
Vijay Pal
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अंतहीन अनन्त मौन
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"हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास। अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।" - दोहा 25 ( सुंदरकांड ) अर्थात : जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो -- भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे। इन उनचास मरुत का क्या अर्थ है ? यह तुलसी दास जी ने भी नहीं लिखा। 49 प्रकार की वायु के विषय मे तुलसीदासजी के वायु ज्ञान अद्भुत है ! वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है, लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है। ये 7 प्रकार हैं- 1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह 7.परावह। 1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है। 3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है। 5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं। 7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं। इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं 1. ब्रह्मलोक, 2. इंद्रलोक, 3. अंतरिक्ष, 4. भूलोक की पूर्व दिशा, 5. भूलोक की पश्चिम दिशा, 6. भूलोक की उत्तर दिशा 7. भूलोक कि दक्षिण दिशा। इस तरह 7 x 7 = 49। कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं। अद्भुत ज्ञान। हम अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं !

"जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग माल्याकाम्।डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥ "जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥ "धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥ "जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥ "सहस्रलोचन प्रभृत्यशेष लेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥ "ललाटचत्वर ज्वलद्धनंजय स्फुलिंगभा निपीतपंच सायकं नमन्निलिंपनायकम्।सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥ "करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृत प्रचंडपंचसायके।धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्र पत्रक प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥ नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धर स्फुरत्कुहु निशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।निलिम्पनिर्झरी धरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥ प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबिकंठ कंधरारुचि प्रबंधकंधरम्।स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांध कच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥ अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांध कांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥ जयत्वद भ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगम स्फुरद्धगद्धगद्वि निर्गमत्करालभाल हव्यवाट्।धिमिद्धिमिद्धिमि ध्वनन्मृदंग तुंगमंगल ध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥ दृषद्विचित्र तल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठ रत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः सम प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥ कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।विलोल लोललोचनो ललामभाल लग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥ निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फ निर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥ प्रचण्ड वाडवानल: प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥ इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनांं सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥१६॥ पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मिंं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥ ॥ इति श्रीरावणकृतं शिव ताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

_“मन चंगा तो कठौती में गंगा”_ *गुरु रविदास जी का संघर्ष और संदेश* _“ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न।_ _छोट बड़े सब संग बसे, रैदास रहे प्रसन्न।।”_ क्या आज *गुरु रविदास जयंती* पर उनका नाम मात्र याद कर लेना ही पर्याप्त है, या फिर उनके संघर्ष और संदेश को अपनी ज़िंदगी में उतारने का भी संकल्प लेंगे? गुरु रविदास जी केवल एक आध्यात्मिक शिक्षक नहीं थे, बल्कि सामाजिक क्रांति के अग्रदूत भी थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की, जहाँ कोई ऊँच-नीच न हो, कोई भेदभाव न हो, और हर व्यक्ति को आध्यात्मिक व सामाजिक समानता प्राप्त हो। लेकिन यह सफर आसान नहीं था। *15वीं शताब्दी का भारत जातिवाद, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड के जाल में जकड़ा हुआ था।* धर्म को ज्ञान और मुक्ति का साधन नहीं, बल्कि ऊँच-नीच और सामाजिक नियंत्रण का औजार बना दिया गया था। गुरु रविदास जी एक साधारण चर्मकार (मोची) परिवार में जन्मे थे। उस समय समाज की निम्न मानी जाने वाली जातियों में पैदा होना किसी अपराध से कम नहीं था। मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने का अधिकार नहीं था, और ज्ञान को केवल उच्च जातियों का विशेषाधिकार बना दिया गया था। *लेकिन क्या गुरु रविदास जी ने इस अन्याय को स्वीकार कर लिया?