Islamic Theology
                                
                            
                            
                    
                                
                                
                                June 2, 2025 at 04:32 PM
                               
                            
                        
                            अरफ़ा का रोज़ा जुमा के दिन आ जाए तो??
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अरफ़ा, नौ ज़ुल-हिज्जा अगर जुमा को आ जाए तो क्या अकेला जुमा का रोज़ा रख सकते हैं? क्यों कि रसूलुल्लाह ﷺ ने अकेला जुमा का रोज़ा रखने से मना किया है, जैसा कि सय्यदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया :
"दिनों में से जुमा के दिन को रोज़े से ख़ास न करो।"
(सहीह मुस्लिम : 1144)
इसी तरह आप ﷺ ने फ़रमाया :
"आप में से कोई भी जुमा के दिन रोज़ा न रखे, सिवाय इसके कि उस से एक दिन पहले और एक दिन बाद भी साथ रोज़ा रखता हो।"
(सहीह बुख़ारी : 1985)
याद रखें कि इस हदीस में जुमा के दिन की ख़ास फ़ज़ीलत समझ कर उस दिन का रोज़ा रखने से मना किया गया है, लेकिन यह मुमानअत (मनाही/प्रतिबंधित) उस सूरत में ख़त्म हो जाती है जब रोज़े का मक़सद जुमा का दिन ख़ास करना न हो, बल्कि बन्दा किसी दूसरी फ़ज़ीलत की वजह से रोज़ा रखे। क्यों कि मुमानअत की हदीस में ही है कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया :
"सिवाय इस के कि तुम में से जो कोई पहले से रोज़े रख रहा हो।"
(सहीह मुस्लिम : 1144)
✿ जैसा कि अल्लामा अबू अल-अब्बास क़ुर्तबी रहिमहुल्लाह (656 हिजरी) फ़रमाते हैं :
"इस हदीस का मक़सद यह है कि जुमा के दिन को रोज़े के लिए ख़ास न किया जाए इस ए‘तिक़ाद के साथ कि उसका रोज़ा वाजिब है, या इस लिए कि लोग इस दिन की ता’ज़ीम में वही तरीक़ा इख़्तियार न कर लें जो यहूद ने अपने हफ़्ते के दिन के बारे में इख़्तियार किया था; यानी उनका तमाम कामों को छोड़ देना और सिर्फ़ उस दिन की ता’ज़ीम के लिए उसे ख़ास कर लेना।"
(अल-मुफ़्हिम : 3/201)
✿ इसी तरह हाफ़िज़ इब्न क़ुदामा रहिमहुल्लाह (620 हिजरी) फ़रमाते हैं :
"जुमा के दिन को अकेले रोज़ा रखने के लिए मख़सूस करना मक्रूह है, इल्ला ये कि वह रोज़ा किसी ऐसे मामूल के मुताबिक़ हो जिसे वह पहले से रखता हो, जैसे वह शख़्स जो एक दिन रोज़ा रखता है और एक दिन इफ़्तार करता है, और इत्तिफ़ाक़ से जुमा का दिन उसके रोज़े के दिन में आ जाए, या वह शख़्स जिसकी आदत महीने के पहले दिन, या आख़िरी दिन, या निस्फ़ (बीच) में रोज़ा रखने की हो, या इसी तरह के दूसरे मामूलात हों।"
(अल-मुग़नी : 3/170)
✿ इमाम अहमद बिन हंबल रहिमहुल्लाह (241 हिजरी) फ़रमाते हैं:
"अगर अरफ़ा, जुमा के दिन हो, और बन्दे ने पिछले दिन रोज़ा न रखा हो, तो भी वह जुमा के दिन (यानी यौमे अरफ़ा) का रोज़ा रखेगा।"
(अत-तअलीक़ा अल-कबीरा लि अबी यअला : 2/122)
✿ इसी तरह इमाम अहमद रहिमहुल्लाह से पूछा गया, कि बन्दा एक दिन रोज़ा रखता हो और एक दिन छोड़ता हो, तो उसके छोड़ने का दिन जुमेरात हो, जुमा रोज़े का दिन हो और शनिवार फिर छोड़ने का दिन हो तो क्या यह अकेला जुमा का रोज़ा रखेगा?
तो उन्होंने फ़रमाया :
"उसने जान-बूझ कर जुमा को ख़ास कर के रोज़ा नहीं रखा, जबकि मक्रूह तब है जब जान-बूझ कर ख़ास कर के उसका रोज़ा रखें।"
(अल-मुग़नी : 3/170)
✿ सऊदी फ़तवा कमेटी के उलमा से इस बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने फ़रमाया :
"यौमे अरफ़ा का रोज़ा रखना मशरू है चाहे यह जुमा के दिन आ जाए, अगरचे उस से एक दिन पहले रोज़ा न रखा हो; क्यों कि नबी करीम ﷺ से इस दिन के रोज़े की तरग़ीब, इसकी फ़ज़ीलत और अज़ीम अज्र के बारे में अहादीस साबित हैं। रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया :
"यौमे अरफ़ा का रोज़ा दो साल के गुनाहों का कफ़्फ़ारा बन जाता है, एक गुज़िश्ता साल का और एक आने वाले साल का, और आशूरा के दिन का रोज़ा गुज़िश्ता एक साल के गुनाहों का कफ़्फ़ारा है।"
(सहीह मुस्लिम : 1162)
यह हदीस उस उ‘म्मूमी हदीस की तख़सीस करती है जिसमें फ़रमाया गया :
"तुम में से कोई जुमा के दिन रोज़ा न रखे, इल्ला ये कि वह उस से एक दिन पहले या एक दिन बाद भी रोज़ा रखे।"
(सहीह बुख़ारी : 1985, सहीह मुस्लिम : 1144)
✿ इस 'उमूमी मुमानअत को उस सूरत पर महमूल किया जाएगा जब कोई शख़्स महज़ जुमा के दिन के ए‘तिबार से रोज़ा रखे।
अलबत्ता अगर कोई शख़्स किसी ऐसे सबब से रोज़ा रखे जिसकी शरीअत ने तरग़ीब दी हो, तो ऐसा रोज़ा रखना ममनू नहीं बल्कि मशरू है, अगरचे उसने जुमा को अकेले रोज़ा रखा हो।
लेकिन अगर वह उस से एक दिन पहले भी रोज़ा रख ले तो यह अफ़ज़ल होगा; इसमें दोनों हदीसों पर अमल की एहतियात भी है और अज्र व सवाब में इज़ाफ़ा का बाइस भी है।"
(फ़तावा अल-लज्ना अद-दा’इमा - अल-मजमूआ अल-ऊला : 10/395)
✅हासिल-ए-कलाम यह है कि अगर अरफ़ा का रोज़ा जुमा के दिन आ जाए तो इस दिन रोज़ा रखा जा सकता है, इस से पहले या बाद में कोई रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं और न ही यह उसके रोज़े की मुमानअत में शामिल है।
वल्लाहु अअलम।
...हाफ़िज़ मुहम्मद ताहिर हाफ़िज़ाहुल्लाह