
Sanatan Kahaniya (Daily Story, कहानी, Kahani )
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कृपया सभी माननीय मेम्बर्स ध्यान देवें जी 🙏🏻 ० यह व्हाट्सएप्प चैनल भावनात्मक, प्रेरणादायक व धार्मिक कहानी से संबंधित है। इसमें कहानियां पोस्ट की जाती हैं, पोस्टों को अपने परिचितों, जानकारों मित्रों, रिश्तेदारों सभी से शेयर करें, चैनल की जानकारी देवें, चैनल ज्वाइन करवाएं जी। #स्टोरी #कहानी #कहानिया #story #stories #spiritual #motivational #social #धार्मिक #प्रेरणादायक #सामाजिक #भावनात्मक #dharmik निवेदक ~जोगी बाबा🙏🏻
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. *उद्धव - कृष्ण संवाद* उद्धव ने कृष्ण से पूछा, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया! लेकिन आप यह दावा भी कैसे कर सकते हैं ? उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है! एक स्त्री का शील क्या बचा ? आपने क्या बचाया ? अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है ? बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा ? क्या यही धर्म है ?" इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं! उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए। भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले- "प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है। उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं। यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।" https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा। जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार? चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की और वह यह कि - उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए! क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य के खेल को मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं! इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी! इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे! अपने भाई के आदेश पर जब दुःशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही! तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा! उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुःशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया! जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर- 'हरि, हरि, अभयम् कृष्णा, अभयम्'- की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला। जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ ?" उद्धव बोले- "कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई! क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?" कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा- "इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा ? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे ?" कृष्ण मुस्कुराए- "उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ। मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ। मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ। यही ईश्वर का धर्म है।" "वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?" हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे ? आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें ? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें ?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा! तब कृष्ण बोले- "उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।" जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे ? तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे। जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! *1. आत्मनिर्भरता के साथ विवेक का प्रयोग आवश्यक है:* धर्मराज युधिष्ठिर ने विवेक का त्याग कर, न तो ठीक से निर्णय लिया और न ही संकट से उबरने का उपाय किया। *हमें सिखाया गया है कि भाग्य पर नहीं, अपने विवेक और कर्म पर भरोसा रखो।* 2. संकट में भी ईश्वर तभी सहायता करते हैं जब हम उन्हें पुकारते हैं: द्रौपदी ने जब तक स्वयं पर निर्भरता रखी, श्रीकृष्ण प्रकट नहीं हुए। जैसे ही उसने पूर्ण श्रद्धा से पुकारा, भगवान उसकी रक्षा के लिए उपस्थित हो गए। *यह सिखाता है कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना ही ईश्वर को सक्रिय करती है।