
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
June 16, 2025 at 12:13 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित*
*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*
*क्रमांक~ ०२*
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*`!! श्रीमद्भागवत महापुराण !!`*
`{अष्टम स्कन्ध}`
*【 त्रयोविंशति: अध्याय:】*
*_बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना...._*
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं—* जब सनातन पुरुष भगवान्ने इस प्रकार कहा, *तो साधुओं के आदरणीय महानुभाव दैत्यराज के नेत्रों में आँसू छलक आये।* प्रेम के उद्रेक से उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से भगवान् से लगे–
*बलिने कहा-* प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, *केवल प्रणाम करने मात्र की चेष्टा भर की। उसी से मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणों के शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है।* बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओं पर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ जैसे नीच असुर को सहज ही प्राप्त हो गयी।
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं–* परीक्षित! यों कहते ही बलि *वरुण के पाशों से मुक्त हो गये।* तब उन्होंने भगवान्, ब्रह्माजी और शङ्करजी को प्रणाम किया और *इसके बाद बड़ी प्रसन्नता से असुरों के साथ सुतल लोक की यात्रा की।* इस प्रकार भगवान् ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को दे दिया, *अदिति की कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत् का शासन करने लगे।* जब प्रह्लाद ने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धन से छूट गये *और उन्हें भगवान्का कृपा प्रसाद प्राप्त हो गया, तो वे भक्ति भाव से भर गये।* उस समय उन्होंने भगवान्की इस प्रकार स्तुति की।
*प्रह्लादजीने कहा–* प्रभो! यह कृपाप्रसाद तो कभी *ब्रह्माजी, लक्ष्मीजी और शङ्करजी को भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरों की बात ही क्या है।* अहो! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते रहते हैं, *वही आप हम असुरों के दुर्गपाल - किलेदार हो गये।* शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके *चरणकमलों का मकरन्द-रस सेवन करने के कारण सृष्टि रचना की* शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हमलोग तो जन्म से ही खल और कुमार्गगामी हैं, *हम पर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये।* आपने अपनी योगमाया से खेल ही खेल में त्रिभुवन की रचना कर दी। *आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं।* फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; *क्योंकि आप अपने भक्तों से अत्यन्त प्रेम करते है।* इसी से कभी-कभी उपासकों के प्रति पक्षपात और विमुखों के प्रति निर्दयता भी आपमें देखी जाती है।
*श्रीभगवान्ने कहा-* बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। *अब तुम भी सुतल लोक में जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलि के साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति बन्धुओं को सुखी करो।* वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथ में लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शन के परमानन्दमें मग्न रहने के कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायेंगे।
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं—* परीक्षित्! समस्त दैत्यसेना के स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजी ने *'जो आज्ञा' कहकर, हाथ जोड़, भगवान्का आदेश मस्तक पर चढ़ाया।* फिर उन्होंने बलि के साथ आदिपुरुष भगवान्की परिक्रमा की, *उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोक की यात्रा की।* परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीहरि ने ब्रह्मवादी ऋत्विजों की सभा में अपने पास ही बैठे हुए *शुक्राचार्यजी से कहा– 'ब्रह्मन् ! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये।* क्योंकि कर्म करने में जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणों की कृपा दृष्टि से सुधर जाती है।
*शुक्राचार्यजीने कहा-* भगवन्! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकार से यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष आपकी पूजा की है— *उसके कर्म में कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है ?* क्योंकि मन्त्रों की, अनुष्ठान-पद्धति , देश, काल, पात्र और वस्तु की सारी भूले आपके नाम संकीर्तन मात्र से सुधर जाती है, *आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है। तथापि अनन्त ! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा का अवश्य पालन करूँगा।* मनुष्य के लिये सबसे बड़ा कल्याण का साधन यही है कि वह आपकी आज्ञा का पालन करे।
*श्रीशुकदेवजी कहते हैं-* भगवान् शुक्राचार्य ने भगवान् श्रीहरि की यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रहार्षियों के साथ, *बलि के यज्ञ में जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया।* परीक्षित्! इस प्रकार वामन भगवान्ने बलि से पृथ्वी की भिक्षा माँगकर *अपने बड़े भाई इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओं ने छीन लिया था।* इसके बाद प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अङ्ग, सनत्कुमार और शङ्करजी के साथ *कश्यप एवं अदिति की प्रसन्नता के लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अभ्युदय के लिये समस्त लोक और लोकपालों के स्वामी के पद पर वामनभगवान् का अभिषेक कर दिया।*
परीक्षित्! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मङ्गल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग-सबके रक्षक के रूप में *सबके परम कल्याण के लिये सर्वशक्तिमान् वामन भगवान्को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया।* उस समय सभी प्राणियों को अत्यन्त आनन्द हुआ। इसके बाद ब्रह्माजी की अनुमति से लोकपालों के साथ *देवराज इन्द्र ने वामन भगवान्को सबसे आगे विमान पर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये।* इन्द्र को एक तो त्रिभुवनका राज्य मिल गया और दूसरे, *वामन भगवान् के करकमलों की छत्रछाया !* सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर *आनन्दोत्सव मनाने लगे।* ब्रह्मा, शङ्कर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और *विमानारोही देवगण भगवान् के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्म का गान करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये* और सबने अदिति की भी बड़ी प्रशंसा की।
*परीक्षित्! तुम्हें मैंने भगवान्की यह सब लीला सुनायी।* इससे सुनने वालों के सारे पाप छूट जाते हैं। *भगवान्की लीलाएँ अनन्त है, उनकी महिमा अपार है।* जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वी के परमाणुओं को गिन डालना चाहता है। *भगवान् के सम्बन्ध में मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठ ने वेदों में कहा है कि 'ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान्को महिमा का पार पा सके।* देवताओं के आराध्यदेव अद्भुतलीलाधारी वामनभगवान् के अवतार चरित्र का जो श्रवण करता है, *उसे परम गति की प्राप्ति होती है।* देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ किसी भी कर्म का अनुष्ठान करते समय जहाँ जहाँ *भगवान् की इस लीला का कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओं का अनुभव है॥*
*।। इस प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण के अष्टम स्कंध का तेईसवां अध्याय पूरा हुआ।।*
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏🏻🙏🏻*
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