* नहीं! उन्होंने समाज की रूढ़ियों को तोड़ा और धर्म को सही अर्थों में पुनर्स्थापित किया। गुरु रविदास जी ने स्पष्ट किया कि आत्मा तक पहुँचने का मार्ग केवल जाति और कुल से तय नहीं होता—वह मन की सफ़ाई और सही कर्मों से तय होता है। मीराबाई, जो राजघराने में जन्मी थीं, उनकी अनन्य भक्त बनीं और अपने पदों में उन्हें ‘सद्गुरु’ कहा। चित्तौड़ की रानी झलकारी बाई उनकी शिक्षाओं से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। कई अन्य राजा और विद्वान भी उनके ज्ञान से प्रभावित होकर उनके विचारों को अपनाने लगे। कुछ ही समय में, वे केवल दलित समाज के नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के गुरु बन गए। उनकी वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में भी संकलित की गई, जो उनकी व्यापक स्वीकृति को दर्शाती है। *गुरु रविदास जी का जीवन संघर्षों से भरा था।* समाज ने उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की, उन्हें मंदिरों से बाहर रखा गया, उनके प्रवचनों को बाधित करने का प्रयास किया गया, और उनकी शिक्षाओं पर सवाल उठाए गए। लेकिन उन्होंने हर चुनौती को सहन किया और अपनी शिक्षाओं से समाज को झकझोर दिया। उन्होंने धर्म और समाज के लिए एक नया दृष्टिकोण दिया—जो विवेक और कर्म पर आधारित था, जाति या जन्म पर नहीं। ➖➖➖

क्या है, एवं कैसे करते थे योगी “हठयोग” हठयोग के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो ह और ठ दो शब्द हमारे सामने आते हैं, अर्थात हकार (सूर्य) तथा ठकार (चन्द्र)। नाड़ी के इस योग को हठयोग (Hatha Yoga) कहते हैं। हठ प्रदीपिका, स्वामी स्वात्माराम द्वारा लिखित एक ग्रंथ है। स्वामी स्वात्माराम गुरु गोरखनाथ के शिष्य थे। इसे हठयोग का ग्रंथ माना जाता है हठ योग (Hatha Yoga) अथवा प्राणायाम की क्रिया तीन भागों में विभाजित की गई है इस प्रक्रिया को तीन चरणों में पूर्ण की जाती है जो निम्नलिखित है- रेचक – यह क्रिया का पहला चरण रेचक का अर्थ है कि श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना। पूरक - क्रिया के दूसरे चरण को पूरक कहा जाता है। जिसका अर्थ है श्वास को सप्रयास अन्दर खींचना है। कुंभक – यह अभ्यास का तीसरा चरण है जिसे कुंभक कहा जाता है। इस क्रिया में सांस को सप्रयास रोके रखना होता है। कुंभक के दो प्रकार हैं बर्हिःकुंभक – इस क्रिया में श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना होता है। अन्तःकुम्भक – इस क्रिया में सांस को अंदर खींचकर सांस को रोक कर रखना होता है। इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। हठयोग के प्रमुख अंग षट्कर्म षट्कर्म हठयोग में बतायी गयी छः क्रियाएँ हैं। यह आसन हमारे शरीर में शक्ति की वृद्धि करता है। इनसे हमारे अंदर सुख तथा शांति का समावेश होता है षटकर्म के अंतर्गत नेति, धौति, नौली, कपाल भाति, त्राटक और बस्ति आते हैं। आसन आराम और स्थिरता से जिसमें बैठ सकें वही उपयुक्त आसन माना जाता है। किंतु हठयोग में अनेक आसनों का वर्णन किया गया है। प्राणायाम प्राणायाम का अर्थ होता है प्राण पर नियंत्रण, यानी की सांस पर नियंत्रण साधना। हठयोग में कुंडलीनी जाग्रुती के लिये प्राणायाम को एकमात्र साधन माना गया है। इसी को कुंभक कहा जाता है। मुद्रा हठयोग (Hatha Yoga) में आसन और प्राणायाम की तरह मुद्रा भी कंडलीनी जाग्रुति का एक साधन है। यह आसान आपके मन को आत्मा के साथ जोड़ने में सहायता करता है। प्रत्याहार प्रत्याहार हठयोग का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस प्रक्रिया में हम अपनी इंद्रियों को साधते हैं और जब इसकी ज़रुरत होती है तभी इनका प्रयोग करते हैं। ध्यानासन जैसा की नाम से ही पता चलता है कि ध्यान लगाने के लिए किये जाने वाले आसनों को ध्यानासन कहा जाता है। इस आसन में ध्यान को साधा जाता है। समाधि आज के वक्त में हर व्यक्ति सुख व शांति के लिये प्रयासरत है। इसलिए ऋषि मुनीओं ने ऐसी आध्यात्म विद्या खोज निकली है जिससे व्यक्ति सुख शांति का अनुभव कर सकता है। इसी सिद्धांत को समाधि बताया गया है।

एक झील के किनारे तीन फकीर थे। तीनों बे-पढ़े लिखे थे। लेकिन उनकी बड़ी ख्याति हो गई, और दूर दूर से लोग उनके दर्शन करने को आने लगे। तो रूस का जो सबसे बड़ा पादरी था, उसके कानों में भी खबर पहुंची कि तीन पवित्र पुरुष झील के उस पार हैं। पर उसने कहा कि मुझे उनका पता ही नहीं! और उन्होंने कभी चर्च में दीक्षा भी नहीं ली, वे पवित्र हो कैसे सकते हैं! और हजारों लोग वहां जा रहे हैं और दर्शन करके कृतार्थ हो रहे हैं! तो वह भी देखने गया कि मामला क्या है? नाव पर सवार हुआ, झील के उस पार पहुंचा। वे तीनों तो बिलकुल बेपढ़े लिखे गंवार थे। वे अपने झाड़ के नीचे बैठे थे। जब पादरी उनके सामने गया तो उन तीनों ने झुककर उसको प्रणाम किया। पादरी तभी आश्वस्त हो गया कि कोई डर की बात नहीं है। जब तीनों चरण छू रहे हैं, इनसे कोई ईसाई—धर्म को खतरा नहीं है। उस पादरी ने कहा कि तुम क्या करते हो? क्या है तुम्हारी साधना? तुम्हारी पद्धति क्या है? उन्होंने कहा, पद्धति? वे एक दूसरे की तरफ देखने लगे। पादरी ने कहा, बोलो, तुम करते क्या हो? तुमने साधा क्या है? उन्होंने कहा कि हम ज्यादा तो कुछ भी जानते नहीं। पढ़े—लिखे हम हैं नहीं। किसी ने हमें सिखाया नहीं। हमारी तो एक छोटी—सी प्रार्थना है, वही हम करते हैं। उन्होंने कहा, फिर प्रार्थना भी हमारी खुद की ही गढ़ी हुई है, क्योंकि हमने किसी से सीखा नहीं और किसी ने हमें कभी बताया नहीं। क्या है तुम्हारी प्रार्थना? पादरी तो अकड़ता चला गया। उसने कहा कि बिलकुल ही गंवार हैं! क्या है तुम्हारी