* *3. भगवान ‘साक्षी भाव’ में रहते हैं – हमें सदैव सजग रहना चाहिए:* कृष्ण बताते हैं कि वे सदा पास रहते हैं, पर हस्तक्षेप नहीं करते जब तक हम उन्हें पुकारें नहीं। *इससे हमें चेतना मिलती है कि हर कर्म उनके साक्षी भाव में हो रहा है, इसलिए हमें हर कार्य सोच-समझकर करना चाहिए।* *4. बुरे कर्म की शुरुआत तब होती है जब हम ईश्वर को भूल जाते हैं:* जब मनुष्य यह मान बैठता है कि कोई देख नहीं रहा, तभी पाप जन्म लेता है। *अगर हर क्षण यह स्मरण रहे कि प्रभु हमारे साथ हैं, तो हम पाप करने से बच सकते हैं।* *5. धर्म और आस्था केवल भावना नहीं, विवेक और समय पर निर्णय की माँग करते हैं:* सिर्फ पूजा-पाठ से नहीं, बल्कि समय पर सही निर्णय लेना ही सच्चा धर्म है। *कृष्ण की सीख है कि भावुकता के बजाय विवेक से धर्म की रक्षा की जाए।* *निष्कर्ष:* यह संवाद हमें सतर्क करता है कि ईश्वर हमारे साथ हैं, पर जिम्मेदारी हमारे कर्म की है। अगर हम सच्चे हैं, तो ईश्वर कभी दूर नहीं। *"जब पुकार सच्ची हो, तो भगवान भी देरी नहीं करते।"* 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऐसी ही और पोस्ट के लिए वॉट्सएप चैनल पर सनातन कहानियाँ ग्रुप से जुड़ने के लिए लिंक को टच करें और चैनल को फॉलो करें🙏 *सनातन कहानियाँ* WhatsApp Channel Link👇🏻 https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z Telegram Join Link👇🏻 https://t.me/Sanatan100 ० ग्रुप धार्मिक, भावनात्मक व प्रेरणादायक पोस्टों से संबंधित है। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊

. *घमंडी का सिर नीचा* प्राचीन काल की बात है। किसी गांव में चंद्रभूषण नाम का एक विद्धवान रहता था। https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z उसकी वाणी में गजब का आकर्षण था। वह भागवत कथा सुनाने में निपुण था। उसकी वाणी से कथासार सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे। इसीलिए उसके यहां पर रोज कथा सुनने वालों की भीड़ लगी रहती थी। दूर दूर से लोग चंद्रभूषण से भागवत कथा सुनने आते थे। उसी गांव में एक दूसरे विद्वान भी रहते थे, नाम था नंबियार। पढ़े लिखे तो बहुत थे, पर थे बहुत घमंडी, स्वयं को बहुत बड़ा विद्धवान समझा करते थे। सोचते, कहां कल का छोकरा चंद्रभूषण, जो अटक अटक कर कथा पढ़ता है और कहां मैं, शास्त्रों का मर्म जानने वाला । किंतु जब भी नंबियार चंद्रभूषण के घर के सामने से गुजरते, उसके श्रोताओं की भीड़ देखकर उनका मन ईर्ष्या से भर उठता। मन ही मन सोचते, यह चंद्रभूषण क्या जादू करता है कि इसके यहां दिनों दिन श्रोताओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे तो मेरी नाक नीची हो जाएगी। मुझे कुछ करना चाहिए। एक दिन की बात है, नंबियार थके हारे घर लौटे। भूख भी जोरों की लगी थी। लेकिन घर आकर देखा तो उसकी पत्नी दिखाई न दी। एक दो बार आवाज भी लगाई, मगर चुप्पी छाई रही। अचानक नंबियार का मन आशंका से भर उठा कहीं मेरी पत्नी चंद्रभूषण के यहां कथा सुनने तो नहीं चली गई? ईर्ष्या और क्रोध से नंबियार के नथुने फड़कने लगे। एक एक पल उन्हें हजार घण्टे के बराबर लगा। जब रहा ही नहीं गया, तो वह चंद्रभूषण के घर की आरे चल दिए। चंद्रभूषण के दरवाजे पर पहुंचकर नंबियार ठिठक गए। वहां श्रोताओं की अपार भीड़ थी। सब मंत्रमुग्ध होकर कथा सुन रहे थे। नंबियार ने देखा श्रोताओं के बीच उसकी पत्नी भी बैठी है। बस, फिर क्या था। उनका क्रोध भड़क उठा। वह दनदनाते हुए चंद्रभूषण के आसन के पास पहुंच गए और चिल्लाकर बोले.. ”चंद्रभूषण, तुम दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख हो और तुमसे बड़े मूर्ख ये सारे लोग हैं जो यहां इकट्ठा होकर तुम्हारी बकवास सुन रहे हैं।“ नंबियार की बात को सुनकर चंद्रभूषण आश्चर्य में पड़ गया। कथा बीच में ही छूट गई। सारे श्रोता नंबियार को बुरा भला कहते हुए अपने अपने घर लौट गए। घर पहुंचकर बाकी बचा गुस्सा नंबियार ने अपनी पत्नी पर निकाला। बोले, ”क्या जरूरत थी तुम्हें वहां जाने की? क्या मुझसे बड़ा विद्धवान है चंद्रभूषण? मेरे पास शास्त्रों का भण्डार है। मगर तुम्हें कौन बताए, लगता है तुम्हारी खोपड़ी में बुद्धि नहीं है।“ ”क्यों अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हो? तुम ऐसे ही बड़े हो तो चंद्रभूषण की तरह इतने लोगों को इकट्ठा करके दिखाओ। मैं तुम्हारे ज्ञान को मान लूंगी। मैं तुम्हारी जली कटी रोज सुनती हूं। अब तुम दूसरों को भी अपमानित करने लगे। तुम्हें कोई और काम नहीं सिवा ईर्ष्या के।