
Abu Muhammad ابو محمد
June 10, 2025 at 02:08 PM
*"क़ुर्बानी, रीमा हसन मुबारक की"*
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रीमा हसन मुबारक, यह सिर्फ एक नाम नहीं है, बल्कि एक आवाज़ है जो उस सन्नाटे को चीरती है, जिसमें दुनिया ने ग़ाज़ा की चीखें दबा दी हैं।
*यह वो आवाज़ है, जो कहती है कि जब दुनिया आंखें फेर ले, तब भी इंसानियत की लौ बुझनी नहीं चाहिए।*
रीमा कोई आम नेता नहीं हैं। वो यूरोपियन पार्लियामेंट की सदस्य होते हुए भी अपनी कुर्सी पर नहीं बैठीं, बल्कि ग़ाज़ा की ज़मीन पर, जलते हुए वजूदों के साथ खड़ी हुईं।
*उन्होंने सिर्फ भाषण नहीं दिए, बल्कि अपने पांव उन गलियों में रखे जहां खून के छींटे इतिहास की पर्तों को लहू-लुहान करते हैं।*
ग्रेटा थुनबर्ग, पर्यावरण की आवाज़ बनकर आई थीं और ग़ाज़ा पहुंचीं।
ज़ायनिस्ट ताक़तों ने उन्हें और उनके साथियों को गिरफ़्तार किया। ग्रेटा ने दस्तावेज़ों पर दस्तखत किए और उन्हें डिपोर्ट कर दिया गया।
लेकिन रीमा हसन मुबारक उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने ज़मीर को ज़ंजीर बनने नहीं दिया। उन्होंने कहा,
*"अगर इंक़लाब की सज़ा है क़ैद, तो मैं हर बार उस दरवाज़े पर जाऊंगी जहाँ से चीखें आती हैं।"*
*क्योंकि उन्हें मालुम था कि यह महज़ एक दस्तख़त नहीं है,*
*बल्कि यह ज़मीर की मौत का सर्टिफ़िकेट है।*
इसलिए उन्होंने तय किया, जब तक एक भी फलस्तीनी बच्चा युद्ध के मलबे में दबा रोता है, जब तक एक भी माँ अपने बेटे की लाश उठाती है, जब तक एक भी शिविर में रोटियों से पहले इंसानियत की भीख माँगी जाती है, तब तक चुप रहना जुर्म है।
और उनके इस इनकार की सज़ा भी तय थी, उन्हें रामल्ला स्थित गिवॉन डिटेंशन सेंटर ले जाया गया। लेकिन क्या कोई डिटेंशन सेंटर उस आवाज़ को बंद कर सकता है जो दरअसल पूरी दुनिया की बेज़ुबानों की नुमाइंदगी कर रही है ?
*उनकी यह गिरफ़्तारी उनकी हार नहीं है।*
*बल्कि एक मैसेज है..*
*कि ताक़त से किसी की आवाज़ बंद की जा सकती है,* *पर विचारों की चिंगारी बुझाई नहीं जा सकती।*
रीमा हसन हर उस माँ की बहन हैं जिसने अपने बच्चे का शव दफ़नाते हुए भी दुनिया से सिर्फ इंसाफ माँगा था।
*आज इंसानियत को रीमा से सीखने की ज़रूरत है कि प्रतिरोध केवल नारे या बंदूकों से नहीं होता।*
*कभी-कभी प्रतिरोध होता है....*
*एक दस्तख़त से इंकार में,*
*एक विचार से प्रतिबद्धता में,*
*और डटकर खड़े रहने से।*
*रीमा हसन मुबारक आज सिर्फ एक शख़्स नहीं हैं.....*
*वह इंसानियत की आइना हैं।*
यह महज एक लेख नहीं है, बल्कि यह हमारे ज़मीर की कसौटी है। क्या हम रीमा की तरह सच्चाई के साथ खड़े हो सकते हैं ?
*बातें तो सभी कर लेते हैं, लेकिन हम सभी खुद को रीना की जगह रखकर उनकी ग़ौर जरूर करें।*
क्या हम भी एक दिन ऐसी हिम्मत पैदा कर पाएंगे जो सत्ता के कागज़ात पर अपनी रिहाई और स्वार्थ को लात मारकर, केवल इंसानियत और मजलूमों की भलाई के लिए दस्तख़त करने से इनकार कर सके ?
*रीमा हसन ने हमें सिखाया है.....*
*गिरफ़्तार जिस्म हो सकता है, लेकिन जो आत्मा इंक़लाब में पिघल चुकी हो, उसे कोई क़ैद नहीं कर सकता।*

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