प्रार्थना? उन्होंने कहा कि अब आपसे हम कैसे कहें, बड़ी छोटी—सी है। हमने सुन रखा है कि परमात्मा तीन हैं, ट्रिनिटि, त्रिमूर्ति। ईसाई मानते हैं, तीन हैं परमात्मा—परम पिता, उसका बेटा जीसस और दोनों के बीच में एक पवित्र आत्मा, होली घोस्ट—इन तीन के जोड़ से परमात्मा बना है, ट्रिनिटि। जैसा हम त्रिमूर्ति मानते हैं —शंकर विष्णु, ब्रह्मा। तो उन्होंने कहा कि हमने एक प्रार्थना बना ली सोच—सोचकर तीनों ने। हमारी प्रार्थना यह है कि यू आर थ्री, वी आर ऑल्सो थ्री, हैव मर्सी ऑन अस। तुम भी तीन हो, हम भी तीन हैं, हम पर कृपा करो। उस पादरी ने कहा कि बंद करो यह। यह कोई प्रार्थना है! प्रार्थना तो ऑथराइड होती है। चर्च के द्वारा उसके लिए स्वीकृति और प्रमाण होना चाहिए। तो मैं तुम्हें प्रार्थना बताता हूं। इसको याद करो और आज से यह प्रार्थना शुरू करो। उन्होंने कहा, आपकी कृपा, बता दें। पादरी ने, लंबी प्रार्थना थी चर्च की, वह बताई। उन लोगों ने कहा कि क्षमा करें, हम बिलकुल गंवार हैं, इतनी लंबी याद न रहेगी। आप थोड़ा संक्षिप्त क़र दें, कुछ थोड़ा सरल! पादरी ने कहा कि न तो यह सरल हो सकती है और न संक्षिप्त। यह प्रमाणित प्रार्थना है। और जो इसको नहीं करेगा, उसके लिए स्वर्ग के द्वार बंद हैं। तो उन्होंने कहा कि एक दफा आप फिर से दोहरा दें, ताकि हम याद कर लें। दुबारा कही। फिर भी उन्होंने कहा, एक बार और सिर्फ दोहरा दें। और तीनों ने दोहराने की भी कोशिश की और उन्होंने धन्यवाद दिया पादरी को, फिर चरण छुए। पादरी प्रसन्न नाव पर वापस लौटा। आधी झील में आया था कि देखा कि पीछे से एक बवंडर चला आ रहा है पानी पर। वह तो घबराया कि यह क्या चला आ रहा है? थोड़ी देर में साफ हुआ कि वे तीनों पानी पर दौड़ते चले आ रहे हैं! पादरी के तो प्राण निकल गए। वे पानी पर चल रहे हैं! और तीनों आकर पास, पकड़कर बोले कि एक बार और दोहरा दें। वह हम भूल गए। हम गरीब बेपढ़े—लिखे लोग। उस पादरी ने कहा कि क्षमा करो। तुम्हारी प्रार्थना काम कर रही है। तुम अपनी वही जारी रखो कि वी आर श्री, यू आर थ्री, हैव मर्सी ऑन अस। प्रेम एक हार्दिक घटना है। न तो उसकी कोई प्रामाणिक व्यवस्था है; न कोई विधि है, न कोई तंत्र है न कोई मंत्र है। प्रेम एक हार्दिक भाव है। प्रार्थना एक हार्दिक भाव है। उसे सिखाने का कोई भी उपाय नहीं है। और पृथ्वी पर चूंकि सभी धर्म सिखाने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए लोग अधार्मिक हो गए हैं। सिखाने से कभी भी कोई आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। ओशो; कठोपनिषद

*!! हनुमान चालीसा की उत्पत्ति !!* 🔹यह कहानी नही एक सत्य कथा है🔹 पवन पुत्र हनुमान जी की आराधना तो सभी लोग करते हैं और हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं, पर इसकी उत्पत्ति कहाँ और कैसे हुई यह जानकारी बहुत ही कम लोगो को होगी। बात 1600 ई. की है। एक बार तुलसीदास जी मथुरा जा रहे थे रात होने से पहले उन्होंने अपना पड़ाव आगरा में डाला, लोगो को पता लगा कि तुलसीदास जी आगरा में पधारे हैं। यह सुन कर उनके दर्शनों के लिए लोगो का ताँता लग गया। जब यह बात बादशाह अकबर को पता लगी तो उन्होंने बीरबल से पूछा कि यह तुलसीदास कौन हैं? तब वीरबल ने बताया, इन्होंने ही रामचरितमानस का अनुवाद किया है यह रामभक्त तुलसीदास जी हैं। मैं भी इनके दर्शन करके आया हूँ। अकबर ने भी उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की और कहा मैं भी उनके दर्शन करना चाहता हूँ। बादशाह अकबर ने अपने सिपाहियों की एक टुकड़ी को तुलसीदास जी के पास भेजा और तुलसीदास जी को बादशाह का पैगाम सुनाया, कि आप लाल किले में हाजिर हों। यह पैगाम सुनकर तुलसीदास जी ने कहा कि मैं भगवान श्रीराम का भक्त हूँ, मुझे बादशाह और लाल किले से मुझे क्या लेना देना और लाल किले जाने की साफ मना कर दिया। जब यह बात बादशाह अकबर तक पहुँची तो बहुत बुरी लगी और बादशाह अकबर गुस्से में लाल-पीला हो गया, और उन्होंने तुलसीदास जी को जंज़ीरों से जकड़ कर लाल किला लाने का आदेश दिया। जब तुलसीदास जी जंजीरों से जकड़े लाल किला पहुंचे तो अकबर ने कहा की आप कोई करिश्माई व्यक्ति लगते हो, कोई करिश्मा करके दिखाओ। तुलसीदास ने कहा मैं तो सिर्फ भगवान श्रीराम जी का भक्त हूँ कोई जादूगर नही हूँ जो आपको कोई करिश्मा दिखा सकूँ। अकबर यह सुनकर आग बबूला हो गया और आदेश दिया की इनको जंजीरों से जकड़ कर काल कोठरी में डाल दिया जाये। दूसरे दिन इसी आगरा के लाल किले पर लाखों बंदरो ने एक साथ हमला बोल दिया पूरा किला तहस-नहस कर डाला। लाल किले में त्राहि-त्राहि मच गई तब अकबर ने वीरबल को बुलाकर पूछा कि वीरबल यह क्या हो रहा है....? वीरबल ने कहा, हुज़ूर आप करिश्मा देखना चाहते थे तो देखिये। अकबर ने तुरंत तुलसी दास जी को काल कोठरी से निकलवाया, और जंजीरे खोल दी गई। तुलसीदास जी ने बीरबल से कहा मुझे बिना अपराध के सजा मिली है। मैने काल कोठरी में भगवान श्रीराम और हनुमान जी का स्मरण किया, मैं रोता जा रहा था। और मेरे हाथ अपने आप कुछ लिख रहे थे यह 40 चौपाई, हनुमान जी की प्रेरणा से लिखी गई है। जो भी व्यक्ति कष्ट में या संकट में होगा और इसका पाठ करेगा, उसके कष्ट और सारे संकट दूर होंगे, इसको हनुमान चालीसा के नाम से जाना जायेगा। अकबर बहुत लज्जित हुए और तुलसीदास जी से माफ़ी मांगी और पूरी इज़्ज़त और पूरी हिफाजत से मथुरा भिजवाया। आज हनुमान चालीसा का पाठ सभी लोग कर रहे हैं, और हनुमान जी की कृपा उन सभी पर हो रही है और सभी के संकट दूर हो रहे हैं। हनुमान जी को इसीलिए "संकट मोचन" भी कहा जाता है। !! जय श्री राम, जय श्री हनुमान !!