“ इतना कहकर तिलमिलाती हुई नंबियार की पत्नी भीतर चली गई। उस रात दोनों में से किसी ने भोजन नहीं किया। पत्नी तो थोड़ी देर में सो गई। पर नंबियार की आंखों में नींद नहीं थी। शाम की सारी घटना जैसे उनकी आंखों में तैर रही थी। रह रहकर उसी घटना के बारे में सोचते आखिर मैंने चंद्रभूषण का अपमान क्यों किया? वह जितना सोचते, उनकी बेचैनी उतनी ही बढ़ती जाती। बाहर काफी सर्दी थी, मगर गला सूखने के कारण वह बार बार पानी पी रहे थे। यही बात सोचते सोचते उनका सारा गुस्सा पश्चाताप में बदल गया। ओह, यह मैंने क्या किया? मेरे मन में भगवान की भक्ति के नाम पर इतना द्वेष और चंद्रभूषण के स्वभाव में इतनी विनम्रता। इतना अपमान सहने के बाद भी वह एक शब्द न बोला। जैसे ही भोर का तारा दिखा, नंबियार ने पश्चाताप प्रकट करने हेतु चंद्रभूषण के घर जाने के लिए दरवाजा खोला। उन्होंने देखा, चौखट के पास कोई आदमी कंबल ओढ़े बैठा है। वह जाड़े से सिकुड़ रहा था। जैसे ही नंबियार ने कदम आगे बढ़ाया, वह उनके पैर छूने के लिए आगे बढ़ा। ”यह क्या करते हो? कौन हो तुम?“ कहते हुए नंबियार पीछे हट गए। उस व्यक्ति को ध्यान से देखा। सामने हाथ जोड़े खड़ा व्यक्ति और कोई नहीं था, कथावाचक चंद्रभूषण ही था। जब तक नंबियार कुछ कहते, चंद्रभूषण बोल उठा, ”आपने अच्छा ही किया, जो मेरा दोष मुझे बता दिया। लेकिन लगता है, आप मुझसे अभी तक नाराज हैं। मैं रात भर यहां बैठकर आपका इंतजार करता रहा। शायद आप बाहर आएं और मैं आपसे क्षमा मांगूं।“ नंबियार तो पहले ही लज्जित थे। उन्होंने लपककर चंद्रभूषण को अपने गले से लगा लिया। बोले, ”भाई, दोष मेरा है तुम्हारा नहीं। मैं घमंड में अंधा हो गया था। तुमने अपनी विनम्रता से मेरा घमंड चूर चूर कर दिया। सच कहता हूं, तुमने मेरी आंखें खोल दीं। वास्तव में यदि विनम्रता न हो तो ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।“ दोनों की आंखों में आंसू थे। उसके बाद नंबियार ने ईर्ष्या द्वेष और घमंड का त्याग कर दिया। *आप चाहे किसी भी समाज से हो, अगर आप अपने समाज के किसी उभरते हुए व्यक्तित्व से जलते हो या उसकी निंदा करते हो तो आप निश्चित रूप से उस समाज के लिए कलंक हो ।* 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऐसी ही और पोस्ट के लिए वॉट्सएप चैनल पर सनातन कहानियाँ ग्रुप से जुड़ने के लिए लिंक को टच करें और चैनल को फॉलो करें🙏 *सनातन कहानियाँ* WhatsApp Channel Link👇🏻 https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z Telegram Join Link👇🏻 https://t.me/Sanatan100 ० ग्रुप धार्मिक, भावनात्मक व प्रेरणादायक पोस्टों से संबंधित है। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊

. नारद जी के मोह की कथा एक बार नारद मुनि तपस्या करने हिमालय पहुँचे। वहां गंगा के तट पर एक अत्यंत सुन्दर और रमणीक स्थान देखकर उसी स्थान पर समाधी में लीन हो गए। https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z इन्द्र द्वारा नारद मुनि की तपस्या में विघ्न का प्रयास नारद मुनि के इस प्रकार तप करने की सूचना जब देवराज इन्द्र को मिली तो वे सोचने लगे की हो न हो नारद मुनि इन्द्र पद लेने के उद्देश्य से ही इतनी कठिन तपस्या कर रहे हैं। ऐसा सोचकर उन्होंने नारद मुनि की तपस्या में विघ्न डालने के उद्देश्य से कामदेव को बुलाया और उनको आज्ञा दी की किसी भी प्रकार नारद मुनि की तपस्या भंग करो। कामदेव तुरंत अपने सारे अस्त्र शस्त्रों के साथ उस स्थान पर पहुँचे जहाँ नारद मुनि समाधी में लीन थे और उन्होंने नारद मुनि की तपस्या भंग करने का सब प्रकार से यत्न किया पर नारद मुनि पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंत में निराश होकर कामदेव वापस लौट गए। सूतजी कहते हैं कि जो नारद मुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा उसका कारण ये था की उसी स्थान पर एक समय भगवान शिव ने तपस्या की थी और कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया था। कुछ समय बीतने पर जब नारद मुनि की साधना पूर्ण हुई तब उनके मन में कामदेव पर विजय पाने का गर्व हो गया और वे इस वृतांत को भगवान शिव को सुनाने कैलाश पहुँचे और कामदेव पर विजय पाने का सारा वृतांत भगवान शंकर को सुनाया। ये सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव जो नारद के कामदेव पर विजय का कारण जानते थे कहा – “हे नारद, तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो इसलिए तुम्हें ये शिक्षा दे रहा हूँ कि इस घटना के विषय में किसी और के पास चर्चा मत करना और इसे गुप्त रखना।” पर मन में अहंकार हो जाने के कारण नारद मुनि ने भगवान शिव के परामर्श को नहीं माना और ब्रह्मलोक पहुँचे, वहां पहुँचकर उन्होंने ब्रह्मा जी की स्तुति करके उनसे भी इस घटना की चर्चा की। नारद मुनि ने सोचा की उनके द्वारा काम विजय का समाचार सुनकर पिता ब्रह्मा उनकी प्रशंसा करेंगे पर ब्रह्मा जी ने भी भगवान शिव के समान ही नारद से इस विषय को गुप्त रखने को कहा। निराश होकर नारद मुनि विष्णुलोक पहुँचे, वहाँ नारद मुनि को आए देखकर अंतर्यामी भगवान विष्णु ने नारद मुनि का बहुत प्रकार से स्वागत किया और उन्हें उचित आसन देकर उनके आगमन का कारण पुछा। तब नारद मुनि ने भगवान विष्णु को अपने काम विजय का सारा वृतांत कह सुनाया। नारद मुनि के अहंकार युक्त वचन सुनकर विष्णु भगवान ने नारद मुनि की बहुत प्रशंसा की। तब नारद मुनि भगवान विष्णु को प्रणाम करके गर्वित भाव से वहाँ से चल दिए। भगवान विष्णु अपने भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करते हैं, अहंकार पतन के द्वार खोल देता है इसलिए अपने परम भक्त नारद के कल्याण के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने एक माया रची। उन्होंने नारद मुनि के मार्ग में एक विशाल नगरी की रचना की जो हर प्रकार से सुन्दर, सुशोभित और रमणीक था। जब नारद मुनि वहाँ पहुँचे तो देखा की वहाँ के राजा ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया है जिसमें बहुत से राजा और राजकुमार पहुँचे हैं। तब नारद मुनि उस राजा के महल में पहुँचे, नारद मुनि को देखकर राजा ने उनको सिंघासन पर बिठाया और उनकी हर प्रकार से सेवा सत्कार की। इसके बाद राजा ने अपनी पुत्री को बुलाया और नारद मुनि से कहा की हे मुनि विशारद, आप तो ज्योतिष के महाज्ञानी हैं मैंने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया है कृपया इसका भाग्य बताइये, इसे कैसा वर मिलेगा आदि आदि। जब नारद मुनि ने उस परम सुंदरी राजकुमारी का भाग्य देखा तो चकित हो गए। सब प्रकार के सुन्दर लक्षणों से संपन्न उस राजकन्या को देखकर नारद मुनि ने कहा – “हे राजन, आपकी कन्या समस्त शुभ लक्षणों से युक्त, परम सौभाग्यशालिनी और साक्षात लक्ष्मी के समान ही है। जो भी इस कन्या से विवाह करेगा वो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। देवता और असुर भी उसे पराजित नहीं कर पाएंगे।” ऐसा कहकर नारद मुनि राजा से विदा लेकर वहाँ से चल दिए और मन ही मन उस कन्या से स्वयं विवाह करने की इच्छा करने लगे। इस प्रकार तत्वज्ञानी नारद मोह माया के चुम्बकीय आकर्षण में फंस गए। समस्त नारीयों को सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है और इस संसार में भगवान विष्णु से सुन्दर कौन है ऐसा सोचकर नारद मुनि विष्णुलोक पहुँचे। उनको आया देखकर भगवान विष्णु अपनी ही माया से मोहित नारद मुनि से उनके आने का कारण पुछा। तब नारद मुनि ने भगवान विष्णु से सारा वृत्तांत सुनाया और कहा – “हे नाथ, मुझे अपने ही समान सुन्दर रूप दें जिससे वह कन्या स्वयंवर में मेरा ही वरण करे।” ये सुनकर भगवान मंद मंद मुस्काने लगे और कहा – “हे मुनिराज, जिसमें भी तुम्हारा भला हो मैं वही काम करूँगा तुम उस स्थान को जाओ।” ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने नारद मुनि के सब अंग प्रत्यंग अपने ही समान कर दिया पर मुख वानर का दे दिया। अपने अंगों को भगवान के समान हुआ देखकर नारद मुनि अत्यंत प्रसन्न हुए और स्वयंवर में पहुँच कर जहाँ राजागण बैठे हुए थे वहीँ जाकर एक आसन पर विराजमान हो गए और मन में सोचने लगे की मैंने तो भगवान विष्णु के समान रूप धारण किया हुआ है अतः वह राजकुमारी अवश्य ही मेरा वरण करेगी पर नारद मुनि इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनका मुँह कितना कुरूप है। वहाँ नारद मुनि की रक्षा के लिए विष्णु भगवान ने अपने दो पार्षद भेजे थे जो ब्राह्मण का रूप धरकर नारद मुनि के पास ही बैठ गए। वे दोनों पार्षद मुनि को उनके वास्तविक स्वरुप का भेद बताने के लिए आपस में बातचीत करते हुए नारद मुनि की हंसी उड़ाने लगे पर कामविह्वल नारद मुनि ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और राजकुमारी के आने की प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर बाद राजकुमारी स्त्रियों से घिरी हुई वरमाला लेकर उस मंडप में आई और अपने इच्छानुसार वर को ढूंढते हुए उस सभा में भ्रमण करने लगी। नारद मुनि के वानर रुपी मुख को देखकर वह राजकन्या