Abu Muhammad ابو محمد
Abu Muhammad ابو محمد
June 21, 2025 at 12:49 AM
*"ग़ज़ा की चीख़: युद्ध नहीं, यह इंसानियत का इम्तिहान है"* "जब कोई अपना सब कुछ खो चुका हो, तो उसके पास खोने के लिए सिर्फ़ ज़िंदगी बचती है । और ग़ज़ा में आज वही छीनी जा रही है। *ग़ज़ा आज किसी सैन्य जंग का मैदान नहीं है, यह एक इंसानियत की कब्रगाह बन चुकी ज़मीन है, जहां न तो सेना है, न ही संगठित ताक़त, और न ही कोई सुरक्षा कवच।* ग़ज़ा के लोगों के पास अगर कुछ है, तो वह हैं जले हुए मकान, खून से रंगी गलियाँ, मलबों में तब्दील मस्जिदें, और माओं की गोद से छीन लिए गए बच्चे। वैसे तो फलस्तीन को इस अत्याचार को झेलते हुए पूरी एक सदी होने को है। लेकिन करीब एक साल आठ महीने से इज़राइल और ग़ज़ा के बीच यह संघर्ष लगातार चल रहा है, यह बराबरी की लड़ाई नहीं है, यह एक अत्यंत असंतुलित और अन्यायपूर्ण टकराव है। *जिसमें एक तरफ अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक सैन्य महाशक्ति है और दूसरी तरफ एक निहत्थी आबादी जो कभी स्कूल चलाती थी, कभी अस्पताल संभालती थी, और अब मलबों में अपने अपनों की लाशें ढूंढती है।* ग़ज़ा की अपनी कोई सेना नहीं है। जो थोड़े-बहुत हथियार हैं, वे पुराने और गैर-पेशेवर हैं। और इसके बावजूद भी उन पर की जा रही बमबारी इतनी जबरदस्त है कि अब शायद ही वहां कोई अस्पताल, मस्जिद या स्कूल सलामत हो। *अब तक कम से कम 60,000 लोगों की जान जा चुकी है, जिनमें 17,000 से अधिक मासूम बच्चे शामिल हैं। इनमें 931 बच्चे एक वर्ष से भी कम उम्र के थे और 356 बच्चों ने जन्म ही युद्ध के साये में लिया और वहीं दम तोड़ दिया।* *यह आंकड़े सिर्फ़ गिनती नहीं हैं, ये ग़ज़ा की टूटी हुई हड्डियों, सूनी माँ की गोद और खून में सने झूले की कहानी हैं।* मैंने यह आंकड़े लिखें और आपने पढ़ लिए, लेकिन जरा हम इन हालात को अपने और अपने बच्चों पर डालकर सोच सकते हैं ? *इलाज, शिक्षा और इबादत की बात तो दूर, ग़ज़ा के लोगों को अब रोटी भी नसीब नहीं हो रही।* *दो दिन पहले, सिर्फ खाना लेने की कतार में खड़े 66 लोगों को मार गिराया गया,* *और कल, कुछ जिंदा लोगों को जला दिया गया।* क्या यही है वह 'सुरक्षा' जिसकी दुहाई दी जा रही है ? क्या यही है वह 'मानवाधिकार' जिनकी बैठकों में चर्चा होती है, लेकिन जिनका खून बहता देख हर कोई चुप रहता है ? *इस दौर में जब मानवाधिकार सिर्फ राजनीतिक औज़ार बन चुके हैं, एक सवाल सीधा और साफ़ पूछा जाना चाहिए....* *क्या ग़ज़ा के लोगों को इंसान माना जाता है ?* *क्योंकि अगर उन्हें इंसान माना जाता, तो इतनी बेरहमी से उन्हें मिटाया नहीं जाता।* दुनिया भर में मानवाधिकारों की बात करने वालों को चाहिए कि सबसे पहले वो खुद इंसान बनें, क्योंकि अधिकारों की रक्षा वही कर सकता है, जो हर दर्द को अपना दर्द समझे, और हर आँसू को आँसू माने, चाहे वह किसी सरहद के इस पार हो या उस पार, वरना उसकी मानवता की बातें एक ढकोसला के सिवा और कुछ भी नहीं है। *ग़ज़ा का यह मंजर हमारी दुनिया की इंसानियत का आईना है...* *यह सिर्फ ग़ज़ा की पुकार नहीं है... यह इंसानियत की आख़िरी चीख़ है।* *क्या आप सुन रहे हैं ?* *A.R.Humanist...*
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