*शिव भक्त कन्नप्पा भील* हिन्दू धर्म में महादेव के एक से बढ़कर एक भक्तों का वर्णन मिलता है। किन्तु उनमें से एक भक्त ऐसे भी थे जो किसी भी पूजा विधि को नहीं जानते थे। उन्होंने हर वो चीज की जो शास्त्र विरुद्ध है और जिसे पाप माना जाता है, किन्तु फिर भी महादेव ने उन्हें दर्शन दिए। वे इस बात को सिद्ध करते हैं कि महादेव केवल अपने भक्त के भाव देखते हैं, पद्धति नहीं। उनका नाम था कन्नप्पा। इनके जन्म के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। मूल रूप से ये एक तमिल भील परिवार में जन्में। इनके पिता का नाम राजा नाग एवं माता का नाम उडुप्पुरा था। दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में इनकी बड़ी महत्ता है। ये उन 63 तमिल संतों में से एक हैं जिन्हे "नयनार" कहा जाता है। इनकी पत्नी का नाम नीला बताया गया है। ये एक व्याध थे जो शिकार कर अपना पालन पोषण करते थे। इनके जन्म के विषय में मान्यता है कि द्वापर युग में जब महादेव ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की परीक्षा लेकर उन्हें पाशुपतास्त्र प्रदान किया, तब अर्जुन ने उनसे प्रार्थना की कि वे अगले जन्म में उनके महान भक्त बनें। भगवान शंकर ने उन्हें ये आशीर्वाद दे दिया। कलियुग में अर्जुन ही कन्नप्पा के रूप में जन्में और महादेव के अनन्य भक्त बनें। एक बार कन्नप्पा आखेट करते करते बहुत दूर जंगल में निकल गए। वहाँ उन्हें एक अत्यंत ही प्राचीन और जीर्ण मंदिर दिखा। जब वे उस मंदिर के अंदर पहुंचे तो उन्हें एक दिव्य शिवलिंग के दर्शन हुए। उसके दर्शनों से ही कन्नप्पा के मन में शिव भक्ति का संचार हो गया। उन्होंने तुरंत ही उस मंदिर को साफ किया। उनके मन में उस शिवलिंग की पूजा करने का विचार आया। पर उन्हें शिव पूजा के बारे में कुछ पता नहीं था। तब उन्होंने सोचा कि महादेव को कुछ खाने और पीने को ही दे दिया जाये। ये सोच कर वे जंगल गए और एक शूकर का शिकार किया। उसे काट कर वे उसका मांस एक पत्तल में लेकर चले। दूसरे हाथ में उन्होंने एक पात्र में मधुमक्खियों के छते से कुछ मधु इकठ्ठा कर लिया। जल के लिए कोई और उपाय ना दिखा तो उन्होंने अपने मुँह में ही जल भर लिया। वे वो सामान लेकर मंदिर आये तो देखा कि शिवलिंग पर कुछ सूखे पत्ते टूट कर गिर गए हैं। उन्होंने अपने पैर से शिवलिंग से पत्ते हटाए। मुख में रखे जल से कुल्ला कर उन्होंने महादेव का अभिषेक किया। फिर उन्हें भोग के रूप में मांस और शहद अर्पण किया। हालाँकि उनका ये कृत्य उचित नहीं था और वो सारी वस्तुएं भी पूजा के लिए निषिद्ध थीं लेकिन उनका मन पवित्र था। उन्होंने जो कुछ भी किया वो पूर्ण भक्ति भाव से किया और महादेव को केवल उसी भाव का मोह था। उन्होंने प्रसन्न मन से उसका प्रसाद स्वीकार कर लिया। अब तो ये कन्नप्पा का रोज का कार्य हो गया। वो प्रतिदिन उसी प्रकार पैरों से पत्ते साफ कर, मुँह के कुल्ले से शिवलिंग का अभिषेक कर उन्हें मांस और शहद अर्पण करने लगा। जंगल में एकांत में स्थित उस मंदिर में महादेव की पूजा करने एक पुजारी भी आते थे जो बहुत बड़े शिवभक्त थे। कन्नप्पा के पूजा करने के बाद अगले दिन जब वे आये तो देखा कि पूरे मंदिर में यहाँ वहां मांस के टुकड़े पड़े हैं। वे बड़े दुखी हुए और तत्काल मंदिर को जल से धोकर पूजा की और स्वच्छ पुष्प चढ़ाए। किन्तु अब रोज-रोज उन्हें मंदिर में मांस मिलने लगा। ये देखकर एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि वे पता करके रहेंगे कि कौन है जो रोज मंदिर को अपवित्र कर देता है। यही सोच कर वो रात को वहां रुक गए। रोज की भांति कन्नपा वहां आये और उन्होंने पैर से पुजारी द्वारा शिवलिंग पर चढ़े पुष्प हटाए। कुल्ले से उनके अभिषेक किया और फिर शिवलिंग पर मांस और मधु चढ़ाया। पुजारी मंदिर के एक कोने से छिप कर देख रहे थे। उन्हें ये देख कर बड़ा क्रोध आ रहा था। वे ये तो समझ गए कि कन्नप्पा ऐसा केवल भक्ति के कारण कर रहे थे, जान बुझ कर नहीं किन्तु फिर भी उन्हें उसका कार्य बड़ा घृणित लगा। उसी समय उनके मन में विचार आया कि मैं इतने समय से शुद्ध चीजों से महादेव की पूजा करता हूँ.. फिर भी मुझे उनके दर्शन नहीं हुए फिर भला इस घृणित पद्धति से पूजा करने वाले से भला महादेव कैसे प्रसन्न हो सकते हैं। वे पुजारी भी महादेव के भक्त थे इसीलिए अपने भक्त का अभिमान भंग करने के लिए उन्होंने (शिवजी ने) एक लीला रची। कन्नप्पा ने देखा कि अचानक शिवलिंग के एक आंख से रक्त बहने लगा है। अपने आराध्य की ऐसी दशा देख कर वो अत्यंत दुखी हुआ। उसने पास पड़ी जड़ी बूटियों को शिवलिंग के नेत्र पर लगाया किन्तु रक्त का बहना नहीं रुका। उसे समझ नहीं आया कि क्या करना है। उधर छिप कर सब देख रहे उन पुजारी को भी कुछ समझ नहीं आया। उन्हें लगा कि अवश्य ही कन्नप्पा के इस कृत्य से महादेव अप्रसन्न हो गए हैं और उनके नेत्रों से रक्त बह रहा है। उधर कन्नप्पा मारे दुःख के रोने लगे। तभी उन्होंने सोचा कि यदि मैं अपनी एक आँख इस पर लगा दूँ तो शायद रक्त का बहना रुक जाये। ये सोचकर उन्होंने अपने एक बाण से अपनी एक आंख निकाली और शिवलिंग के नेत्र पर रख दिया। इससे रक्त बहना बंद हो गया। कन्नप्पा की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। तभी शिवलिंग के दूसरे नेत्र से रक्त निकलने लगा। अब तो कन्नप्पा को इसका उपचार मिल चुका था इसीलिए उसने अपने दूसरे नेत्र भी निकालने का निश्चय किया। तब उसे ध्यान आया कि दूसरा नेत्र निकालने पर तो वो कुछ देख नहीं पायेगा फिर सही स्थान पर नेत्र कैसे लगा पायेगा? ये सोच कर उसने अपने पैर का अंगूठा शिवलिंग के नेत्र पर रखा ताकि वो नेत्रहीन होकर भी अपने नेत्र सही स्थान पर लगा पाए। फिर जैसे ही उसने अपने बाण से अपना नेत्र निकालने का यत्न किया, महादेव ने स्वयं प्रकट हो उसका हाथ पकड़ लिया। अपने आराध्य के दर्शन होते ही कन्नप्पा उनके चरणों में गिर पड़ा। महादेव ने उसके दोनों नेत्र ठीक कर दिए। तब बाहर छिप कर सब देख रहे ब्राह्मण भी अंदर आ कर महादेव के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा - "हे महादेव! मेरे मन में अहंकार आ गया था कि मैं आपका सबसे बड़ा भक्त हूँ। किन्तु आज कन्नप्पा ने मेरा ये अभिमान तोड़ दिया। इनके कारण ही मुझे आज आपके दर्शनों का सौभाग्य मिला है। आज मुझे समझ आ गया कि आपको केवल भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है, किसी पूजा पद्धति से नहीं।" तब महादेव ने दोनों को आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गए। वर्तमान में आंध्रप्रदेश के तिरुपति जिले के कालहस्ती नामक जगह पर महादेव का वही शिवलिंग श्रीकालहस्ती महादेव के नाम से स्थापित है। मान्यता है कि भक्तराज कन्नप्पा ने इन्ही शिवलिंग पर अपने नेत्र अर्पण किये थे। हर हर महादेव - जय शिव शंभू 🙏