कुपित हो गई और आगे बढ़ गई। पुरे सभा में अपने मन के अनुसार वर को न पाकर वह कन्या दुखी हो गई। इतने में उस सभा में भगवान विष्णु प्रकट हुए, विष्णु भगवान को देखकर वह राजकन्या अत्यंत प्रसन्न हुई और वरमाला उनके गले में डाल दिया। विष्णु भगवान उस कन्या को साथ लेकर तुरंत वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए और अपने लोक चले गए। ये देखकर नारद मुनि के मन में बहुत क्षोभ हुआ। तब भगवान के भेजे हुए ब्राह्मण रूपधारी पार्षदों ने नारद मुनि को आईने में अपना मुँह देखने को कहा। अपना वास्तविक स्वरुप देखकर नारद मुनि के क्रोध की सीमा न रही और उन्होंने उन दोनों पार्षदों को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया और स्वयं क्रोध की अग्नि में जलते हुए विष्णुलोक पहुँचे। वह कन्या वास्तव में स्वयं महालक्ष्मी ही थीं पर काम रुपी मेघ ने उनके ज्ञान रुपी सूर्य को ढक दिया था जिसके कारण नारद मोह माया के इस भेद को समझ नहीं पाए और क्रोधवश भगवान विष्णु को दुर्वचन सुनाने लगे और श्राप देते हुए कहा – “हे विष्णु, आपने मेरे साथ छल किया है, मुझे वानर का रूप दे दिया और स्वयं उस कन्या का वरण कर लिया। आपके कारण जिस प्रकार मैं स्त्री के लिए व्याकुल हुआ हूँ उसी प्रकार आप भी मनुष्य रूप में धरती पर जन्म लेंगे और स्त्री वियोग का दुःख प्राप्त करेंगे।” अज्ञान से मोहित हुए नारद मुनि ने जब भगवान विष्णु को श्राप दे दिया तब मायापति ने नारद मुनि को शांत किया और अपनी माया को खींच लिया। माया के हटते ही नारद मुनि को पहले के समान ही ज्ञान हो गया और उन्हें अपनी करनी पर अत्यंत पश्चाताप होने लगा और बार बार अपनी निंदा करते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े और कहने लगे – “हे नारायण, कामवश मोहित होकर मैंने ये क्या कर दिया, मैंने आपको श्राप भी दे दिया। हे लक्ष्मीपति, मेरे वचनों को मिथ्या कर दीजिये।” तब भगवान बोले – “हे मुनिश्रेष्ठ, ये सब जो हुआ वह भगवान शिव की ही माया है, जो तुमने मद में आकर उनकी बात नहीं मानी उसी के कारण ये सब हुआ। पर तुम्हारे श्राप में भी जगत का कल्याण छिपा हुआ है। तुम्हारे श्राप के कारण ही आज मेरे रामावतार का बीजारोपण हो गया।” नारद मुनि के श्राप के कारण ही भगवान विष्णु के दोनों पार्षद रावण – कुम्भकरण के रूप में पृथ्वी पर राक्षस रूप में जन्म लिया और स्वयं भगवान विष्णु ने राम अवतार लेकर उनको मुक्ति दिलाई। राम अवतार में भगवान विष्णु को नारद मुनि के श्राप के कारण स्त्री वियोग का दुःख भी झेलना पड़ा था। 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. क्या खोजते हो दुनिया में, जब सब कुछ तेरे अन्दर में, क्यों ढूंढ़ते हो और जगह में, जब तेरा मन ही मंदिर है। दुनिया बस एक दौड़ नहीं, रुक कर खुद से बातें करले, अन्तर मन को शान्त तो करले। सपनों की गहराई को समझो, अपने अन्दर की अच्छाई को समझो। स्वाध्याय की आदत डालो, आलस्य तुम्हारा दुश्मन है तो, पुरुशार्थ को अपना दोस्त बनालो। जीवन का ये रहस्य समझलो खुशीयों को तुम अपना बनालो। .

. *"जीवन" मिलना "भाग्य" की बात है* *"मृत्यु" होना "समय" की बात है* *लेकिन..मृत्यु के बाद भी* *लोगो के "दिलो" में "जीवित" रहना* *ये "कर्मो" की बात है !* .

. गरीब का झोंपड़ा गरीब आदमी की झोपड़ी पर…एक रात बहुत जोर की वर्षा हो रही थी। साधु था; छोटी—सी झोपड़ी थी। स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे। आधी रात किसी ने द्वार पर दस्तक दी। साधु ने अपनी पत्नी से कहा: उठ, द्वार खोल दे। पत्नी द्वार के करीब सो रही थी। पत्नी ने कहा: इस आधी रात में जगह कहां है? कोई अगर शरण मांगेगा तो तुम मना न कर सकोगे। वर्षा जोर की हो रही है। कोई शरण मांगने के लिए ही द्वार आया होगा। जगह कहां है? उस साधु ने कहा: जगह? दो के सोने के लायक काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी होगी। तू दरवाजा खोल! लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है। दरवाजा खोला। कोई शरण ही मांग रहा था; भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी। तीनों बैठकर गपशप करने लगे। सोने लायक तो जगह न थी। थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी। फिर साधु ने अपनी पत्नी से कहा: खोल। पत्नी ने कहा: अब करोगे क्या, जगह कहां है? अगर किसी ने शरण मांगी? उस साधु ने कहा: अभी बैठने लायक जगह है, फिर खड़े रहेंगे; मगर दरवाजा खोल। फिर दरवाजा खोला। फिर कोई आ गया। अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे। इतना