्रा तोल के अनुसार नहीं बतायी गयी। 'इसका कारण यह है कि मानव अपने-अपने सुविधा के अनुसार घृत का सेवन करते हैं जिस मात्रा में घृत का सेवन किया जाता है वह प्रकृति के अनुकूल बन जाता है। उसका पाचन अन्न की तरह 4 या 5 घंटे में हो जाता है। उस व्यक्ति को इतना घृत पिलाना चाहिये तिसका पाचन 24 घंटे में हो जाय। यहां इन दो प्रयोगों का नाम अवपीडक बताया है। और इस ग्रंथ में जहाँ-जहाँ अवपीडक यह शब्द आता है वहाँ वहाँ स्नेह पीने की इस विधि का नाम अवपीडक कहा जाता है। इस प्रकार मूत्र वेगरोध जन्य रोगों में घृत का ही पान कराया जाता है। यद्यपि मूत्र वेग रोध से अपान आयु ही कुपित होता है और वात दोष को दूर करने के लिये तेल उत्तम औषध माना गया है, फिर भी उसका प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि वात दोष को दूर करते हुए तेल-विवध्न्ध और अल्प मूत्र को उत्पन्न करने वाला होता है, इसलिये यहाँ तेल का पीना नहीं बताया, अन्य कारणों से वात के कुपित होने पर तेल का प्रयोग ही उत्तम है, केवल मूत्र वेग रोध जन्य प्रकृपित वात में घृत का सेवन कराया जाता है। धाररगात्पुनः ।। उद्गारस्यारूचिः कम्पोविबन्धो हृदयोरसोः । आध्मानकासहिध्माश्च हिध्मावत्तत्र भेषजम् ।। अर्थ : उद्गार वेग रोध से हानि-आते हुये उद्‌गार के वेग को रोक देने से भोजन में अरूचि, शरीर में कम्प, हृदय और वक्ष प्रदेश में विबन्ध अर्थात् जकड़ाहट आध्मानकास और हिचकी रोग हो जाता है। इस विकृति में हिक्का रोग की तरह चिकित्सा की जाती है। अर्थात् धूम्रपान, नस्य का प्रयोग किया जाता है। *आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।* ----------------------------------------------- *समिति के सभी संदेश नियमित पढ़ने हेतु निम्न व्हाट्सएप चैनल को फॉलो किजिए ॥🙏🚩⛳* https://whatsapp.com/channel/0029VaHUKkCHLHQSkqRYRH2a ▬▬▬▬▬▬๑⁂❋⁂๑▬▬▬▬▬▬ *जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें* भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ *भगवान गणेश जी की जय* *⛳⚜सनातन धर्मरक्षक समिति⚜⛳*

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