Muhammad Rihan Raza Mustafai
June 20, 2025 at 03:39 AM
🕯️ *एक इमाम का आख़िरी पैग़ाम — और हमारी कौम की खामोशी!* 🕯️
"इमाम ने फांसी लगा ली। सुसाइड नोट में लिखा — मैं कर्ज़ में डूब गया हूँ, मेरी लाश तीसरी मंज़िल पर मिलेगी।"
ये कोई कहानी नहीं, हक़ीक़त है।
चाईबासा (झारखंड) की एक मस्जिद में तैनात 31 वर्षीय इमाम मौलाना शाहनवाज़ अंसारी ने खुदकुशी कर ली। उनकी जेब से जो सुसाइड नोट मिला, उसमें सिर्फ़ कर्ज़, बेबसी और तंगहाली की चीख थी।
📉 10 से 12 हज़ार रुपये तनख्वाह में क्या एक इंसान अपने बीवी-बच्चों का पेट भर सकता है?
📦 क्या वो बिजली का बिल, बच्चों की फीस, कपड़े, इलाज, किराया — ये सब पूरा कर सकता है?
📉 क्या हम यह समझते हैं कि इमाम सिर्फ़ नमाज़ पढ़ाने वाली मशीन है?
❗ सच्चाई यह है कि मस्जिदों की कमेटियाँ आज भी 40-50 साल पुरानी सोच के साथ चल रही हैं।
नई मस्जिद बना लेना आसान है,
माइक्रोफोन, मट्टी, मीनार पर लाखों खर्च कर देना आसान है,
मगर इमाम की तनख्वाह बढ़ाना सबसे मुश्किल काम बन गया है!
📌 हम भूल गए हैं कि:
इमाम का भी घर होता है।
उसके भी बच्चे होते हैं जिनके सपने होते हैं।
उसे भी इंसान की तरह सुकून चाहिए, इज़्ज़त चाहिए, राहत चाहिए।
💔 मगर आज हालात ये हैं कि एक इमाम को अपने दुख खुद अपने गले में फांसी बनाकर हल करने पड़े।
💭 सोंचिए — अगर आज ये किसी मौलाना शाहनवाज़ के साथ हुआ है,
तो कल यह दर्द किसी और इमाम के गले का फंदा बन सकता है।
📣 अब वक़्त है कि हम चुप रहना बंद करें।
🔊 मस्जिद की कमेटियों से, मुस्लिम समाज से और हर जागरूक इंसान से अपील:
✅ इमामों की तनख्वाह इंसानी ज़रूरतों के मुताबिक तय की जाए।
✅ उनके लिए मेडिकल, बच्चों की शिक्षा और रहने का मुकम्मल इंतज़ाम किया जाए।
✅ कमेटियों में सिर्फ़ पैसेदार नहीं, दीनदार और समझदार लोग शामिल हों।
✅ हर मस्जिद अपने इमाम के हालात की रिपोर्ट बनाए — और उसे बेहतर करने के लिए क़दम उठाए।
📌 मस्जिद सिर्फ़ दीवारों से नहीं, इमाम की मौजूदगी से आबाद होती है।
अगर इमामों का ख्याल नहीं रखा गया, तो अल्लाह न करे, वो दिन दूर नहीं जब मस्जिदें तो होंगी — मगर इमाम नहीं होंगे।
🤲 "इमाम की तनख्वाह नहीं, उसका हक़ अदा करो — ताकि क़ौम का रहनुमा जिंदा रहे!"
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