
अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳
June 17, 2025 at 04:22 AM
*"अखिल विश्व अखण्ड सनातन सेवा फाउंडेशन"*(पंजीकृत) *द्वारा संचालित*
*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*
*क्रमांक~ ०६*
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*_मेरा सनातन धर्म :विश्व का सबसे श्रेष्ठ व प्राचीन धर्म...(भाग~ 2)_*
*सनातन धर्म की विशेषताएं*
*`कृण्वन्तो विश्वमार्यम’`*
*अर्थात सारी दुनिया को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाएंगे।*
*कल से आगे-----*
*`जीवन जीने की कला :` जिंदगी जीना एक महत्वपूर्ण विद्या है। अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में यदि कीमती गाड़ी दे दी जाए तो उसकी दुर्गति ही होगी। दरअसल, यह शतरंज और सांप-सीढ़ी के खेल की तरह भी है। इस खेल में आपके ज्ञान, बुद्धि, विश्वास के अलावा आपकी इच्छा का योगदान होता है। सही ज्ञान और पूर्ण विश्वास के साथ सकारात्मक इच्छा नहीं है तो आप हारते जाएंगे।*
*यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन को एक संघर्ष मानते हैं जबकि हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन एक उत्सव है। संघर्ष तो स्वत: ही सामने आते रहते हैं या तुम अपने जीवन को संघर्षपूर्ण बना लेते हो। लेकिन जीवन को उत्सवपूर्ण बनाना ही जीवन जीने की कला का हिस्सा है। गीत, भजन, नृत्य, संगीत और कला का धर्म में उल्लेख इसीलिए मिलता है कि जीवन एक उत्सव है जबकि कुछ धर्मों में नृत्य, संगीत और कला पर रोक है। ऐसा माना जाता है कि इससे समाज बिगाड़ का शिकार हो जाता है। इस डर से लोगों से उनका वह आनंद छीन लो, जो उनको परमात्मा ने या इस प्रकृति ने दिया है।*
*हिन्दू धर्म मानता है कि जीवन ही है प्रभु। जीवन की खोज करो। जीवन को सुंदर से सुंदर बनाओ। इसमें सत्यता, शुभता, सुंदरता, खुशियां, प्रेम, उत्सव, सकारात्मकता और ऐश्वर्यता को भर दो। लेकिन इन सभी के लिए जरूरी नियमों की भी जरूरत होती है अन्यथा यही सब अनैतिकता में बदल जाते हैं।*
*`जीवन के 4 पुरुषार्थ हैं-` धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चारों पुरुषार्थों की चारों आश्रमों में जरूरत होती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए ही चारों पुरुषार्थों का जो ज्ञान प्राप्त कर लेता है वही सही मार्ग पर आ जाता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए। मोक्ष को धर्म से साधा जा सकता है। धर्म के ज्ञान के बगैर सांसारिक जीवन अव्यवस्थित और अराजक होता है। अराजक जीवन ही संघर्ष को जन्म देता है। दूसरी ओर अर्थ बिना सब व्यर्थ है। हर तरह की सांसारिक कामना अर्थ से ही पूर्ण होती है।*
*मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो। मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान, शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा।*
*`अनुशासन और कर्तव्य पालन जरूरी :` इसके अलावा हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है। जैसे 1. संध्यावंदन (वैदिक प्रार्थना और ध्यान), 2. तीर्थ (चारधाम), 3. दान (अन्न, वस्त्र और धन), 4. व्रत (श्रावण मास, एकादशी, प्रदोष), 5. पर्व (शिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और कुंभ), 6. संस्कार (16 संस्कार), 7. पंच यज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ-श्राद्धकर्म, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ), 8. देश-धर्म सेवा, 9. वेद-गीता पाठ और 10. ईश्वर प्राणिधान (एक ईश्वर के प्रति समर्पण)।*
*उपरोक्त सभी कार्यों से जीवन में एक अनुशासन और समरसता का विकास होता है। इससे जीवन सफल, सेहतमंद, शांतिमय और समृद्धिपूर्ण बनता है अत: हिन्दू धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है।*
*`स्वतंत्रता :` संसार में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म हैं। एक कर्म-प्रधान दूसरे विश्वास-प्रधान। हिन्दू धर्म कर्म-प्रधान है, अहिन्दू धर्म विश्वास-प्रधान। जैन, बौद्ध, सिख ये तीनों हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। इस्लाम, ईसाई, यहूदी ये तीनों अहिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। हिन्दू धर्म लोगों को निज विश्वासानुसार ईश्वर या देवी-देवताओं को मानने व पूजने की और यदि विश्वास न हो तो न मानने व न पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अहिन्दू धर्म में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। अहिन्दू धर्म अपने अनुयायियों को किसी विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर विश्वास करने के लिए बाध्य या विवश करता है। विद्वान व दूरदर्शी लोग भली-भांति जानते हैं कि सांसारिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र विचारों की कितनी बड़ी आवश्यकता रहती है।*
*हिन्दू धर्म व्यक्ति स्वतंत्रता को महत्व देता है, जबकि दूसरे धर्मों में सामाजिक बंधन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू हैं। आप ईशनिंदा नहीं कर सकते और आप समाज के नियमों का उल्लंघन करके अपने तरीके से जीवन-यापन भी नहीं कर सकते। मनुष्यों को सामाजिक बंधन में किसी नियम के द्वारा बांधना अनैतिकता और अव्यावहारिकता है। ऐसा जीवन घुटन से भरा तो होता ही है और समाज में प्रतिभा का भी नाश हो जाता है।*
*कल भी जारी रहेगा - - -*
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