🔹दक्ष प्रजापति व सती की कथा🔹 स्वायम्भुव मनु की तीन पुत्रियाँ थीं – अकुति, देवहूति और प्रसूति। इनमें से प्रसूति का विवाह दक्ष नाम के प्रजापति से हुआ। दक्ष को 16 कन्याओं की प्राप्ति हुई। इनमें से एक थी ‘सती’ जिनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ था, उनको किसी संतान की प्राप्ति नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने युवावस्था में ही अपने पिताजी के यहाँ देह का परित्याग कर दिया था। विदुर जी ने कहा- कोई महिला ससुराल में देह त्याग करे तो बात समझ आती है, उसको प्रताड़ना दी गई होगी। लेकिन पिता के घर में आत्मह'त्या कर ले, ये बात समझ में नहीं आती। मैत्रय जी कहते हैं – एक बार देवताओं की बड़ी सभा लगी हुई थी। दक्ष जो सती के पिता हैं, उस सभा के सभापति थे। दक्ष जब सभा में आये, सभी लोग उठकर खड़े हो गये। दो लोग उठकर खड़े नहीं हुए। ये थे भगवान शंकर और ब्रह्मा जी। दक्ष द्वारा शिव जी का अपमान : - दक्ष ने सोचा चलो ब्रह्मा जी तो पिता हैं वे खड़े नहीं हुए तो क्या हुआ पर शंकर जी तो दामाद हैं और दामाद पुत्र के समान होता है। दक्ष ने सोचा- मेरे आने पर ये खड़ा नहीं हुआ, ये कितना उद्दंड है। मैंने तो अपनी मृगनयनी बेटी का विवाह इस मरकट-लोचन के साथ कर दिया इसको तो कोई सभ्यता, शिष्टाचार ही नहीं। इस तरह से दक्ष ने भगवान शिव को बहुत अपशब्द बोले। अब प्रश्न उठता है- दक्ष की सभा में शिवजी उसके सम्मान के लिए क्यों नही उठे? तो इसका उत्तर है शिवजी का उद्देश्य दक्ष का अपमान करना नहीं था, वे तो भगवान के ध्यान में ऐसे निमग्न बेठे थे की उनको पता ही नहीं लगा दक्ष कब आया? जब दक्ष गाली देने लगा तब उनका ध्यान टूटा। तब उन्होंने देखा दक्ष अत्यंत क्रोधित होकर उन्हें गाली दे रहा है। यही है आत्मानिष्ठ महापुरुष की पहचान। अगर अनजाने में कोई मर्यादा का उलंघन हो जाये तो उसके परिणामस्वरूप समाज तो कुछ न कुछ बोलेगा ही, उनके बोलने पर भी महापुरुष की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। इसी तरह यहाँ भी दक्ष गाली दे रहा है, शिवजी अपने ध्यान में बैठे हैं। उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं। न ही उन्होंने कोई जवाब दिया। जब दक्ष ने देखा की उसकी गाली देने के बाद भी शिवजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है, तब उसने हाथ में जल लेकर शाप दे दिया- ‘आज के बाद किसी यज्ञ में तुम्हारा हिस्सा नहीं होगा।’ भगवान शिव तब भी कुछ नहीं बोले। दक्ष ऐसा शाप देकर सभा से चला गया। नन्दीश्वर द्वारा दक्ष को शाप : - उसके बाद नन्दीश्वर को क्रोध आ गया। उन्होंने दक्ष को शाप दे दिया- मेरे आराध्य को अकारण शाप दिया। तू इतनी देर से “मैं- मैं” कर रहा है- “मैं शिव का ससुर हूँ, मैं सभापति हूँ।” अगले जन्म में इसको बकरे का जन्म मिलेगा, फिर जीवन भर मैं-मैं करेगा। ये बात हम सबके लिए है- यदि हम ज्यादा मैं-मैं करते हैं तो अगला जन्म किसका मिलेगा? बकरी या बकरा बनना पड़ेगा। नन्दीश्वर ने दूसरा शाप ब्राह्मणों को दे दिया- तुम लोग दक्ष जैसे दुष्ट के यहाँ यज्ञ करने आये हो, तुम्हारी विद्या केवल जीविका के लिये रह जायगी। तुमको ज्ञान कभी नहीं होगा। भृगु ऋषि द्वारा गणों को शाप : - अब ब्राह्मणों के गुरु भृगु ऋषि बड़े क्रोधित हुए। वो बोले- हमनें क्या किया? हमें तो अकारण ही शाप दे दिया। उन्होंने भगवान शंकर के गणों को शाप दे दिया- जितने भगवान शंकर के भक्त हैं, सब पाखंडी हो जायेंगे। न स्नान करेंगे, न ठीक से पूजा करेंगे, भांग खायेंगे और हड्डियों की माला पहनेंगे। ये सब चीजें तामसी हैं। आज जो हमें शिव भक्त गांजा पीते, शमशान की राख लपेटे, हड्डियों की माला पहने दिखते हैं वे शाप के कारण। भगवान शंकर तो एकदम सात्विक हैं। क्या वे अपने भक्तों को इन तामसिक प्रवत्तियों के लिये अनुमति देंगे? उन्होंने अनुमति नहीं दी! ये तो भृगु जी का शाप लगा हुआ है। भगवान शंकर ने देखा शापा-शापी बढ़ रही है। अब यहाँ से चलना ठीक है। उन्होंने गणों को संभाला और कैलाश चले गये। दक्ष द्वारा यज्ञ-आयोजन : - दक्ष ने कनखल क्षेत्र में यज्ञ का आरम्भ किया। उसने ऐसा दुराग्रह किया कि यज्ञ में, मैं विष्णु की तो पूजा करूँगा पर शिव जी की नहीं। देवों ने उससे कहा कि तेरा यज्ञ सफल नहीं होगा। फिर भी उसने दुराग्रह से यज्ञ किया। इस तरह दक्ष ने भगवान विष्णु, ब्रह्माजी और देवराज इंद्र को निमंत्रण दिया पर शिव जी को निमंत्रण नहीं दिया। सती एवं शिवजी संवाद : - हरिद्वार में कनखल नामक स्थान पर यज्ञ का आयोजन है। सारे देवता कैलाश पर्वत से होकर आ रहे हैं तो सती और भगवान शंकर को प्रणाम करके जा रहे हैं। उन्होंने कहा- तुम्हारे पिता के घर यज्ञ है और तुम हमसे पूछ रही हो, कहाँ जा रहे हो? देवता चले गये, इधर सती ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। बोलने में तो चतुर हैं, कहती हैं- प्रभो ! आपके ससुर के यहाँ इतने बड़े यज्ञ का आयोजन हो रहा है। ये भी कह सकती थीं कि मेरे पिता के यहाँ यज्ञ हो रहा है। अर्थ दोनों के एक ही हैं। लेकिन सती कहती हैं- “आपके