⛳सनातन धर्मरक्षक समिति⛳
June 16, 2025 at 08:41 AM
*┈┉सनातन धर्म की जय,हिंदू ही सनातनी है┉┈*
*लेख क्र.-सधस/२०८२/आषाढ़/कृ./५-१८२३७*
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🟠 *स्वदेशी चिकित्सा* 🟠
*आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्*
भिषजः शोधनं प्राहुः वर्ज्य स्वस्थेन सर्वदा। पन्नगस्येव धोरस्य वेगं च समुदोरणम् ।।
अर्थ : इस प्रकार स्वस्थ व्यक्तियों के लिए शोधन का निषेध किया गया है, इस विरोध को देखकर स्वस्थ की कल्पना दो प्रकार से की जाती है। एक सचित दोष और दूसरा असंचित दोष। संचित दोष स्वस्थ व्यक्तियों के लिए यहाँ शोधन का विधान है। न कि असंचित दोष-स्वस्थ के लिये जहाँ स्वस्थ व्यक्तियों के लिए शोधन का निषेध है असंचित दोष ही लिए जाते हैं। कुछ लोग संचित दोष व्यक्तियों में दोष के बढ़ जाने से दोष वैषम्य को रोग नहीं माना है। इसलिए रोगी व्यक्तियों में ही शोधन का विधान बताते हैं, पर यह युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता क्योंकि संचय प्रकोप प्रसर स्थानसंश्रय पूर्वक रोग होता है, संच य अवस्था में किसी रोग की उत्पत्ति नहीं होती है, क्यांकि संचय दोषों का अपने-अपने स्थानों में होता है, केवल दोषों की वृद्धि के कारणों में द्वेष और दोंषों के विपरीत वस्तुओं की लेने की इच्छा होती है, पर अन्य कोई कष्ट उसको नहीं होता है इसलिये इसे स्वस्थ ही माना जाता है, अतः संचित दोषों का स्वस्थ व्यक्तियों के लिए यथा समय मलों का शोधन करना चाहिये। यदि वह अपने अपने स्थानों में संचय होता है तो प्रकोप प्रसर आदि क्रिया काल को प्राप्त कर रोग उत्पन्न करता है। इसलिये 'संचेय ९ पहृता दोषा लभन्ते नोत्तरोगतिः' बताया गया है।
*आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।*
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पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
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