छोटा झोपड़ा! और तब अंततः एक गधे ने आकर जोर से आवाज की, दरवाजे को हिलाया। साधु ने कहा: दरवाजा खोलो। पत्नी ने कहा: अब तुम पागल हुए हो, यह गधा है, आदमी भी नहीं! साधु ने कहा: हमने आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था। हमें गधे और आदमी में क्या फर्क? हमने मेहमानों के लिए दरवाजा खोला था। उसने भी आवाज दी है। उसने भी द्वार हिलाया है। उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम पूरा करना है। दरवाजा खोलो! उसकी औरत ने कहा: अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! साधु ने कहा: अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर सटकर खड़े हो जाएंगे और याद रख एक बात कि यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो! यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है! यह कहानी मैंने पढ़ी, तो मैं हैरान हुआ। उसने कहा: यह कोई अमीर का महल नहीं है जिसमें जगह न हो। यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है। जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह हृदयों में होती है। अक्सर तुम पाओगे, गरीब कंजूस नहीं होता। कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं। पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे—जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे वैसे कंजूस होने लगता है; क्योंकि जैसे—जैसे पकड़ने को होता है, वैसे—वैसे पकड़ने का मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है। 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऐसी ही और पोस्ट के लिए वॉट्सएप चैनल पर सनातन कहानियाँ ग्रुप से जुड़ने के लिए लिंक को टच करें और चैनल को फॉलो करें🙏 *सनातन कहानियाँ* WhatsApp Channel Link👇🏻 https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z Telegram Join Link👇🏻 https://t.me/Sanatan100 ० ग्रुप धार्मिक, भावनात्मक व प्रेरणादायक पोस्टों से संबंधित है। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊

. *अति वाचालता* एक राजा बहुत अधिक बोलता था। उसका मन्त्री विद्वान् और हितचिन्तक था। इसलिये सोचता रहता था कि राजा को कैसे इस दोष से मुक्त करूँ और वह ज्ञान दूँ, जो कि मनुष्य के हृदय में बहुत गहराई से उतरकर उसके स्वभाव का अंग बन जाता है। मन्त्री हमेशा राजा के हित की सोचता रहता था और उचित अवसर की तलाश में था कि राजा को अपने इस दोष का आभास हो और उसके द्वारा होनेवाली हानि को समझकर उसमें से निकल जायँ। एक दिन की बात है, राजा मन्त्री के साथ उद्यान में घूमते हुए एक शिला पर बैठ गया। शिला के ऊपर एक छायादार पेड़ था। उस आमके पेड़ पर कौवे का एक घोंसला था, उसमें काली कोयल अपना अण्डा रख गयी। कोयल अपना घोंसला नहीं बनाती, वरन् कौवे के घोंसले में ही अण्डा रख देती है। कौवी उस अण्डे को अपना समझकर पालती रहती है। आगे चलकर उसमें से कोयल का बच्चा निकला। कौवी उसे अपना पुत्र समझकर चोंच से चुग्गा ला, उसे पालती थी। कोयल के बच्चे ने असमय जबकि उसके पर भी नहीं निकले थे, कोयल की आवाज की। कौवी ने सोचा- 'यह अभी विचित्र आवाज करता है, बड़ा होने पर क्या करेगा ?' कौवी ने चोंच से मार-मारकर उसकी हत्या कर दी और घोंसले से नीचे गिरा दिया। राजा जहाँ बैठा था, वह बच्चा वहीं उसके पैरों के पास गिरा। राजा ने मन्त्री से पूछा-'मित्र ! यह क्या है ?' मन्त्री को राजा की भूल बताने का यह अवसर मिल गया। इसी अवसर का फायदा उठाकर मन्त्री ने कहा- 'महाराज ! अति वाचाल (बहुत बोलनेवालों) की यही गति होती है।' पूछने पर मन्त्री ने पूरी बात राजा को समझाकर बतायी कि कैसे यह बच्चा असमय आवाज करने से नीचे गिरा और मृत्यु को प्राप्त हुआ। यदि यह चुप रहता तो यथा समय घोंसले से उड़ जाता। इतना कहकर मन्त्री ने राजा को मौका देखकर उसकी वाचालता दूर करने के लिये यह प्रत्यक्ष उदाहरण बताकर नीति बतायी। 'चाहे मनुष्य हो, चाहे पशु-पक्षी; असमय अधिक बोलने से इसी तरह दुःख भोगते हैं।' उसने वाणी के अन्य दोष और उसके दुष्परिणाम राजा को बताये। 'दुर्भाषित वाणी हलाहल विष के समान ऐसा नाश करती है, जैसा तेज किया हुआ शस्त्र भी नहीं कर सकता। इसीलिये बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि वाणी की समय- असमय रक्षा करे। अपने समकक्ष व्यक्तियों से कभी अधिक बातचीत न करे। जो बुद्धिमान् समय पर विचारपूर्वक थोड़ा बोलता है, वह सबको अपने वश में कर लेता है।' बुद्धिमान् और प्रज्ञावान् मन्त्री की बात सुनकर राजा अति वाचालता के दोष को दूर कर मितभाषी हो गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा, उसने प्रसन्न होकर मन्त्री को मान और वैभव से कृतार्थ किया। 