Abu Muhammad ابو محمد
Abu Muhammad ابو محمد
June 18, 2025 at 05:07 AM
*"ज़बान से निकलते फतवों का बोझ"* ""'"""""""'''""""""""""''""'""""""""""""""""""""""" एक जमाना था जब मुसलमान अपने अमल और अख़लाक से पहचाने जाते थे। आज का दौर है कि मुसलमान अपनी ज़बान और इल्ज़ामात से मशहूर हो रहे हैं। *अल्लाह ने हमें एक उम्मत बनाया है, लेकिन यह उम्मत इस तरह तिनकों तिनकों में बिखरी है कि आपस में बातचीत करने का शऊर तक बाकी नहीं रहा है।* *"तू गुमराह है", "तू मुशरिक़ है", "तू मुनाफ़िक़ है", "तू काफ़िर है!"* ये अल्फ़ाज़ आज सोशल मीडिया की स्क्रीन से लेकर मस्जिदों के मिंबर तक गूंज रहे हैं। आज यह बातें बड़े बड़े स्टेज सजाकर भी की जाती है, और दीन की बातों के नाम होता है एक दूसरे को ज़लील करना, काफ़िर और मुशरिक कहना। *एक दूसरे को उन उलमाओं को भी गालियां बकी जाती है जो अब इस दुनिया में भी नहीं हैं।* *कितना गिर चुके हैं हम ?* लेकिन क्या हमने कभी एक लम्हा रुककर सोचा है कि ये जुमले किसी के लिए नहीं, हमारी अपनी तबाही का वसीला भी बन सकते हैं? *रसूलुल्लाह ﷺ की हदीस क्या कहती है?* *"अगर कोई किसी को फासिक़ या काफ़िर कहे, और वह वैसा नहीं हुआ, तो वह इल्ज़ाम खुद इल्ज़ाम लगाने वाले पर लौट आता है।"* (सहीह बुख़ारी: 6045) ये कोई मामूली बात नहीं है, भाई। यह तो वह आग है जो ज़बान से निकलकर क़ब्र तक साथ जाती है। क्या एक यकीन वाला इंसान ऐसी भी गफलत बरत सकता है ? *सहाबा (रज़ि.) जो जन्नत की गारंटी पाए हुए थे, कभी भी किसी के ईमान पर फतवा नहीं देते थे जब तक कि मामला बिलकुल साफ न हो जाए।* *और हम?* हम तो फेसबुक के एक पोस्ट, व्हाट्सऐप के एक मैसेज या किसी यूट्यूब क्लिप की बुनियाद पर किसी को काफ़िर, मुशरिक़, या बिदअती बना देते हैं। *इख़्तिलाफ़ होता है, लेकिन हम तो इख़्तिलाफ़ का अदब तक भूल चुके हैं।* *इख़्तिलाफ़ होता किसी की बात से, लेकिन हम उस इंसान से ही नफ़रत करने लगते हैं।* *और यहां तक कि अनाप शनाप गालियां तक बक देते हैं।* *क्या मुसलमान ऐसा भी होता है ?* क्या हमने कभी खुद पर भी ग़ौर किया है ? *क्या हम अपनी ज़िन्दगी को प्यारे आका सल्लल्लाहो अलैहिवसल्लम और सहाबा की ज़िन्दगी से मिला सकते हैं ?* *क्या हमारे अपने घर में, हमारे मामलात में, हमारी जिन्दगी में नबी ﷺ की सुन्नतें कायम हैं ?* *क्या हमारी नज़रों में हया है, लहजे में अदब है, दिल में तक़वा है ?* *अगर ईमानदारी के साथ हम अपनी जिन्दगी पर गौर करेगें, तो दुनिया के सबसे बड़े गुनहगार के तौर पर खुद को ही पायेगें ।* अगर किसी भाई में बद्दीनी नजर आ रही है, लगता है उसका रास्ता ग़लत हैं। तो उसके साथ हुस्न-ए-सुलूक करो, उसके घर परिवार की फ़िक्र करो। और फिर उसे नसीहत करो, लेकिन हिकमत और मुहब्बत के साथ। *लेकिन अफसोस हम समझाते नहीं है, बल्कि नसीहत के नाम पर ताना देते हैं और समझाने के नाम पर ज़लील करते हैं, और इसके बाद काफ़िर और मुशरिक का सार्टिफिकेट।* हमें किसी के ईमान का फैसला करने से पहले अपने तक़वे और अख़लाक को देखना होगा। क्या हम खुद उस जन्नत के लायक हैं जिसका दावा कर रहे हैं ? जिस जन्नत के लिए सहाबा ने अपने घर-बार छोड़े, जानें कुर्बान कीं, क्या हमने भी वो अमल किए हैं ? *जन्नत मिलती है जिसके अंदर रहमत हो, इंसानियत का दर्द हो, एक दूसरे के खैर और भलाई का जज़्बा हो, सब्र हो, दुआ हो और सबसे बढ़कर अल्लाह का डर हो।* अपने किसी भी भाई गुमराही और ग़लत बात पर दुख होना चाहिए, उसकी फिक्र होनी चाहिए, उसके लिए तड़प होनी चाहिए, वह हमसाया है, उम्मत का हिस्सा है। "ऐ अल्लाह! हमारी ज़बानों को दूसरों की बुराई से, हमारे दिलों को घमंड से, और हमारे आमाल को दिखावे से महफूज़ फ़रमा। और हमें वह नजर दे जो खुद को सबसे पहले देखे, और दूसरों के लिए दुआ करे। आमीन।
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