⛳सनातन धर्मरक्षक समिति⛳
June 15, 2025 at 02:30 AM
*┈┉सनातन धर्म की जय,हिंदू ही सनातनी है┉┈*
*लेख क्र.-सधस/२०८२/आषाढ़/कृ./४-१८२२१*
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⛳🚩🚩🛕 *जय श्रीराम* 🛕🚩🚩⛳
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🙏 *श्रीराम – जय राम – जय जय राम* 🙏
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🌞 *श्रीरामचरितमानस* 🌞
🕉️ *सप्तम सोपान* 🕉️
☸️ *उत्तर काण्ड*☸️
⛳ *चौपाई १ से ५, दोहा ७३ क, ख*⛳
*असि रघुपति लीला उरगारी । दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥ जे मति मलिन बिषयबस कामी । प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी ॥*
हे गरुड़जी ! ऐसी ही श्रीरघुनाथजी की यह लीला है, जो राक्षसों को विशेष मोहित करने वाली और भक्तों को सुख देनेवाली है। हे स्वामी! जो मनुष्य मलिनबुद्धि, विषयों के वश और कामी हैं, वे ही प्रभु पर इस प्रकार मोह का आरोप करते हैं ॥ १ ॥
*नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥ जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा । सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥*
जब जिसको [कवँल आदि] नेत्रदोष होता है, तब वह चन्द्रमा को पीले रंग का कहता है। हे पक्षिराज ! जब जिसे दिशाभ्रम होता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उदय हुआ है ॥ २ ॥
*नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोहबस आपुहि लेखा ॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥*
नौका पर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत् को चलता हुआ देखता है और मोहवश अपने को अचल समझता है। बालक घूमते (चक्राकार दौड़ते) हैं, घर आदि नहीं घूमते। पर वे आपस में एक-दूसरे को झूठा कहते हैं ॥ ३ ॥
*हरि बिषइक अस मोह बिहंगा । सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥ मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥*
हे गरुड़जी ! श्रीहरि के विषय में मोह की कल्पना भी ऐसी ही है, भगवान् में तो स्वप्न में भी अज्ञान का प्रसंग (अवसर) नहीं है। किन्तु जो माया के वश, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय पर अनेकों प्रकार के परदे पड़े हैं, ॥४॥
*ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं ॥*
वे मूर्ख हठ के वश होकर सन्देह करते हैं और अपना अज्ञान श्रीरामजी पर आरोपित करते हैं ॥ ५ ॥
*दोहा*
*काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप। ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ ७३ (क) ॥*
जो काम, क्रोध, मद और लोभ में रत हैं और दुःखरूप घर में आसक्त हैं, वे श्रीरघुनाथजी को कैसे जान सकते हैं? वे मूर्ख तो अन्धकाररूपी कुएँ में पड़े हुए हैं ॥ ७३ (क) ॥
*निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ७३ (ख) ॥*
निर्गुण रूप अत्यन्त सुलभ (सहज ही समझ में आ जानेवाला) है, परन्तु [गुणातीत दिव्य] सगुण रूप को कोई नहीं जानता। इसलिये उन सगुण भगवान् के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है ॥ ७३ (ख) ॥
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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
*सूर्यदेव भगवान जी की जय*
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