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऐसी ही और पोस्ट के लिए वॉट्सएप चैनल पर सनातन कहानियाँ ग्रुप से जुड़ने के लिए लिंक को टच करें और चैनल को फॉलो करें🙏 *सनातन कहानियाँ* WhatsApp Channel Link👇🏻 https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z Telegram Join Link👇🏻 https://t.me/Sanatan100 ० ग्रुप धार्मिक, भावनात्मक व प्रेरणादायक पोस्टों से संबंधित है। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊

* _*ऊपर दी गई तस्वीर में मोह और प्रेम को समझने और समझाने का बहुत ही सरल उपाय बताया गया है।...*_ * _*मोह में जीव सिर्फ पाना और उस पर अपना नियंत्रण करना या उसके बंधन में बंधना चाहता है।...*_ * _*जबकी प्रेम में ऐसा नहींं है। प्रेम में त्याग है, उसकी प्रसन्नता है, जिसमें वह प्रसन्न, उसी में प्रसन्न और बंधनरहित होता है ।...*_ * _*वैसे यह तस्वीर अपने आप में ही बहुत कुछ बतला रही है*।_


*कंगाल को भी करोड़पति बना सकती है आपकी ये 5 आदत, गुरुड़ पुराण में छिपा है इसका रहस्य* 1. गरुड़ पुराण के अनुसार अपनी कमाई का एक हिस्सा दान, धर्म कर्म के मामले में खर्च करने वालों को धन का कभी अभाव नहीं रहता. ये ऐसा काम है जो व्यक्ति को फर्श से अर्श तक ले जा सकता है. इसके प्रभाव से कंगाल भी करोड़पति बन सकता है। 2. कहते हैं पैसा कमाना तो आसान है लेकिन उसे बरकरार रखना उतना ही मुश्किल. गुरुड़ पुराण में बताया गया है कि जो लोग अपने धन का अहंकार नहीं करते, पैसों का रौब नहीं दिखाते मां लक्ष्मी सदा उनके घर वास करती हैं. ऐसे लोगों को कभी दर-दर की ठोकरे नहीं खानी पड़ती। 3. उधार लिया पैसा हमेशा पूरा चुकाना चाहिए, साथ ही गरुड़ पुराण में वर्णित है कि धन के लिए लालच करने, धोखा देने या चोरी करने वालों के पास मां लक्ष्मी कभी नहीं ठहरती हैं. इसलिए इन बातों का विशेष ध्यान रखें। 4. गुरुड़ पुराण में लिखे अनुसार मैले वस्त्र, गंदे दांत, ज्यादा खाने वाले, निष्ठुर वाणी वाले और सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोने वाले को देवी लक्ष्मी त्याग देती हैं. ऐसे में इन नियमों का सख्ती से पालन करें। 5. जिन घरों के लोगों पर पूर्वजों का आशीर्वाद होता है उन्हें कभी धन की कमी नहीं होती।

. *एक अनोखे व श्रेष्ठ शिष्य की गुरुभक्ति गाथा* मिलारेपा(शिष्य) की इच्छा तो पवित्र थी परन्तु वह जब तक गुरु के मार्गदर्शन में था तब तक सुरक्षित था। परन्तु जैसे ही वह किसी और के प्रभाव में आया तभी से उसके पतन का प्रारम्भ हो गया। इच्छा पवित्र हो परन्तु संगती गलत हो तो कभी काम नहीं बनेगा। तुम इस मार्ग पर चल रहे हो तो तुम्हारा मार्गदर्शक कौन है ?इसका बड़े ही सूक्ष्मता से विचार करना चाहिये। गुरु कोई आज्ञा करें और तुमको उन आज्ञाओं का पालन करने में तकलीफ महसूस होती हो या तुमको वह आज्ञा प्रतिकूल लगती हो तो समझो कि तुम उनके मार्गदर्शन में नहीं हो। तुम अपने मन के मार्गदर्शन में हो, विकारों के मार्गदर्शन में हो और ये विकार कभी उन्नतिकारक मार्गदर्शक नहीं हो सकते। जो इनको अपना मार्गदर्शन बनाता है या ऐसे कह लो कि गुरु के अलावा जो अन्य को अपना मार्गदर्शक बनाता है वह गुरुद्वार पर कैसे टिकेगा ? नहीं टिक पाएगा। मिलारेपा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z प्यारे शिष्यो मेरा रोष धर्मयुक्त था वह दुनियावी क्रोध की तरह तपाने वाला नहीं था। मेरी सभी क्रियांऐं धर्मयुक्त, शिष्य के कल्याण के लिये, लोगों के कल्याण के लिये और मोक्ष मार्ग में अग्रसर करने के लिए हैं। प्यारो! जिनकी साधना अभी तक पूर्ण नहीं हुई हैI जो अभी तक अपनी मंज़िल तक पहुंचे नहीं हैI उनको कभी भी अपनी निष्ठा को डिगने से बचाना चाहिये। अपनी निष्ठा की जितनी सुरक्षा होगी उतनी ही स्वः की सुरक्षा होगी। अगर निष्ठा हिली तो समझना कि तुम्हारी जड़ें हिल गयीं। गुरु मारपा कहते हैं कि जब तक ज्ञान न हो तब तक अपनी निष्ठा को एकाकार रखना चाहिये। अगर मिलारेपा की गुरु में एकनिष्ठा होती तो अभी तक मिलारेपा को सिद्धि प्राप्त करने में इतनी देर ना लगी होती। मैंने मिलारेपा की नौ प्रकार की कसौटी करनी चाही परन्तु दगमे की ममता ने उसे उत्तीर्ण होने नहीं दिया। मिलारेपा ने तो मेरी आठ कसौटियों को पार करके लगभग अपने सारे पाप कर्मों को काट लिये परन्तु नौवीं कसौटी को पार