Islamic Theology
                                
                            
                            
                    
                                
                                
                                June 20, 2025 at 03:44 AM
                               
                            
                        
                            हमने दीन को मस्जिदों की दीवारों, दुकानों के साइन बोर्डों, और सोशल मीडिया की पोस्टों पर लिख दिया है...
मगर अपने दिल, अमल और किरदार से निकाल दिया है।
दुकान पर "सदक़ा-ख़ैरात क़बूल है" लिखा है,
मगर तौल में कमी और क़ीमत में ज़ुल्म है।
घर के दरवाज़े पर "मा शा अल्लाह" लगा है,
मगर अंदर रिश्ते टूटे हुए हैं, दिल ज़ख़्मी हैं।
कुरआन दिल में उतरा ही नहीं — सिर्फ़ ताक़ पर रखा है।
और नमाज़ बस आदत बन चुकी है, इबादत नहीं।
अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:
“ये सिर्फ़ ज़बानी बातें करते हैं, दिल उनके साथ नहीं होते।”
(सूरह तौबा)
इस्लामी सच्चाई पर आधारित जुम्ला:
दीन दीवारों पर नहीं चलता... दिलों से जीता जाता है।
                        
                    
                    
                    
                    
                    
                                    
                                        
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