
ISKCON BHOPAL BYC
697 subscribers
About ISKCON BHOPAL BYC
Hare Krishna ISKCON BHOPAL BYC में आपका स्वागत है 🌸 https://linktr.ee/iskconbhopalbyc This Channel is your spiritual family, where we share uplifting content, temple updates, and the timeless teachings of Lord Krishna. Your presence makes our community stronger and more joyful!. Let's stay connected, support each other on our spiritual journey, and make every day a step closer to Krishna consciousness. यह व्हाट्सप्प Channel ISKCON BHOPAL BYC मंदिर की जानकारियों, विशेष तिथियों और उत्साहवर्धक आध्यात्मिक शिक्षाओं को आप तक पहुचाने के लिए है करते हैं। आइए हम एक-दूसरे को प्रेरित करें, जुड़े रहें, और इस दिव्य यात्रा को मिलकर आगे बढ़ाएं। आपकी उपस्थिति हमारे समुदाय को और भी मजबूत और आनंदमय बनाती है!
Similar Channels
Swipe to see more
Posts

Bhagavad Gita 11.45 अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ ४५ ॥ Translation :-After seeing this universal form, which I have never seen before, I am gladdened, but at the same time my mind is disturbed with fear. Therefore please bestow Your grace upon me and reveal again Your form as the Personality of Godhead, O Lord of lords, O abode of the universe. पहले कभी न देखे गये आपके विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।


धृतराष्ट्र ने योगिक प्रक्रिया द्वारा सभी प्रकार की भौतिक प्रतिक्रियाओं के निषेध की अवस्था प्राप्त कर ली थी। प्रकृति के भौतिक गुणों के प्रभाव से पीड़ित व्यक्ति को पदार्थ का आनंद लेने की अथक इच्छाओं की ओर आकर्षित किया जाता है, लेकिन योगिक प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति ऐसे झूठे भोग से बच सकता है। प्रत्येक इन्द्रिय हमेशा अपने भोजन की खोज में व्यस्त रहती है, और इस प्रकार बद्धजीव पर सभी ओर से आक्रमण होता है और उसे किसी भी खोज में स्थिर होने का कोई मौका नहीं मिलता। महाराज युधिष्ठिर को नारद ने सलाह दी कि वे अपने चाचा को घर वापस लाने का प्रयास करके उन्हें परेशान न करें। वे अब किसी भी भौतिक वस्तु के आकर्षण से परे थे। प्रकृति के भौतिक गुणों (गुणों) की अपनी अलग-अलग क्रियाएँ होती हैं, लेकिन प्रकृति के भौतिक गुणों से ऊपर एक आध्यात्मिक गुण है, जो निरपेक्ष है। निर्गुण का अर्थ है प्रतिक्रिया रहित। आध्यात्मिक गुण और उसका प्रभाव एक समान हैं; इसलिए आध्यात्मिक गुण को उसके भौतिक समकक्ष से निर्गुण शब्द से अलग किया जाता है। प्रकृति के भौतिक गुणों के पूर्ण निलम्बन के पश्चात, व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, तथा आध्यात्मिक गुणों द्वारा निर्देशित क्रिया को भक्ति कहा जाता है। इसलिए भक्ति, परम तत्व के साथ सीधे संपर्क द्वारा प्राप्त निर्गुण है। श्रीमद् भागवतम् 1.13.56 के तात्पर्य से

*अध्याय सात: भगवद्ज्ञान* *श्लोक २९* *जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।* *ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥२९॥* *शब्दार्थ* जरा—वृद्धावस्था से; मरण—तथा मृत्यु से; मोक्षाय—मुक्ति के लिए; माम्—मुझको, मेरे; आश्रित्य—आश्रय बनाकर, शरण लेकर; यतन्ति—प्रयत्न करते हैं; ये—जो; ते—ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म—ब्रह्म; तत्—वास्तव में उस; विदु:—वे जानते हैं; कृत्स्नम्—सब कुछ; अध्यात्मम्—दिव्य; कर्म—कर्म; च—भी; अखिलम्—पूर्णतया। *अनुवाद* *जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं | वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं |* *तात्पर्य* जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग इस भौतिक शरीर को सताते हैं, आध्यात्मिक शरीर को नहीं | आध्यात्मिक शरीर के लिए न जन्म है, न मृत्यु, न जरा, न रोग | अतः जिसे आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो जाता है वह भगवान् का पार्षद बन जाता है और नित्य भक्ति करता है | वही मुक्त है | अहंब्रह्मास्मि– मैं आत्मा हूँ | कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह यह समझे कि मैं ब्रह्म या आत्मा हूँ | शुद्धभक्त ब्रह्म पद पर आसीन होते हैं और वे दिव्य कर्मों के विषय में सब कुछ जानते रहते हैं | भगवान् की दिव्यसेवा में रत रहने वाले चार प्रकार के अशुद्ध भक्त हैं जो अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं और भगवत्कृपा से जब वे पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं, तो परमेश्र्वर की संगति का लाभ उठाते हैं | किन्तु देवताओं के उपासक कभी भी भगवद्धाम नहीं पहुँच पाते | यहाँ तक कि अल्पज्ञ ब्रह्मभूत व्यक्ति भी कृष्ण के परमधाम, गोलोक वृन्दावन को प्राप्त नहीं कर पाते | केवल ऐसे व्यक्ति जो कृष्णभावनामृत में कर्म करते हैं (माम् आश्रित्य) वे ही ब्रह्म कहलाने के अधिकारी होते हैं, क्योंकि वे सचमुच ही कृष्णधाम पहुँचने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं | ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण के विषय में कोई भ्रान्ति नहीं रहती और वे सचमुच ब्रह्म हैं | जो लोग भगवान् के अर्चा (स्वरूप) की पूजा करने में लगे रहते हैं या भवबन्धन से मुक्ति पाने के लिए निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ब्रह्म अधिभूत आदि के तात्पर्य को समझते हैं, जैसा कि भगवान् ने अगले अध्याय में बताया है |