ससुर के यहाँ” जिससे आपका संबध ज्यादा जुड़ जाये तो शायद चल पड़े। बोलने की चतुराई है। भगवान शिव मौन हैं। वे जानते हैं क्या घटना हुई है। बताने से सती को सिर्फ दुःख ही होगा। सती कहती हैं- निमंत्रण नहीं मिला, इसलिए शायद आप जाना नहीं चाहते हैं। शास्त्रों में विधान है- गुरु के यहाँ, पिता के यहाँ और मित्र के यहाँ बिना निमंत्रण के भी जा सकते हैं। जब सती भगवान शिव को शास्त्र का विधान बताने लग गई तो भगवान शंकर को हँसी आ गई। भगवान शंकर सोचने लग गये- सारे संसार को उपदेश मैं करता हूँ। आज ये सती मुझे शास्त्र का विधान बता रही है। शिवजी ने सती को समझाया- देवी ! तुम ठीक कहती हो- गुरु के यहाँ, पिता के यहाँ और मित्र के यहाँ बिना निमंत्रण के जा सकते हैं। पर यदि जानबूझकर निमंत्रण नहीं दिया गया हो तो बिल्कुल नहीं जाना चाहिये, क्योंकि उसके अन्दर कोई न कोई द्वेष है। वहाँ जाने से भलाई नहीं होगी। अत: मेरी सलाह है- तुमको अपने पिता के यहाँ इस समय नहीं जाना चाहिये। इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गये। क्योंकि पता है- दक्ष पुत्री है- अपनी बुद्धि बहुत चलाती है, पता नहीं मानेगी या नहीं। सती के अन्दर द्वन्द्व चल रहा था। पति की याद आये तो अन्दर, पिता की याद आये तो बाहर। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ? ऐसे अन्दर-बाहर कर रहीं थी। फिर उनको गुस्सा आ गया। भगवान शंकर की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखते हुए, बिना बताये चल पड़ीं। भगवान शंकर ने गणों को आदेश दिया- तुम्हारी मालकिन जा रही है, तुम भी साथ में जाओ। नंदी को ले जाओ और सामान भी ले जाओ, क्योंकि ये अब लौटने वाली नहीं है। देखिये भगवान शंकर अपनी पत्नी को नहीं समझा पाये। आपकी पत्नी आपकी बात न माने तो दुखी मत होना सोच लेना, ये तो सृष्टी की परम्परा है- ब्रह्मा जी अपने बेटों को नहीं समझा पाये, शंकर जी अपनी पत्नी को नहीं समझा पाये तो आप क्यों दुखी होते हो? ये दुनिया ऐसे ही चलती है। सती द्वारा देह त्याग : - सती चली गई। भगवान शंकर को कोई चिंता नहीं, वे ध्यान में बैठ गये। अपने पिता दक्ष के यहाँ जाकर सती ने देखा भगवान शंकर का कोई हिस्सा नहीं था। भगवान शिव का अपराध किया गया है, यह सोचकर सतीजी को क्रोध आया और उन्होंने अपने पिता से कहा- मूर्ख पिता ! क्या महादेव जैसे देवता दुनिया में हैं? सती ने कहा- दक्ष ! तुमको छोड़कर इस विश्व में कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो शिव का विरोधी होगा। कोई विष्णु का विरोधी हो सकता है, ब्रह्मा का विरोधी हो सकता है, पर शिव का विरोधी तो कोई नहीं हो सकता। शिव इतने दयालु इतने कृपालु हैं कि अपने भक्तों के लिये अपना सब-कुछ दे देते हैं, अपना भी ध्यान नहीं रखते। तुमने उनका विरोध किया। शास्त्र में लिखा है- जहाँ गुरु का और भगवान का विरोध हो रहा है, तो कानों में उंगली लगाकर वहाँ से चले जाओ। जो सुनेगा और विरोध नहीं करेगा, उसको भी पाप का भागी बनना पड़ता है। सती कहती हैं- मैं तेरी जीभ तो नहीं काट सकती पर अब मैं लौटकर कैलाश भी नहीं जा सकती। शिव तो परम दयालु हैं, वे तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु दुष्ट दक्ष! ये शरीर तेरा दिया हुआ है। तेरे जैसे दुष्ट के दिये शरीर से मैं वहाँ नहीं जा सकती। वो मुझे दक्ष-पुत्री कहकर बुलायेंगे तो मेरे लिये मरने के सामान हो जायेगा। इसके बाद सती ने भगवान शिव का ध्यान किया और यज्ञ की उत्तरी दिशा में बैठ कर योग के माध्यम से अग्नि को प्रकट किया और अपने शरीर को भस्म कर दिया। अब तो हाहाकार मच गया। शिवजी के रूद्र, यज्ञ का विध्वंस करने लगे। भृगु जी ने देवतओं को प्रकट किया और रूद्रगणों को मार-मारकर भगा दिया। शिव जी द्वारा वीरभद्र को यज्ञ विध्वंस की आज्ञा : - ये समाचार जब नारद जी को मिला, नारद जी ने भगवान शिव को बताया- प्रभु ! सती की ये दशा हुई है। अब भगवान शिव को रोष आया। शिव जी को अपने अपमान पर क्रोध नहीं आया पर आज सती का अपमान हुआ तो भयंकर क्रोध आया। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और जमीन पर पटक दी उससे एक विलक्षण पुरुष प्रकट हुआ जिसके तीन नेत्र थे, भयंकर विशाल शरीर वाला था, हाथ में त्रिशूल लिये-‘ये वीरभद्र भगवान थे।’ वीरभद्र ने शिव जी को प्रणाम किया और बोला- क्या आदेश है? शिवजी ने कहा- एक ही आदेश है। दक्ष को मार डालो, यज्ञ को विध्वंस कर दो। वीरभद्र जी उत्तराखंड होते हुये हरिद्वार की तरफ पहुँचे। अपरान्ह का समय था। दोपहर के तीन बज रहे थे, यजमान लोग विश्रामशाला में थे। पंडित और देवता लोग यज्ञशाला में थे। वहाँ जाकर वीरभद्र ने यज्ञ को विध्वंस कर दिया। यज्ञशाला के डंडे उखाड़ दिये, बाँसों से यजमानों की, देवताओं की, पंडितो की पिटाई की। यज्ञ में भगदड़ मच गयी। वीरभद्र ने चार लोगों को पकड़ लिया। एक तो यजमान दक्ष को, एक आचार्य भृगु जी को (जो यज्ञ करा रहे थे) और दो देवता जो शिव के विरोधी थे, ‘पूषा’ और ‘भग’ । सबसे पहले दक्षिणा आचार्य को मिली। शास्त्रों में कहा है- आचार्य को डबल दक्षिणा दी जाती है। उनके दाड़ी और मूंछ एक साथ उखाड़ दिए क्योंकि वो अपनी बड़ी-बड़ी दाड़ी फटकार करके शिव जी को सजा देने के लिए इशारा कर रहे थे। अब पूषा के दांत निकाल दिये, क्योंकि जब दक्ष शिव जी को गाली दे रहा था, पूषा अपने बड़े-बड़े दांत निकाल कर हँस रहा था। इसका अर्थ है यदि हम अपने शरीर की किसी भी इन्द्रिय का उपयोग दूसरों के अहित के लिये करेंगे तो वो अंग बेकार हो जायेगा। पूषा ने दांतों का दुरुपयोग किया। भग देवता की आँखे निकाल ली क्योंकि वो दक्ष को आँखों से इशारा कर रहा था- और गाली दो, और गाली दो। अब वीरभद्र ने दक्ष के गले पर तलवार मारी पर वो मरा नहीं। वीरभद्र ने भगवान शिव का ध्यान किया और दक्ष की गर्दन मरोड़कर तोड़ डाली। फिर उसके सिर को हवनकुण्ड में भस्म कर दिया। इस तरह से दक्ष का यज्ञ विध्वंस हो