नहीं कर पाया कचास रह गयी। मिलारेपा मैं तुमको स्वीकार करता हूं। बेटे! मैं तो इसलिये यहां हूं कि शिष्य का कल्याण कर सकूं। तुम मेरे से दीक्षा लेने के लिए तड़पते रहे। तुम चाहते रहे कि मैं तुमको अपना शिष्य स्वीकार करूं परन्तु मिलारेपा मैं चाहता था कि जल्दी जल्दी तुम्हारे सभी कर्मों को नष्ट करके तुमको समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त कर दूं। पगले तुझे स्वीकार ही किया था तभी तो तुझे अपनी आज्ञाओं में रखा। ज्यूं ही गुरु मारपा के ये वचन मिलारेपा ने सुना वह खुशी के मारे उछल पड़ा और गुरु मारपा के चरणों में गिर पड़ा। और अपने आंसुओं से गुरुदेव के चरणों को पखारने लगा। कितना सूंदर दृश्य है इस दृश्य को मिलारेपा ने ही पूरी तरह से अनुभव किया होगा। या तो कोई सत्शिष्य ही अनुभव कर पाता होगा जिसने स्वयं को ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में सर्मपित कर दिया है। गुरु मारपा ने मिलारेपा को दीक्षित किया मुंडन करके उसे बोधी सत्व की उपाधि प्रदान की। गुरु मारपा ने मिलारेपा का नया नामकरण भी किया। “मिलावज्र”। आगे गुरु मारपा ने खोलते हुए रहस्य बताया कि शुरुआत में मिलारेपा जब तुम मुझे खोज रहे थे तब तुम्हारे आने से पहले ही मुझे ज्ञात हो गया था कि तुम मेरे पास आने वाले हो। इसीलिए तो मैंने हल लेकर खेतों में मज़दूरी करने का स्वांग किया था। क्या तुम्हें याद है? और क्या तुमने मुझे उसके बाद खेतों में काम करते हुए फिर कभी देखा ? सिर्फ तुम्हारा हाथ पकड़कर लाने के लिए ही मैं वहां पहले से पहुंच गया था। और बात भी बिल्कुल सही है कि सभी को गुरुदेव ही तो ले आते हैं। आगे मारपा कहते हैं कि मुझे मालूम था तुम्हीं हो जो मेरे ज्ञान को मेरी विद्या को पूर्णतः आत्मसात करोगे।मिलारेपा तुम इतिहास में मेरे प्रमुख शिष्य के रूप में जाने जाओगे। मैंने तुम्हारे हीन कर्मों को जलाकर तुम्हें पाप मुक्त करने के लिये तुम्हारे से हवेली बनवाई। प्रत्येक बार तुमको शिष्यों के समूह से बाहर धकेल दिया परन्तु तुमने अपने मन में मेरे लिए कभी दुर्भाव उत्पन्न नहीं होने दिया। तुमने मुझसे निभाया है इसीलिए तुम्हारे जो भी शिष्य होंगे वे भी तुमसे निभाएंगे। गुरु मारपा ने मिलारेपा को ध्यान की प्रकिया बताई और मिलारेपा भूखा तो था ही। मिलारेपा की भूख भी बड़ी गजब की थी कि वर्षों तक बकरार ही रही। ऐसी भूख सभी शिष्य को होनी चाहिये। गुरु की युक्ति लेकर मिलारेपा गुरु आज्ञा से दक्षिण दिशा की एक गुफा में ध्यान करने लगा । प्रारम्भ में उसने मन और शरीर को स्थिर करने के लिए अपने सिर पर दीपक जला कर रखा और ध्यान शुरू किया। फिर तो मिलारेपा की बड़ी ही सुन्दर गति हो गयी ध्यान समाधि में। इस बार तो वह गहराइयों की अनुभूति में खोता चला गया। कुछ समय पश्चात एक दिन गुरु मारपा अपने गुरुदेव से मिलने भारत आए उन्होंने मिलारेपा के बारे में बताया। गुरु मारपा के गुरुदेव थोड़े ध्यानस्थ हुए और बड़े ही उच्च स्वर में उन पहाड़ों की वादीयों में बोलने लगे दोनों हाथ ऊपर करके। वाह कैसा आश्चर्य है कि तिब्बत की अन्धकारमय धरती पर एक सूर्य के समान शिष्य साधना कर रहा है। धन्य है ऐसा शिष्य। तभी से भारत के उस स्थान के पर्वत का ऊपरी भाग और वहां के पेड़ पौधे तिब्बत की ओर झुक गए उसी दिशा में जहां मिलारेपा साधना कर रहा था। मानो ऐसे गुरुभक्त को प्रकृति भी प्रणाम कर रही हो। आज तक उसी दिन से भारत के पुलाहरी के पर्वत और वृक्ष उसी दिशा में झुके हुए मिलेंगे। जो मिलारेपा की गुरुभक्ति और गुरु निष्ठा का प्रमाण है। धन्य है ऐसा गुरुभक्त आज भी बौद्ध धर्म की सभी शाखाएँ मिलारेपा को मानती हैं। कहते हैं कि कई देवताओं ने भी मिलारेपा को गुरु रूप में स्वीकार किया। आज भी तिब्बत के हर घर घर में मिलारेपा के स्त्रोत एवं प्राथनाओं का पाठ किया जाता है। ऐसे गुरुभक्त सत्शिष्य को हम सभी प्रणाम करते हैं और अपने गुरुदेव के चरणों में प्रार्थना करते हैं कि हम भी एकनिष्ठ बनें और गुरुदेव के बताये हुए मार्ग पर सच्चाई से चलते रहें । 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ ऐसी ही और पोस्ट के लिए वॉट्सएप चैनल पर सनातन कहानियाँ ग्रुप से जुड़ने के लिए लिंक को टच करें और चैनल को फॉलो करें🙏 *सनातन कहानियाँ* WhatsApp Channel Link👇🏻 https://whatsapp.com/channel/0029VaiuKol0lwgtdCVs4I3Z Telegram Join Link👇🏻 https://t.me/Sanatan100 ० ग्रुप धार्मिक, भावनात्मक व प्रेरणादायक पोस्टों से संबंधित है। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