गया। विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि ये यज्ञ धर्म की दृष्टी से नहीं था, ये तो शिव जी के अपमान के लिये था। यहाँ सीखने की बात है यदि किसी कार्य का आरम्भ गलत भाव रखकर किया जाये तो वह कार्य सफल नहीं होता है। ऐसे बहुत से काम होते हैं- बाहर से दिखाई देगा जैसे ये धर्म का काम हो रहा है, पर उनका उद्देश्य गलत होने से वो अधर्म का काम होता है। यज्ञ विध्वंस होने के बाद ब्रह्मा जी सभी देवताओं को लेकर शिव जी के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना करने लगे। शिव जी बोले - आप प्रार्थना मत करिये। आप आज्ञा करिये, क्या करना है? ब्रह्माजी ने कहा- देखो यजमान को जीवित कर दो। दक्ष, यज्ञ पूरा किये बिना मर गया है। भृगु जी की दाड़ी-मूंछ अभी तक नहीं आयी है, उनको दाड़ी-मूंछे आ जाएं, ऐसी व्यवस्था कर दो। पूषा को दांत मिल जाये। भग देवता को आँखे मिल जाये। बस हम इतना ही मांगते हैं। भगवान शिव हमेशा अपनी मस्ती में रहते हैं। बोले- अभी कर देता हूँ, इसमें कौन सी बड़ी बात है। अपने एक गण को बोला- किसी बकरे का सिर काट कर ले आओ। बकरे का सिर ही क्यों मँगाया? हाथी का, शेर का किसी का भी मँगा लेते। भगवान शिव ने सुना था कि नन्दीश्वर ने दक्ष को शाप दिया है की अगले जन्म में ये बकरा बनेगा। भगवान शिव ने सोचा- अगले जन्म में क्यों, इसी जन्म में बना देता हूँ। बकरे का सिर मंगाया और दक्ष के शरीर में जोड़ कर उसे जीवित कर दिया। दक्ष जीवित हो गया, उसने भगवान की स्तुति की और क्षमायाचना की। सती जी का पुनर्जन्म : - सती माता ने फिर से पार्वती के रूप में जन्म लिया। फिर कठिन साधना की और भगवान शिव के साथ उनका विवाह हुआ। अब उनकी बुद्धि अडोल थी। सती जी अब पार्वती रूप में अपनी ज्यादा बुद्धि नहीं लगाती हैं। वे जानती हैं जो पहले हुआ वो ज्यादा बुद्धि लगाने के कारण हुआ। शिक्षा (Moral) 1. कोई भी सत्कर्म यदि गलत भाव रखकर किया जाता है तो वह सफल नहीं होता है। 2. दक्ष यानी intelligent हम intelligent हैं पर अंहकार बहुत है तो जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकते। 3. जो ज्यादा मैं-मैं करता है उसे बकरे का जन्म मिलता है। दक्ष को भी बकरे का मुँह लगा। 4. जो एक देवता की अराधना करेगा और दूसरे का अपमान करेगा उसकी वही दशा होगी जो दक्ष की हुई। उपासना की पद्धति है- अपने आराध्य की उपासना करो और सम्मान सबका करो अपमान किसी का मत करो। अगर आप श्री कृष्ण भक्त हैं और राम मंदिर गये तो राम जी से श्री कृष्ण प्रेम मांगो। सबका सम्मान करो और अराधना अपनी आराध्य की। गुरु के प्रति, ईश्वर के प्रति अपनी ज्यादा बुद्धि नहीं लगानी चाहिये। जिज्ञासा करो पर कुर्तक मत करो। गुरु जो आदेश करें, उसको सुनो, समझो और मानो तो आपका कल्याण होगा। संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण। लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।

*पत्नी को "वामांगी" क्यों कहा जाता है?* 🙏पत्नी को "वामांगी" कहा जाता है, जिसका अर्थ है पति के शरीर का बायां हिस्सा। हिंदू परंपरा में पुरुष का बायां भाग स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है "वामांगी" शब्द का अर्थ है "बाएं हिस्से" या "शरीर का बायां भाग, पत्नी को "वामांगी" इसलिए कहा जाता है, क्योंकि माना जाता है कि वह पति के बाएं हिस्से की स्वामिनी है। यह विश्वास हिंदू पुराणों से आता है, जहां यह कहा गया है कि स्त्री की उत्पत्ति भगवान शिव के बाएं अंग से हुई है। इसका प्रतीक शिव का अर्धनारीश्वर रूप है, जो पुरुष और स्त्री ऊर्जाओं के संगम को दर्शाता है। 🔹पति-पत्नी के बाएं और दाएं हिस्से का प्रतीकात्मक महत्व: - हस्तरेखा विज्ञान और अन्य पारंपरिक विज्ञानों में माना जाता है कि पुरुष का दाहिना हाथ उसका स्वयं का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि बायां हाथ उसकी पत्नी का प्रतिनिधित्व करता है। - कुछ रीति-रिवाजों और दैनिक गतिविधियों जैसे सोते समय, सभा में बैठने, सिंदूर लगाने, भोजन करते समय, पत्नी को पति के बाएं ओर रहना चाहिए, क्योंकि इससे शुभ फल मिलता है। - हालांकि, कुछ विशेष अवसरों पर इस नियम में अपवाद भी हैं। 🔹 पत्नी को कब दाएं ओर बैठना चाहिए? - धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, कन्यादान, विवाह, यज्ञ, जातकर्म, नामकरण और अन्नप्राशन जैसे पवित्र संस्कारों के दौरान पत्नी को पति के दाएं ओर बैठना चाहिए। - ये कार्य आध्यात्मिक या पारलौकिक ("परलोकिक") माने जाते हैं और पुरुष-प्रधान माने जाते हैं, इसलिए इन अवसरों पर पत्नी को दाएं ओर बैठने का नियम है। 🔹बाएं और दाएं बैठने के पीछे का तर्क… सांसारिक कार्य, जैसे घरेलू जिम्मेदारियां, स्त्री-प्रधान माने जाते हैं, इसलिए ऐसे कार्यों में पत्नी पति के बाएं ओर बैठती है। - आध्यात्मिक या धार्मिक कार्य, जैसे यज्ञ और विवाह, पुरुष-प्रधान माने जाते हैं, इसलिए इन कार्यों में पत्नी को दाएं ओर बैठने की सलाह दी जाती है। - यह व्यवस्था पुरुष और स्त्री की ऊर्जाओं के संतुलन को दर्शाती है। 🔹पत्नी को "अर्धांगिनी" क्यों कहा जाता है? - सनातन धर्म में पत्नी को "वामांगी" के साथ-साथ "अर्धांगिनी" भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "आधा अंग।" - दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है – पत्नी के बिना पति अधूरा माना जाता है। - पत्नी पति के जीवन को पूरा करती है, उसे खुशहाली और समृद्धि प्रदान करती है, और घर का ध्यान रखती है। 🔹पति-पत्नी के संबंध का महत्व ग्रंथों में… - पति-पत्नी के संबंध को हिंदू दर्शन में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। - महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा था कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिए, क्योंकि वह ही वंश की वृद्धि का कारण है और वह घर की लक्ष्मी है। - यदि पत्नी प्रसन्न है, तो घर में समृद्धि और खुशहाली आती है। - अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी पत्नी के गुणों और उसके महत्व को विस्तार से समझाया गया है।

■ 7 दिवस = 1 सप्ताह ■ 4 सप्ताह = 1 माह , ■ 2 माह = 1 ऋतू ■ 6 ऋतू = 1 वर्ष , ■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी ■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी , ■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग ■ 2 युग = 1 द्वापर युग , ■ 3 युग = 1 त्रैता युग , ■ 4 युग = सतयुग ■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग ■ 72 महायुग = मनवन्तर , ■ 1000 महायुग = 1 कल्प ■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ ) ■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म ) ■ महालय = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म ) सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है l दो लिंग : नर और नारी । दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)। दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन। तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर। तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी। तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल। तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु। तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत। तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा। तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव। तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी। तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान। तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना। तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं। तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति। चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका। चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार। चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार निति : साम, दाम, दंड, भेद। चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद। चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री। चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग। चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात। चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा। चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु। चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर। चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज। चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्। चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य। चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन। पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु। पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि। पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा। पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य। पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर। पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस। पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा। पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान। पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन। पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)। पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक। पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी। छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर। छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष। छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान। छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य। सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती। सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि। सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद। सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार। सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि। सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब। सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप। सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक। सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज। सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य। सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल। सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल। सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची। सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा। आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा। आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी। आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास। आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व। आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा। नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री। नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु। नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया। नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि। दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला। दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, आकाश, पृथ्वी। दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत। दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि। दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।